बेफ़िक्री का नायक
विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
मानो बुराई अंत हेतु अति निवेश कर गया।
होली तो आस्था मित्रता की परिचायक रही
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
घुसपैठ, साजिशें नित्य सुना रही चाप है
शातिर 'वाज़े' के नगाड़े की मूक थाप है
चुनावी-हिंसा मानव रंगों से बना नाप है
उमड़ती भीड़ से कोरोना बम फट गया
गुबारमय गुलाल उड़ाना चाहत बन गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
चुनावी दम दिखाने नेता सत्ता हाजिर हैं
बनावट मिलावट रंग से हो जाते जाहिर हैं
हृदय परिवर्तन ढकोसला रंगों में माहिर हैं
घूमना आना जाना दिवा स्वप्न सा बन गया
सम्मान का तिलक गुलाल सवाल बन गया
जाने किस दौर में ये जग प्रवेश कर गया
होली-पर्व तो बेफिक्री का नायक बन गया।
बसंत पतझड़ उपरांत होली त्योहार प्रसंग
है पतन का पर्याय रूप तीज त्योहार उमंग
गिरग...