मां बिन घर
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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मां बिन घर का माहौल अजीब था।
आंगन में दरार और दालान उदास था।
छत से भी उदासियां टपकती दिखीं,
मुंह बाए खड़ा दरवाजा सुनसान था।
ओ मां! तेरी कमी इस कदर खली की,
तेरे घर का तो ज़रा - ज़रा परेशान था।
परिवार में बच्चों से लेकर बड़ों तक,
हर एक से नेह आत्मिक लगाव था।
दरवाजे बंधी गौरा गाय समझती थी,
तेरे हाथों को चाटने में अमृत स्नेह था।
आंगन में चहकती गौरैया जानती थी,
तेरे कदमों में ममता का दाना पानी था।
आप अनपढ़ होकर भी पढ़ लेती थी,
बाबूजी की आंख अभावों का सागर था।
बस यादें खूंटी पर टंगी ओढ़नी मां की,
यही आंसू समेटता वात्सल्य भरा पल्लू था।
कैसे मेरी मां के अपरिमित ममत्व से,
चूल्हा चौका खेत खलिहान सरोबार था।
मां जताई नहीं दुःख दर्द थकान सिकन,
बस उसे परिवार की खुशियों से सरोकार था।
परिचय :- डॉ. भगव...