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पद्य

भोला आतंकी
कविता

भोला आतंकी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** भोला दिखने वाला मानुष, दिल से सच्चा नहीं होता। सीधेपन की आड़ में देखा, खुलासा तक नहीं होता। वो दुनिया भर की नजरों में, गौ जैसा बन जाता है। रहस्य भरे तार खुल जाए, आतंकी कहलाता है। मासूमियत ओढ़े चेहरा, भीतर बहुत दरिंदा है रखे हैं आतंकी संबंध, जांच काज पेचीदा है तार जुड़े हुए विदेशों से, फड़कता भी परिंदा है सत्ता सुरक्षा ढिलाई पाकर, सिद्धू जान गंवाता है वो दुनिया भर की नजरों में, गौ जैसा बन जाता है रहस्य भरे तार खुल जाए, आतंकी कहलाता है। भोला दिखने वाला मानुष, दिल से सच्चा नहीं होता। सीधेपन की आड़ में देखा, खुलासा तक नही होता। छापों का भी डर नहीं तनिक, मनुज बनता है सत्कर्मी राजनीति के दांवपेंच में, बनता धूर्त हठधर्मी माफिया गैंग के राजदार, जो हत्यारे और कुकर्मी शासन कानूनों की जकड़न, चोला बाहर आता है वो दुन...
साहस
कविता

साहस

संजय कुमार नेमा भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** अब ठान लिया, साहस से उस पथ को चुनना है। जिस पथ को बागों ने फूलों से संवारा है। साहस ही मुझको, सपनों से होकर मंजिल तक ले जाएगी। साहस ही मुझे सूरज सा चमकायेगा।। अब चुनता हूं, उस पथ को, ऊंचे नीचे पहाड़ी रास्ते। टेढ़े-मेढ़े रास्ते,‌ पथरीली रास्ते। साहस से ही रास्ता बनाऊं। रास्ते भी नऐ हैं, नये अरमानों के बीच चौराहों को देखूं।। रास्ता अपना खोजूं साहस से ही नये, लक्ष्यों तक पहुंचूं।। अट्टहास करूं, जोर-जोर से शोर मचाऊं।। अपने निर्णय से लोहे को ही झुकाऊं। चमकीले पत्थरों से हमेशा दूर हो जाऊं। अब साहस से ही चलना है।। दिन-रात खपना है, लक्ष्य अब लंबा लगता नहीं। सपनों से ही हौसलों को बढ़ाऊं। मुश्किलें मुझे झुका ना सकीं।। सफलता की कोई तारीख तय नहीं। साहस ही तो मुझे, नई सोच, कार्य उत्कृष्टता से, सफलता की सीढ़ियां चढ़व...
कैसा जीवन बिना जल ?
कविता

कैसा जीवन बिना जल ?

डॉ. संगीता आवचार परभणी (महाराष्ट्र) ******************** पीने लायक जल, कितना बचा है धरा पर? फ़िकर करे हर पल, अब इसी अहम मुद्दे पर! लोगों की चाल-ढाल, और बदले है सबके आसार बहा रहे हैं जल, मानो है जल निर्माण का आधार। आबादी ने किया बेहाल, बढ़ रही है बडी तेज रफ्तार प्रकृति का वरदान जल, बिक रहा है सरेआम बाजार। वसुन्धरा का दिया जल, बनाकर रख दिया है व्यापार मिल नहीं रहा जल, गरीब हो गए सब लाचार। उसका हो गया जल, जिसका बल है तेजतर्रार निर्बल को नहीं जल, दया की कोशिश है बरकरार। कैसा जीवन बिना जल? मानव करो प्रकृति का ऐतबार बचाते रहो जल, एक बूंद भी न जाए बेकार। भावी पीढ़ी का उज्ज्वल, चलो कर ले हम बेड़ा पार 'जलजला' बन गया जल, सुन लो माँ प्रकृति की गुहार।। परिचय :- डॉ. संगीता आवचार निवासी : परभणी (महाराष्ट्र) सम्प्रति : उप प्रधानाचार्य तथा अंग...
कभी खिलाफ थे…
कविता

कभी खिलाफ थे…

प्रीतम कुमार साहू लिमतरा, धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** कभी खिलाफ थे, इश्क में जुदाई के हम ! आज दर्द जुदाई के, गुलाम हो गए हम..!! ना जी सकते है, न मर सकते है हम ! दर्द जुदाई का, बया न कर सकते है हम..!! देखे थे सपने बनाने को उन्हें हम-दम ! सपने तो आज भी है, पर टूट गए हम..!! साथ मिलकर पेड़ो में लिखे थे जो नाम ! वो नाम आज भी है, पर छूट गए हम..!! ना अपना, ना पराया कह सकते है उन्हें ! साथ जीने मरने की कसमें खाए थे हम..!! कभी पास थे उनके, अब दूर हो गए हम इश्क की गलियों में, मशहूर हो गए हम..!! साथ मिलकर बिताये है हमने जो लम्हें याद कर उन्हें अश्क में डूब जाते है हम..!! इश्क से पहले रंगीन थी जिंदगी हमारी ! अब जिंदगी तो है, पर रंगहीन हो गए हम..!!! कैसे कह दूँ उनसे हमारा वास्ता ना रहा कुछ पल सही साथ तो चलें थे हम…!!! परिचय :- प्रीतम कुमार स...
पेड़ लगायें-धरा बचायें
कविता

पेड़ लगायें-धरा बचायें

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** सवा लाख वर्षों में अब तक, हुई न इतनी गरमी। ताप बड़ा धरती पर इतना, हुई विलोपित नरमी। दिन दिन बढ़ता तापमान पर, कारण भी हम सब हैं। बेकरार क्यों मौसम करता, साधन भी जब सब हैं। अपनी खुशियों की खातिर ही, वृक्ष धरा से काटे। वसुधा के सारे हिस्से ही, कंक्रीट से पाटे। वृक्ष हमारे सहयोगी हैं, हमने समझ न पाया। वृक्ष काट धरती खाली की, अब जलती है काया। चोली दामन जैसा ही है, सदाबृक्ष से नाता। सहजीवन है बहुत जरूरी, नहीं निभाना आता। गरल युक्त वायु लेकर भी, प्राणवायु हैं देते। राहगीर को छाया देकर, हैं थकान हर लेते। वन संपदा वृक्ष देते हैं, फल प्रसून देते हैं। आँखों को हरियाली देकर, ताप सोख लेते हैं। वृक्षों के सँग नमक हरामी, हम सब ने ही की है। गर्मी पड़ी जानलेवा जब, भूल सभी ने की है। अड़तालिस ...
सुरभि मुखरित पर्यावरण
कविता

सुरभि मुखरित पर्यावरण

संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया भोपाल (मध्यप्रदेश) ******************** हमारा प्यारा प्यारा सुरभित मुखरित पर्यावरण। संरक्षण करना कर्तव्य हमारा , सृष्टि कर्ता प्रकृति। अमूल्य खजाना , मानव को मिली अनमोल भेंट। प्रकृति का पाया प्रथम उपहार भू धारण करती, पालकी मानव को धरा धारण किए, हरे-हरे पत्र, पल्लव, लता, वृक्ष, पुष्प फसलों से लहलहाती। हर्षित मंत्रमुग्ध अंतस अनुभूत आनंद दाता पत्र-दल पुष्पदल सुवास बरसा सुगंधित बयार बही उर। आनंद संचार हुआ, सुरभित मुखरित पर्यावरण किया, पुष्प दलों पर तितलियां और भौंरे मंडरा-मंडरा रसपान। कर लुभाते, बसंत ऋतु नवअंकुर का अभिनंदन कर, प्रकृति का पाया द्वितीय उपहार सुंदर नभ-मंडल। सूर्य, शशि और तारे जहां स्थित धरा पर नदी, ताल, झरने कल-कल करती उर में अपनी अमित छाप छोड़ती, प्रकृति का पाया तृतीय उपहार शुद्ध पवित्र समीर, मानव। जीवों पशुओं को जीवनद...
छड़ी
कविता

छड़ी

डॉ. जयलक्ष्मी विनायक भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** कोने में रखी दुबकी हुई सी, उपेक्षित नजर आती, बाप दादाओं से विरासत में मिली, अमूल्य धरोहर एक छड़ी , छड़ी शब्द से कुछ यादें ताजा होती हैं। मास्टर जी की दिल दहलाने वाली छड़ी जो हाथ पे निशान छोड़ जाती थी, बाबूजी की सैर पर जाने वाली छड़ी जिसके साथ वे रौबदार दिखते थे, अपना दबदबा बनाए रखते थे, एक फौजी अधिकारी की घुमाती छड़ी जो अपनी शानदार मूंछों को सहलाते युद्ध के कारनामे बतलाते थे, कमर झुकी शरीर का बोझ ढोती छड़ी, बीमार को सचेत करने वाली छड़ी, एक अंंधे लाचार का सहारा जो बिना छड़ी के रास्ता नहीं कर सकता पार, मुन्ने के खिलोनों की शोभा बढ़ाने वाली छड़ी, पतली, कड़क, सीधी, सर्पाकार डिजाइन वाली, मूठ वाली, भूरी, काली, सफेद, कई रंग की, लकड़ी की, प्लास्टिक की कई किस्म की, अनोखी, जादुगर छड़...
पिता
कविता

पिता

डॉ. भगवान सहाय मीना जयपुर, (राजस्थान) ******************** धरती पर जीवन संबल और शक्ति है पिता। बच्चों के लिए पूंजी और पहचान है पिता। स्नेह, प्यार और आशीर्वाद से छलकता, रिश्तों के सागर में गहरा पानी है पिता। रोटी, कपड़ा और मकान है, बच्चों की किस्मत और शौहरत है पिता। एक परिवार का अनुशासन, घर की छत और बच्चों का अभिमान है पिता। बिना पिता के संतान होती अनाथ, घर परिवार की सुरक्षा और संस्कार है पिता। फूलों के बाग़, बच्चों के खिलौने, घर के भगवान, पालन और पोषण है पिता। सारे रिश्ते नाते उनके दम से, बच्चों की मां की बिंदी और सिंदूर है पिता। महकते चमन के पहरेदार तो, परिवार की धरती और आसमान है पिता। परिचय :- डॉ. भगवान सहाय मीना (वरिष्ठ अध्यापक राजस्थान सरकार) निवासी : बाड़ा पदम पुरा, जयपुर, राजस्थान घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मे...
कैसे-कैसे रिश्ते
कविता

कैसे-कैसे रिश्ते

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** छिन लिया आसरा पेड़ को कटते देख दूसरे पौधे रो रहे थे कौन समझे इनकी पीड़ा नेक इंसान ही समझते उसे लगा होगा जैसे, माता-पिता के मरने पर रोते है कैसे रिश्ते यह जानते हुए भी खोने दे रहा है खुद के जीने की प्राण वायु पेड़ की खोल के रहवासी उड़े भागे थे ऐसे जैसे भूकंप आने पर लोग छोड़ देते है मकान थरथरा कर गिर पड़ा था पेड़ पेड़ के रिश्तेदार, मूक पशु-पक्षी खड़े सड़क पर, बैठे मुंडेरों पर आँखों में आँसू लिए विचलित अस्मित भाव से कर रहे संवेदना प्रकट और मन ही मन में सोच रहे क्यों छिन लिया आसरा हमसे क्रूर इंसान ने। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार ...
मेरी आवाज
कविता

मेरी आवाज

श्रीमती गार्गी राय सतना (मध्य प्रदेश) ******************** मैं मेरा आज और मेरा समाज इन तीनों में कभी सामंजस्य नहीं बैठा पाइ मेरी आवाज आवाजों के रूपों में परिवर्तन करके देखा- करुणा से भरी आवाज ने लोगों के हृदय को द्रवित करने के बजाए शंकित किया खुशी की आवाज ने लोगों की नींद उड़ा दी और मेरी क्रांतिकारी आवाज ने मुझे असहाय बना दिया। परिचय :- श्रीमती गार्गी राय निवासी : सतना (मध्य प्रदेश) शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिंदी ) बी.एड. अभिरुचि : साहित्य एवं लेखन फेसबुक पर विभिन्न मंचों द्वारा सम्मानित, पत्रिका एवं अखबार में रचनाऍं प्रकाशित, साझा संग्रह प्रकाशित। घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करव...
खुद से लड़ना नहीं आता
कविता

खुद से लड़ना नहीं आता

गोपाल मोहन मिश्र लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार) ******************** अजब कशमकश में हूँ कुछ समझ में नहीं आता मेरे यार समझते हैं मैं समझना नहीं चाहता जानता हूँ मेरे ग़म से परेशान है हर कोई खुश रहना चाहता हूँ पर ग़म छुपाना नहीं आता चाहत को मेरी उसने मज़ाक बनाकर रख दिया फिर भी बेवफा को दिल से मिटाना नहीं आता घुट-घुट कर जी रहा हूँ हर पल ज़िन्दगी का मर भी जाएँ प्यार में, लेकिन बहाना नहीं आता सोचते हो तुम कि डरता हूँ मुसीबतों से कमज़ोर नहीं हूँ, लेकिन खुद से लड़ना नहीं आता बहा देता ग़म को कब का अपने दिल से तेरी तरह अफसोस, लेकिन लिखना नहीं आता परिचय :-  गोपाल मोहन मिश्र निवासी : लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक ...
ग्लोबल वार्मिंग
कविता

ग्लोबल वार्मिंग

नितिन राघव बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश) ******************** मानव विज्ञान से खेल गया, कार्बनडाई ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मेथेन में वृद्धि कर अब तक गर्मी झेल गया।। बडा खुश हैं मानव अपने कारनामों से, आविष्कारों जैसे सुई से वायुयानो से।। झेल न सकेगा गर्मी और अब मानव, भविष्य में बनेगी जब यह दानव।। दानव लेगा अनेक रुप, मानव हो जायेगा कुरूप।। प्रथम होगा ऑक्सीजन की कमी, लगेगा उसको कि साँस अभी थमी।। द्वितीय होगा ओजोन छिद्र, पराबैंगनी करेंगी मानव को दरिद्र।। होंगे कैंसर और त्वचा रोग, मिलेगा अपने कर्मों का भोग।। तृतीय होगा फसल उत्पादन गिरावट, कैसे करेगा मानव अन्न में मिलावट।। मिलावट का फल एक दिन पाएगा, बिन अनाज भूखा ही मर जाएगा।। चतुर्थ होगा हिमखंड पिघलाव, जम जायेगे पृथ्वी पर बाढ़ के पद पॉंव।। पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी, मानवता पछता भी ना पाएगी।। जब ये मु...
अंकुरण का जश्न
कविता

अंकुरण का जश्न

विवेक नीमा देवास (मध्य प्रदेश) ******************** जीवन की सुंदरता वन से, करो रक्षा धरती की मन से। धरा हरित और शोभित वन हो, पोषण का संकल्प सघन हो। भर दो धरती का कोष अपार, पुनः करो एक बार विचार। यदि नहीं होगी हरीतिमा धरा पर, संकट होगा बड़ा जीवन पर। बंजर भूमि और दूषित वायु, काया रोगी और अल्पायु। मत भूलो जीवन का मूल, लालच को सब जाओ भूल। चहुँ ओर सब वृक्ष लगाओ, अंकुरण का जश्न मनाओ। परिचय : विवेक नीमा निवासी : देवास (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी कॉम, बी.ए, एम ए (जनसंचार), एम.ए. (हिंदी साहित्य), पी.जी.डी.एफ.एम घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्...
अब मिटे मेंरे पद निशान है
कविता

अब मिटे मेंरे पद निशान है

संदीप पाटीदार कोदरिया महू (मध्य प्रदेश) ******************** बहुत हो गया अब न सहूगी अब मिटे मेंरे पद निशान हैं क्यो घटी योगी पुण्य आत्माये अब जन्मे क्यो रावण से बडे़ जो हैवान है क्यो मनुष्य स्वार्थी हुआ क्यो हो रहा मानवता का कत्लेआम है और क्यो माँ आज एक गाली बनीं क्यो बेटियों के होने पर भी विराम है आज बनी क्यो हर माँ जो अंधिका माई है जिसने बेटियों को बनाई पराई है क्यो उन माओ ने कि अपने बेटो कि बढाई है जिन्होने माया रुपी रावण कि लंका में सिर्फ अपनी भीड़ बढाई है याद करो माओ क्यो ऐसी विपदा आई है क्यो बनी माँ रामायण में सीता क्यो भागवत गीता में माँ द्रोपदी का बखान है क्यो ज्ञानी अंर्तध्यान हुये क्यो बने कोई आसाराम है क्या अंधकार और अत्याचारियों के सारे ग्रह बलवान है अब मिटे मेरे पद निशान है परिचय :- संदीप पाटीदार निवासी : कोदरिया महू जिला इन्द...
तुमने कोशिश की
कविता

तुमने कोशिश की

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** तुमने तो पूरी कोशिश की हमारी खिल्ली उड़ाने की हर जगह हरा तरफ, हम फिर भी खिलखिलाते रहे इस मतबली जमाने में। तुमने तो पूरी कोशिश की कि हम जीते जी मर जाए। हम फिर भी हंसते रहे मुस्कुराते रहे, और जीवन की डगर में जिजीविषा लिए जीते रहे। तुमने तो पूरी कोशिश की कि हम जीवन के पथ पर टूट कर बिखर जाए, हम फिर भी खुद को एकत्र किए जीवन के आकाश में हौसलों की उड़ान से उड़ते रहे, हर जगह हरा तरफ। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अ...
सच ही कहता है ये आईना सदा 
कविता

सच ही कहता है ये आईना सदा 

प्रमेशदीप मानिकपुरी भोथीडीह, धमतरी (छतीसगढ़) ******************** सच ही कहता है ये आईना सदा कोई चेहरा नहीं रहता इसमें सदा  २ याद करके तो देखो, वो बीते हुये दिन गुजरे हुए अपने, वो पल क्षिण -क्षिण याद आयेगी वो झूठी-मुठी अदा कोई चेहरा नहीं रहता इसमें सदा  २ ज़िन्दगी आईने का ही प्रतिरुप है प्रतिपल बदलती जिसका स्वरूप है दिखाती है हर पल, नई -२ ये फ़िज़ा कोई चेहरा नहीं रहता इसमें सदा  २ ज़िन्दगी की ये सबसे बड़ी सत है ज़िन्दगी मौत की ही अमानत है कोई टिकता नहीं है यहाँ पर सदा कोई चेहरा नहीं रहता इसमें सदा  २ याद आयेगी, तुमको उमर ढलने पर बोझ ढोयेंगे जब-जब, अपने कांधे पर सच ही कहता था प्रमेशदीप ही सदा कोई चेहरा नहीं रहता इसमें सदा  २ परिचय :- प्रमेशदीप मानिकपुरी पिता : श्री लीलूदास मानिकपुरी जन्म : २५/११/१९७८ निवासी : आमाचानी पोस्ट- भोथीडीह जिला- धमतरी (छतीसगढ़) संप्रति : शिक...
आ गई मझधार फिर से
ग़ज़ल

आ गई मझधार फिर से

नवीन माथुर पंचोली अमझेरा धार म.प्र. ******************** आ गई मझधार फिर से। खुल गई पतवार फिर से। मौज से कश्ती मिली तो, मिल गई रफ़्तार फिर से। कर नहीं पायी कही जब, घिर गई सरकार फिर से। बात अपनी ज़िद पकड़कर, बन गई तकरार फिर से। ज़िन्दगी आकर के हद में, हो गई घर-बार फिर से। आ गया किरदार रब का, जब हुई दरकार फिर से। परिचय :- नवीन माथुर पंचोली निवास - अमझेरा धार म.प्र. सम्प्रति - शिक्षक प्रकाशन - देश की विभिन्न पत्रिकाओं में गजलों का नियमित प्रकाशन, तीन ग़ज़ल सन्ग्रह प्रकाशित। सम्मान - साहित्य गुंजन, शब्द प्रवाह, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्...
एक मिसाल
कविता

एक मिसाल

शत्रुहन सिंह कंवर चिसदा (जोंधरा) मस्तुरी ******************** तपती है ये बदन धुप में कोयला की आस है मिली सोन की खान कर कर्म तु यूं ही सदा बढ़कर ना कर तु ये लचार मन, तन को करता चल यूं ही पल पल मंजिल मिलती है मेहनत से थके ना कभी ये हैसला आपकी होगी फिर ओ आहट कल की कांटे बिछे पड़े हैं राहों में बना तू इसे मखमली गुलाब सा बनो तुम भी एक मिशाल देखकर हंसते ये दुनिया तुम पर हंसकर रह जाएं ये वो पल ऐसी कर तु नित्यनया सवेरा जो हो सभी के लिए दया की सागर सागर सा अथाह है जीवन में यूं ही तुम करो साहिल सा पकेरा तपती है ये बदन धुप में यूं ही सदा पल पल। परिचय :-  शत्रुहन सिंह कंवर निवासी :  चिसदा (जोंधरा) मस्तुरी घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन...
अब वक्त के आगे वक्त बनों
कविता

अब वक्त के आगे वक्त बनों

आनंद कुमार पांडेय बलिया (उत्तर प्रदेश) ******************** है वक्त नहीं तुम शख्त बनों, अब वक्त के आगे वक्त बनों। होगा जो भी हम देखेंगे, हम सब मिलकर ये प्रण लेंगे।। ये दुनिया तुमको याद करे, खुद में तुम ऐसे शक्स बनों।। है वक्त नहीं तुम शख्त बनों, अब वक्त के आगे वक्त बनों। किश्मत के भरोसे मत रहना, तुम कर्म करो आजादी है। आगे-पीछे की सोच न कर, ये जीवन की बर्बादी है।। बेशक मुसीबत आन पड़ी, नर धैर्य न छोड़ सशक्त बनो। है वक्त नहीं तुम शख्त बनों, अब वक्त के आगे वक्त बनों।। गतिशील बनो धारा की तरह, नर जीवन यूं ना व्यर्थ करो। जज्बा रखो मांझी की तरह, असंभव में नव अर्थ भरो।। आनन्द सफर हो कठिन भले, माने न हार वो रक्त बनो। है वक्त नहीं तुम शख्त बनों, अब वक्त के आगे वक्त बनों।। परिचय :- आनंद कुमार पांडेय पिता : स्व. वशिष्ठ मुनि पांडेय माता : श्रीमती राजक...
दो जून की रोटी
कविता

दो जून की रोटी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** दो जून की रोटी, थोड़ा खुश थोड़ा सहमी, थोड़ा पसीने से लथफत, कभी अम्मा के हाथों में गोल घूमती नरम स्वाद वाली रोटी कभी पिता के पसीने में मोतियों सी चमकती रोटी! कभी बिटिया की चांद जैसी मुस्कराहट वाली रोटी.! ना जाने किन-किन पथरीले रास्तों से गुज़रती-जूझती, कभी राजनीति के दल-दल में फंसती हुई रोटी! धर्म कर्म, चाटुकारिता की भेंट चढ़ती रोटी, "वक़्त" और " दौलत" के बीच फंसती सिसकती हुई रोटी, रिश्तों में दूरियों का एहसास, करवाती रोटी कहीं फेंकी-मसली, चीखती चिल्लाती रोटी, कहीं किसी "जीव" की क्षुधा शांत करती रोटी, बहुत लंबी और असीमित है मेरी कहानी, क्योंकि, "मैं हूँ दो जून की रोटी" .... परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा...
प्रेम का इजहार
कविता

प्रेम का इजहार

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** पेड़ पर मौसम आने पर लगते फूल और फल पेड़ प्रेम का प्रतीक बन जाते जब बांधी जाती प्रेम के संकल्प की धागे की गठान पेड़ की टहनी पकड़े करती प्रेम का इजहार या पेड़ के तने से सटकर खड़ी रहती पेड़ एक दिन बीमारी से सूख गया प्यार भी कही खो गया चाहत भी गम में हुआ बीमार एक दिन चला गया मृत्यु की आगोश में संयोग वो जब जला दाहसंस्कार में लकड़ियाँ उसी पेड़ की थी अधूरा इश्क रहा जीवन मे रूह तृप्त हुई इश्क़ की चाहत ने कभी टहनियों को छुआ तो था कभी। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "द...
नशा छा जाता
कविता

नशा छा जाता

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** जिसके सेवन से मानव पर, त्वरित नशा छा जाता। ऐसा मादक द्रव्य देह को, ही समूह खा जाता। नशा नाश की जड़ है प्यारे, नशा नर्क का द्वार है। डूबा रहता जो व्यसनों में, नष्ट हुआ घर-बार है। बुद्धि भ्रष्ट हो जाती इससे, पतन आत्मा का होता। जैसे नाव डुबो देता है, हुआ तली में जो सोता। सभी मान मर्यादा खोता, व्यसन चाहने वाला। आयँ-बायँ बकने लगता है, गई हलक में हाला। बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू या, चरस अफीम औ गाँजा। करता है जो व्यसन हमेशा, उसका बजता बाजा। गाँजा, चरस, भांग, हेरोइन, ब्राउन शुगर जो लेता। सुरासुंदरी के घेरे में, तन- धन ही खो देता। नशा माफ न करे किसी को, व्यसन यही सिखलाता। नशा रक्त में मिलकर अपना, रौद्र रूप दिखलाता। व्यसनी अपना हित अनहित भी, कभी देख न पाता। अपने अवगुण के कारण ही, घर का खोज ...
मेरा अस्तित्व है क्या…
गीत

मेरा अस्तित्व है क्या…

हरिदास बड़ोदे "हरिप्रेम" गंजबासौदा, विदिशा (मध्य प्रदेश) ******************** मैं क्या हूं, मैं क्यों रो पड़ा, मैं क्या हूं, मैं क्यों हस रहा। मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व है क्या, मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व है क्या। "मैं कैसे कहूं, किससे कहूं, कोई अपना पराया, लगने लगा।" मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व है क्या, मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व है क्या...।। मान भी जा, ऐ दिल ना हो दुखी, मेरा होना, ना होना एक जैसा। "मैं कैसे कहूं, किससे कहूं, कोई अपना पराया, लगने लगा।" मेरा दिल रोये, मेरा अस्तित्व है क्या, मैं कुछ नहीं मेरा अस्तित्व है क्या। मैं कुछ नहीं मेरा अस्तित्व है क्या...।। जाना अनजाना सा, सपना लगे, मैं अपना कहने, कहते चला। "मैं कैसे कहूं, किससे कहूं, कोई अपना पराया, लगने लगा।" मेरा मन तड़पे, मेरा अस्तित्व है क्या, मैं कुछ नहीं, मेरा अस्तित्व है क्या। मैं कुछ...
मेवाड़ के महाराणा
कविता

मेवाड़ के महाराणा

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** 'आओ सुनाए आज तुम्हें इक गाथा राजपूताने की अकबर की चतुरंगी सेना पीठ दिखाकर भागी थी 'राजपूताने की धरती पे महाराणा प्रताप जन्मे थे वीर प्रताप,मेवाड़ राज्य मुगलों के गढ़ भी डोले थे कफ़न बाँधके केसरिया ये राणा की जय जय बोले थे 'मातृभूमि मुगलों ने छीनी जंगल में सेना बनाई थी छापामारी सिखलाते थे छुप करके तीर चलाते थे अंधियारों को चीर चीरके मशालें जीत की जलाते थे 'लोहपुरुष राजा थे उनके शौर्य वीरता का दम भरते कंदमूल और घास रोटियाँ खा खाकर जिंदा रहते थे ठंड ग्रीष्म बारिशों को भी जयकारों में ये भुलाते थे 'अकबर के अनुबंध नकारे राणा भिड़ गए मुगलों से धारदार भाले की ताकत चेतक की सवारी करते थे मुट्ठीभर सैनिक ले राणा विजय तिलक लगाते थे 'तजे प्राण घायल राणा ने मुगलों को ना पीठ दिखाई रण छोड़ते सैनिकों को लोहे के चने चबा ...
मधुमय प्याला छलका दो
कविता

मधुमय प्याला छलका दो

अशोक पटेल "आशु" धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** मेरे हृदय का आँगन है सुना-सुना सुरभित प्यार की बगिया खिला दो। सदियों से हूँ मैं तेरे प्यार का प्यासा तू बनके बरखा मेरी प्यास बुझा दो।। बन जाओ तुम मेरी मधुमय साकी प्यार का मधुमय प्याला छलका दो। हो जाऊँ मैं भी तेरा मदमस्त दीवाना बस मुझको थोड़ा-थोड़ा बहका दो।। बनके होठों का प्याला तुम जरा सा मुझको मधुमय रस का पान करा दो। हो जाऊँ मैं मगन मदहोश भम्रर सा हृदय से मुझको आलिंगन करा दो।। प्यार में छा जाए कुछ ऐसी मदहोशी ऐसी होश न मुझको कभी भी आए। प्यार का ऐसा जाम पीला दे तू साकी कि उमर भर फिर चाहत न रह जाए।। परिचय :- अशोक पटेल "आशु" निवासी : मेघा-धमतरी (छत्तीसगढ़) सम्प्रति : हिंदी- व्याख्याता घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी...