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नौ स्वरूप माता के
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नौ स्वरूप माता के

सोनल मंजू श्री ओमर राजकोट (गुजरात) ******************** शारदीय नवरात्रि की शुरुआत हो चुकी है। इन नौ दिनों में पूरी भक्ति से मां दुर्गा की उपासना की जाएगी। नवरात्रि का हर दिन मां दुर्गा को समर्पित है। नवरात्रि के नौ दिनों तक दुर्गा मां के अलग-अलग नौ रूपों की पूजा की जाती है। नवरात्रि के अंतिम दिन को महानवमी कहा जाता है और इस दिन कन्या पूजा की जाती है। आइए जानते हैं कि नवरात्रि में किस दिन माता के किस स्वरूप को पूजा जाएगा। १. माँ शैलपुत्री माँ दुर्गा का पहला स्वरूप शैलपुत्री है। शैल का मतलब होता है शिखर। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार देवी शैलपुत्री कैलाश पर्वत की पुत्री है, इसीलिए देवी शैलपुत्री को पर्वत की बेटी भी कहा जाता है। वृषभ (बैल) इनका वाहन होने के कारण इन्हें वृषभारूढा के नाम से भी जाना जाता है। इनके दाएं हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में इन्होंने कमल धारण किया हुआ है। मां के ...
गंध चिकित्सा से स्वास्थ्य पर्यटन विकास (उत्तराखंड उदाहरण)
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गंध चिकित्सा से स्वास्थ्य पर्यटन विकास (उत्तराखंड उदाहरण)

भीष्म कुकरेती मुम्बई (महाराष्ट्र) ******************** आलेख - विपणन आचार्य भीष्म कुकरेती मनुष्य विकास के कारण मनुष्य में अन्य जानवरों के गुण पाए जाने से गंध, सुगंध का अति महत्व है। हमारे पांच इन्द्रियों में सबसे अधिक महत्व गंध का है। हम जो पढ़ते हैं या देखते हैं वह कुछ दिनों में भूल जाते हैं, जिसे छूते हैं उसका स्मरण कुछ माह तक होता है जो सुनते हैं कुछ समय तक याद रखा जा सकता है किन्तु जो सूंघते हैं (भोजन स्वाद भी सूंघने से पैदा होता है) व सबसे अधिक समय तक याद रहता है। हमारे कम्युनिकेशन में ४५% कार्य सुगंध या गंध का हाथ होता है। हमारी किसी के प्रति चाहत, प्रेम, उदासीनता, घृणा में गंध इन्द्रिय का सर्वाधिक हाथ होता है। हम अन्य इन्द्रिय प्रबह्व को परिभासित कर सकते हैं किन्तु गंध का विवरण देना नामुमकिन ही सा है। किड़ाण या खिकराण को परिभाषित करना कठिन है। गंध/सुगंध पर्यटन का मुख्यांग है ...
गढ़वाली और राजस्थानी लोकगीतों में देवी देवताओं का आम मानवीय आचरण
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गढ़वाली और राजस्थानी लोकगीतों में देवी देवताओं का आम मानवीय आचरण

भीष्म कुकरेती मुम्बई (महाराष्ट्र) ******************** राजस्थानी, गढ़वाली-कुमाउंनी लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन : भाग- ५ भारत में सभी देवताओं को महानायक प्राप्त है। फिर भी लोक साहित्य में देवताओं को मानवीय व्यवहार करते दिखाया जाता है। राजस्थानी और गढवाली लोक गीतों में देवताओं को मानव भूमिका निभाते दिखाया जाता है। लोक गीतों में देवता अपनी अलौकिकता छोड़ में क्षेत्रीय भौगोलिक और सामाजिक हिसाब से में मिल गये हैं। लोक गीतों में शिवजी-पार्वती, ब्रह्मा, विष्णु सभी देवगण साधारण मानव हो जाते है। लोक साहित्य विद्वान् श्री विद्या निवास मिश्र का कथन सटीक है कि "शिव, राम, कृष्ण, सीता, कौशल्या या देवकी जैसे चरित्र भी लोक साहित्य के चौरस उतरते ही अपनी गौरव गरिमा भूल कर लोक बाना धारण करके लोक में ही मिल जाते हैं। यहाँ तक कि लोक का सुख-दुःख भी वे अपने ऊपर ओढ़ने लगते हैं। उसी से लोक साहित्य की देव सृष्ठि भ...
वात्सल्य-करुणा की प्रतिमूर्ति- आचार्य प्रमुखसागरजी
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वात्सल्य-करुणा की प्रतिमूर्ति- आचार्य प्रमुखसागरजी

मयंक कुमार जैन अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) ******************** चंदनं शीतलं लोके चं चंद्रमा। चन्द्रचन्दनद्वयोर्मध्ये शीतलाः साधुसंगतिः॥ वर्तमान में आप श्रमण संस्कृति के सुविख्यात एवं प्रतिष्ठित आध्यात्मिक संत हैं। आप वर्तमान शासननायक भगवान महावीरस्वामी की परंपरा में हुए आचार्य आदिसागर अंकलीकर, आचार्य महावीरकीर्तिजी, आचार्य विमलसागरजी एवं आचार्य सन्मति सागरजी महाराज की निग्रंथ वीतरागी दिगंबर जैन श्रमण परंपरा के प्रतिनिधि गणाचार्य पुष्पदंत सागर जी महाराज से दीक्षित, उनके बहुचर्चित व ज्ञानवान शिष्य हैं। तथा अपनी आगम अनुकूल चर्या एवं ज्ञान से नमोस्तु शासन को जयवंत कर रहे हैं । आज से ०२ वर्ष पूर्व २०२१ में जब इटावा चातुर्मास के दौरान होने वाली पत्रकार संपादक संघ संगोष्ठी में आपके समक्ष पहुंचने का अवसर मिला और आपका वात्सल्य और आशीष से ही में अभिभूत हो गया और ऐसा लगा कि - बहती जिनके मन...
बिच्छू घास (कंडाळि) के दसियों उपयोग
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बिच्छू घास (कंडाळि) के दसियों उपयोग

भीष्म कुकरेती मुम्बई (महाराष्ट्र) ******************** साभार : डॉ. बलबीर सिंह रावत कंडली, (Urtica dioica), बिच्छू घास, सिस्नु, सोई, एक तिरिस्क्रित पौधा, जिसकी ज़िंदा रहने की शक्ति और जिद अति शक्तिशाली है। क्योंकि यह अपने में कई पौष्टिक तत्वों को जमा करने में सक्षम है, हर उस ठंडी आबोहवा में पैदा हो जाता है जहाँ थोडा बहुत नमी हमेशा रहती है। उत्तराखंड में इसकी बहुलता है, और इसे मनुष्य भी खाते हैं, दुधारू पशुओं को भी इसके मुलायन तनों को गहथ झंगोरा, कौणी, मकई, गेहूं, जौ मंडुवे के आटे के साथ पका कर पींडा बना कर देते है। कन्डालि में जस्ता, ताम्बा सिलिका, सेलेनियम, लौह, केल्सियम, पोटेसियम, बोरोन, फोस्फोरस खनिज, विटामिन ए, बी१ , बी२, बी३, बी५, सी, और के, होते हैं, तथा ओमेगा ३ और ६ के साथ-साथ कई अन्य पौष्टिक तत्व भी होते हैं। इसकी फोरमिक ऐसिड से युक्त, अत्यंत पीड़ा दायक, आसानी से चुभने वाले, सुईद...
कुछ संकल्प कुदरत के नाम …
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कुछ संकल्प कुदरत के नाम …

अमिता मराठे इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** भोर के साथ ही हमारे कर्म प्रारंभ हो जाते हैं। इतनी व्यस्त और विशिष्ट जिन्दगी की गति कैसे दिन रात गुजार लेती है, इसकी सुध लेने की भी फुर्सत नहीं होती। लेकिन विचारणीय है कि जो काम हम कर रहे उसका प्रभाव पर्यावरण पर कैसा डाल रहे हैं। हमारी गतिविधियां ही पर्यावरण के प्रति हमारी सोच को दर्शाती है। उम्मीदों से भरे इस नववर्ष में हर कोई संकल्प लेता है लेकिन हम उन बातों को नजर अंदाज कर जाते हैं, जो हमारे लिए सबसे जरूरी है।कुदरत जो प्राणवायु से लेकर हर जरूरतों को पूरा करता है। उसके लिए हमें इस वर्ष भी नया संकल्प लेना चाहिए। जैसे प्लास्टिक का उपयोग या जीवाष्म ईंधन का उपयोग न हो। हमें यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि हमारी वजह से पर्यावरण को कोई नुक़सान न हो। पानी और ऊर्जा की बचत करें। गंदगी एवं कचरा स्वयं की ओर से कहीं न डालें। नियमों के मुताबिक चर्य...
दुख:द !! भारत में १४०० सालों से उत्पादक शीलता पर चर्चा ही नहीं होती !
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दुख:द !! भारत में १४०० सालों से उत्पादक शीलता पर चर्चा ही नहीं होती !

भीष्म कुकरेती मुम्बई (महाराष्ट्र) ********************  भारत आज सब ओर से संघर्षरत है। प्रजातंत्र में पर खचांग लगाने नहीं प्रजातंत्र को समाप्त करवाने परिवारवाद का हर प्रदेश में नहीं हर पार्टी में बोलबाला है। जब चुनाव आते हैं, फिर से चुनाव में जीतने या विरोधी को लतपत चित्त करने हेतु विकास, मुफ्त, गरीबी हटाने आदि की चर्चा में अग्यो लग जाता है। मुफ्त, विकास व गरीबी हटाना आवश्यक है। होना भी चाहिए। किन्तु भारत पिछले १४०० सालों से एक विभीषिका से लड़ रहा है और सिरमौर (सर्वश्रेष्ठ, मुकुट) देश हर तरह से पिछड़ रहा है या मात खा रहा है। यह विभीषिका है भारत में उत्पादकशीलता याने प्रोडक्टिविटी पर चर्चा न होना। उत्पादकशीलता विचार गुप्त काल के पश्चात भारत से सर्वथा लुप्त हो गया है। प्रोडक्टिविटी ट्रेडिंग के पैर धो उसे चरणामृत समझ पी रही है। गुप्त काल के पश्चात राजकीय उठा पटक होते रहे और उत्पादनशीलता यान...
भारत में मृदा चिकित्सा पर्यटन से पर्यटन विकास
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भारत में मृदा चिकित्सा पर्यटन से पर्यटन विकास

भीष्म कुकरेती मुम्बई (महाराष्ट्र) ******************** भारत मेडिकल टूरिज्म में कई सकारात्मक तत्वों के कारण प्रगति कर रहा है। मेडिकल टूरिज्म में प्राकृतिक चिकित्सा का योगदान भी अब वृद्धि पर है जैसे केरल व उत्तराखंड। प्राकृतिक चिकित्सा पर्यटन विकास में में मृदा चिकित्सा या मड थेरेपी टूरिज्म का महत्वपूर्ण योगदान है। मृदा चिकित्सा पर्यटन के विकास हेतु कई बातों पर ध्यान देना होगा। वैकल्पिक पर्यटन अथवा प्राकृतिक चिकित्सा पर्यटन विकास में मृदा अथवा मड चिकित्सा सुविधा आवश्यक है। मृदा चिकित्सा में मिट्टी मुख्य माध्यम होता है। मृदा चिकित्सा से निम्न लाभ मिलते हैं- मिट्टी सूर्य की किरणों से रंग चुस्ती लाती है और शरीर को प्रदान करती है। गठिया व त्वचा सुधर हेतु मृदा चिकित्सा लाभकारी है मृदा स्नान से त्वचा में बसे सूक्ष्म जीवाणु निकल जाते हैं मृदा स्नान या मृदा लेप से त्वचा रंध्र खुल जाते हैं मृदा ...
स्त्री का अंधकार
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स्त्री का अंधकार

अनुराधा बक्शी "अनु" दुर्ग, (छत्तीसगढ़) ******************** कितना मुश्किल है स्त्री होना और उससे भी ज्यादा मुस्किल उसका स्त्री बने रहना। एक स्त्री असीमित शक्ति की स्वामिनी होती है। वैसे तो प्रकृति और स्त्री एक ही है पर प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक रचना को जितना जटिल बनाया है उसकी सोच को उससे भी ज्यादा जटिल और शारीरिक क्षमता मे अपेक्षाकृत कुछ कमजोर भी। जब स्त्री एक जीवन को जन्म देकर गहन अंधकार से प्रकाश में लाकर उसे को प्रकृति का हिस्सा बनाती है तब उसकी शारीरिक पीड़ायें इस जटिलता की कहानियां कहती हैं।कितना सुखद और पीड़ादायक है मां बनना। इस पीड़ा को सुखद भी एक स्त्री ही बना सकती है। क्योंकि वो एक शक्ति है। अक्सर स्त्री जाने-अनजाने बहुत सारे बंधनो में बांधकर स्वयं को संचालित करती रहती है जो या तो समाज, रूढ़ी, परम्पराओं इत्यादि द्वारा दिए हुए होते है और कुछ के आवरण वो स्वयं से ओढ़े रहकर ख...
स्वास्थ्य के प्रति हम कितने सजग
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स्वास्थ्य के प्रति हम कितने सजग

अमिता मराठे इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** "मानव प्राणी का स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है" देह की सुरक्षा एक प्रमुख कर्तव्य है। देही का सुरक्षा कवच है। सदा स्मृति में रहे कि मैं देही इस काया रुपी मंदिर में विराजमान हूं। शरीर के शीर्ष स्थान पर दोनों भृकुटी के बीच अकाल तख्त पर बैठी हूं। शरीर के समस्त कर्म इन्द्रियों की राजा हूं। "जब आत्मा स्वस्थ हैं तब तन पर शासन भी स्वस्थ होगा।" हमारा प्रश्न है हम स्वास्थ्य के प्रति कितने सजग है तो समझना होगा "स्वास्थ्य ही शारीरिक, मानसिक, सामाजिक कल्याण की स्थिति है। "क्योंकि मुझे उसमें रहना है। लेकिन वातावरण परिस्थितियां, परम्पराएं बहुत तेजी से बदल रही है। जो स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है। लेकिन बाल, युवा वृध्द प्रदूषित वायुमंडल से गहराई से प्रभावित हो रहा है। वह भूल चुका है कि मैं कौन, कहां से आती हूं, क्या करना है। अज्ञान अंधेरे में भटकते स...
ये दाग़ कौन धोएगा…?
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ये दाग़ कौन धोएगा…?

माधवी तारे लंदन ******************** लंदन में यहां की संसद में राहुल गांधी का वक्तव्य सुन कर मन द्रवित हो गया। आज तक कितनी बार मैं यहां आई हूं पर ऐसा अनुभव मुझे कभी नहीं हुआ। भारत के लोकतंत्र का चीरहरण और खासकर देश के प्रधानमंत्री की बुराइयां, बीबीसी जैसे ख्यात न्यूज चैनल पर सुनकर मुझे गुस्सा आया। परदेश की सर जमीं, जहां पर अपने ही देश का मूल निवासी जो उच्च पद पर आसीन है, उनके सम्मुख देश के लिये अपमानजनक शब्दों को सुन कर गुस्सा नहीं आएगा क्या? परदेश में अपने देश की बुराई सुनकर मैं शर्मसार हो गई। गुस्से में मैंने मेरे बेटे को टीवी बंद करने को कह दिया। एक साधारण सा सांसद, जिनके पूर्वजों ने ७० साल तक इस देश की बागडोर संभाली और अनिर्बंध रूप से शासन चलाया। उनके एक शख्स का देश के प्रजातंत्र पर कुठाराघात करते हुए आलोचना करना, हमारे जैसे भारतीयों की नाक कटवाने जैसा है। वर्तमान में अपना सर उ...
अनासक्ति भाव
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अनासक्ति भाव

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** केशव स्वयं अनासक्ति के प्रतीक हैं। प्रेमघट भरा रहा, किंतु त्यागा वृंदावन तो पीछे मुड़ कर न देखा। अंदर तक भर गया था प्रेम तो बाहर क्या देखते। हम सांसारिक प्राणी अलग हैं। माया, मोह, धन-सम्पत्ति, परिवार, यश सभी ओर लोलुप दृष्टि है। जब तक सब अपने पास न हो, मन में शांति नहीं। हम सब भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं येन केन प्रकारेण भौतिक सम्पन्नता पाने को। कोई अंतिम लक्ष्य नहीं। एक इच्छा पूर्ण हुई नहीं कि दूसरी तैयार आसक्त करने को। क्या करें, कैसे करें........??? ईश्वर ने समस्या दी तो समाधान भी दिया। प्रेम व कर्म जीवन का अभिन्न अंग हैं अन्यथा सृष्टि चले कैसे। जीवन की राह में परिवार, भौतिक साधनों, धन-सम्पत्ति, मित्र, समाज के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है। संगति का प्रभाव बलवान है, वह चाहे परिवार, मित्र या पुस्तकों का हो। जैसे लोगों के ब...
राधा भाव
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राधा भाव

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्याहम। परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे। अपने कान्हा तभी अवतरित होते हैं जब धरती पुकारती है, जैसे त्रेता युग में ´जय-जय सुर नायक, जन सुख दायक´ कहकर पुकारा था।द्वापर युग का अंत समीप था, पृथ्वी कंसों व दुर्योधनों के भार से बोझिल हो रही थी। कलि-काल के उदय का पूर्वाभास होने लगा था। तभी तो वो चुपचाप कारागार में आए। महल में पदार्पण करते तो नंदगाँव, गोकुल, वृन्दावन को कैसे तृप्त करते। उन्होंने युग परिवर्तन को देखते हुए प्रारम्भ की अपनी लीला उस धरती माँ से जिसने उसका पालन किया। कुछ तो कारण था कि उस धरती ने कन्हैया को पुकारा ओर वो चले आए अपनी सोलह कलाओं सहित। वो शैशव काल में ही पूतना वध सेअपनी कलाओं द्वारा अपन...
धर्म और विज्ञान
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धर्म और विज्ञान

माधवी तारे लंदन ******************** धर्म: रक्षति रक्षित: ऐसा एक वाक् प्रचार है जिसका भावार्थ है धर्म ही धर्म की रक्षा करने वाले का रक्षण करता है। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों ने यह बात सिद्ध करके दिखाई है। हमें उनकी चर्चा में आज नहीं पड़ना है। वास्तविक बात यह है कि ज्ञान विज्ञान और अध्यात्म या धर्म दोनों ही मनुष्य को आत्मोन्नति के मार्ग पर चलने में सहायक होते हैं। एक अंदर से या मन-मस्तिष्क से तो दूसरा भौतिकता से या बाह्य जगत के ज्ञान से, दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं परंतु खोज उत्कर्ष अथवा स्व की उन्नति को ही महत्व है। सारांश यह है कि विज्ञान बाह्य रूप से और धर्म अंतर स्वरूप से ब्रह्मांड की खोज करने की कोशिश में लगे रहते हैं। राक्षसों द्वारा डूबी पृथ्वी को धर्म ने संवारा तो उसका हर तरह से विकास करना विज्ञान में संभव कर दिखाने की ठानी है। कहां पैदल यात्रा भ्रमण करने वाले, कहां पैदा, कह...
महामानव
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महामानव

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** शान्तमय वातावरण भी कितना भयावह लगने लगता है, जब किसी के पास बोलने को कुछ भी ना बचे, सोचने समझने की शक्ति जैसे जड़ हो जायें, क्या ऐसा भी जीवन में कुछ घटित हो सकता हैं, निःशब्दता वास्तव में इतना भयावह माहौल क्यूँ बना देती हैं, की बस उठो और ज़ाओ कहीं बाहर। पूरे दिन के कोलाहल के बाद कुछ घंटों का मौन खलने लगता हैं, ना ख़ुशी ख़ुशी ही रहती हैं, ना ग़म ग़मगीन ही करता हैं, सिर्फ़ टकटकी लगा के एक शून्य हुए को शून्य होकर निर्बाधता से देखे जाना कहाँ तक सही हैं। दूसरे के अंतर्मन की पीड़ा का अनुमान चंद लम्हे उसके साथ बैठकर नहीं लगाया जा सकता, जब तक आप स्वयं उसी पीड़ा से ना गुजरे हों। पीड़ा के भी रूप अनेकानेक हैं, मैं ये कह ही नहीं सकती की किसको कितना अधिक सहना पड़ा होगा, ना ही कोई बराबरी हैं किसी के दर्द की, बस एक आर्तनाद हैं ज़ो निरंतर प्रवाहमान हैं, स...
पलायन
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पलायन

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** गांव की आबादी आज घटती जा रही है। गांव के लोग शहरों की तरफ रुख़ कर रहे हैं । इसका कारण सबका अपना-अपना मत होगा। परंतु बेरोजगारी और सुविधाओं की कमी से गांव वाले ना चाहते हुए भी अपना घर छोड़ कर शहर के छोटे-छोटे कमरों में रहने को मजबूर हैं। क्योंकि हमारे गांव में बिजली, पानी, शिक्षा, रोजगार नहीं है। मैं सभी गांव की बात नहीं कर रही। परंतु बहुत गांवों में यह समस्या आज भी मौजूद है। शहरों का विकास तेजी से हो रहा है और गांव में जाकर देखो शिक्षा के नाम पर एक प्राइमरी या हाई स्कूल। वह भी सभी गांव में नहीं है। आगे बेचारे गरीब बच्चे पढ़ने कहां जाए? गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए बहुत सारी समस्याओं से गुजरना पड़ता है। यातायात- गांव में यातायात की सुविधा नहीं होती कैसे जाए पढ़ने के लिए बाहर। उनके पास दो विकल्प होते हैं या तो पढ़ाई छोड़ दे...
जीना इसी का नाम है
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जीना इसी का नाम है

चेतना प्रकाश "चितेरी" प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) ******************** (भाव-पल्लवन) ज़िन्दगी बड़ी ख़ूबसूरत है, हर पल को खुशी से जियो! जाने आनेवाला कल कैसा होगा? उसकी चिंता में इस पल को बेकार न करो! जिंदगी को खूबसूरत बनाना है कैसे? इस पर विचार करो ! हर समस्याओं का समाधान तुम्हारे पास है, माना कि आज के दौर में रहन-सहन, खान-पान बदला है, ऐसे में अपने आप को समाज में स्थापित करना चुनौती का सामना करने जैसा है और इन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते हैं तो निराशा, उदासी, आदि से घिरे हुए होते हैं, क्षण-प्रतिक्षण मस्तिष्क में अनेकों सवाल लहरों की भांँति आते- जाते रहते हैं, अशांत मन बेचैन रहता है, जब कोई तूफान आनेवाला होता है तो सागर शांत हो जाता है, ऐसे क्षण में व्यक्ति को एकांत में आत्म-चिंतन मनन, ध्यान अवश्य करना चाहिए। समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास आय का स्रोत नहीं है, लेकिन उनके प...
भारतीय गणतन्त्र के सात दशक
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भारतीय गणतन्त्र के सात दशक

डॉ. अवधेश कुमार "अवध" भानगढ़, गुवाहाटी, (असम) ******************** परिवर्तन का जोश भरा था, कुर्बानी के तेवर में। उसने केवल कीमत देखी, मंगलसूत्री जेवर में।। हम खुशनसीब हैं कि इस वर्ष २६ जनवरी को ७४वाँ गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। १५ अगस्त सन् १९४७ को पायी हुई आजादी कानूनी रूप से इसी दिन पूर्णता को प्राप्त हुई थी। अपना राष्ट्रगान, अपनी परिसीमा, अपना राष्ट्रध्वज और अपनी सम्प्रभुता के साथ हमारा देश भारत वर्ष के नवीन रूप में आया था। हालाँकि इस खुशी में कश्मीर और सिक्किम जैसे कुछ सीमावर्ती या अधर में लटके राज्य कसक बनकर उभरे थे। देश को एक संविधान की जरूरत थी। संविधान इसलिए कि किसी भी स्थापित व्यवस्था को इसी के द्वारा सुचारु किया जाता है। संविधान को सामान्य अर्थों में अनुशासन कह सकते हैं। संविधान अनुशासन है, यह कला सिखाता जीने की। घट में अमृत या कि जहर है, सोच समझकर पीने की।। २ वर्ष...
प्रतिस्पर्धा कहीं बन ना जाए अवसाद का कारण
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प्रतिस्पर्धा कहीं बन ना जाए अवसाद का कारण

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** जीत तू जरूर छू ऊंचाइयों को, कर मेहनत जरूर, सपने कर पूरे बस तू , कर मेहनत आज के आधुनिक दौर में आगे निकलने की दौड़ में सभी अपना वजूद ही खोते जा रहे हैं ।जो है उनके पास स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं ।माता-पिता प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अपने बच्चे को ही प्रथम लाना चाहते हैं। अच्छी बात है, पर दूसरों के साथ तुलना करके क्यों? सभी बच्चों में कौशल होता। हालांकि ये अलग बात है कि प्रतिभा अलग-अलग है। जैसे कोई चित्रकारी में, कोई नृत्य में, कोई गाने में, कोई पढ़ने में, कोई खेल में, कोई अपने घर के कार्यों में, पर अभिभावक चाहते हैं की हमारा बच्चा ही हर काम में प्रथम आए। हमें सिर्फ अपने बच्चे की प्रतिभा को देखना है। वह किस क्षेत्र में अच्छा है, उसकी प्रशंसा करना, ना की उस पर इतना दबाव बनाना की वह अवसाद में चला जाए। आज के दौर की सबसे बड़ी...
भारतीय परिधान साड़ी
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भारतीय परिधान साड़ी

प्रतिभा दुबे ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** आज साड़ी दिवस पर आप सभी के समक्ष अपने विचार रखना चाहूंगी। साड़ी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। साड़ी ही एक ऐसा परिधान है, जो देश विदेशों में भी सम्मानित रूप से देखा जाता है और इसी आदर के साथ धारण करना हर भारतीय के लिए गर्व की बात है, इस विशेष परिधान को हमारे राजा-महाराजाओं के जमाने से भी पूर्व से स्त्रियां सम्मान पूर्वक धारक कर रही है। "ऐसा नहीं है कि, किसी परिधान में कोई खराबी है या कोई परिधान छोटा या बड़ा है, परंतु साड़ी की विशेषता (बात) ही अलग है! अलग-अलग प्रांत में साड़ी को अलग-अलग तरीके से पहना जाता है परंतु फिर भी साड़ी हमेशा ट्रेंडी बनी रहती है इसे आजकल नव युवतियां, और भी क्रिएटिव तरीके से पहनती हैं कभी ब्लाउज के साथ कभी शर्ट के साथ तो कभी कुर्ती के साथ और तो और आजकल स्कर्ट के साथ भी साड़ी को देखा जा सक...
सूर्य का संदेश
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सूर्य का संदेश

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** संक्रान्ति पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य का बल ही इस दिन को पर्व बना देता है। भौतिकवैज्ञानिकों ने सूर्य के भौतिक स्वरूप को प्रतिपादित किया है, धर्मप्रवर्तकों ने उसको सूर्यदेव कहकर पुकारा। इनके अतिरिक्त सूर्य के दर्शन होने पर एक प्रकार की नैतिक एवं आध्यात्मिक अनुभूति भी होती है। प्रतीत होता है मानो सूर्य हम मानवों को कुछ संदेश देना चाहता है। संक्रान्ति के पावन पर्व पर सूर्य का यह संदेश सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचे, इस लेख का आशय यही है। सूर्य प्रबलतम् एवं बलवान है किंतु अहंकारहीन एवं विनम्र। अहंकार संस्कारहीनता है, विनम्रता मानवधर्म, जीवनधर्म है। जितना बलवान उतना ही विनम्र, जितना समर्थ उतना ही सम्यक् दृष्टि युक्त। हमें सूर्य से शिक्षा लेनी चाहिए- सर्वशक्तिमान किंतु विनम्र, बलवान किंतु संस्कारयुक्त, निष्ठा...
स्त्री संवेदना संदर्भ छुटकारा कहानी
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स्त्री संवेदना संदर्भ छुटकारा कहानी

काजल कुमारी आसनसोल (पश्चिम बंगाल) ******************** ममता कालिया की कहानियों में स्त्री पात्र अस्तित्वहीन होकर अपने अस्तित्व की तलाश में संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान युग की स्त्रियां पुरुषों के समक्ष ही नहीं बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी पहचान और अपने वजूद को कायम करने के लिए संघर्षरत हैं। सदियों से प्रताडित नारी एक अघोषित युद्ध के के खिलाफ संघर्ष कर रही है। समाज से लेकर परिवार कर तक वे संघर्ष कर रही हैं। और इसी संघर्ष ने उन्हें अपने अंदर एक अभूतपूर्व आत्मविश्वास को जगाया है। नारी जहां इस प्रतिसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष कर रही है, वहीं वे मेहनत तथा अदम जिजीविसा के बल पर समाज एवं परिवार में अपने धूमिल पड़े अस्तित्व को एक निखारने के साथ दी साथ एक अलग पहचान दी है। •स्त्रियों के संदर्भ में स्त्री लेखिकाओं का नजरिया बहुत ही महत्वपूर्ण है। * सिमोन दा बोउबार - "स्त्रियां ...
श्राद्ध से श्रद्धा तक
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श्राद्ध से श्रद्धा तक

सरला मेहता इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जब तक जीवित हैं...हम प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन मनाते हैं। हाँ, मनाने के तरीके भले प्रथक हो। किन्तु हम यह एहसास नहीं भूलते कि जीवन का एक वर्ष कम हो गया। यह हमारी भारतीय परंपरा है कि मृत्योपरांत भी हम अपने परिजनों को भुला नहीं पाते। उनकी स्मृति बनी रहे... इस हेतु श्राद्ध करते हैं। कहने को यह एक धार्मिक अनुष्ठान है किंतु इसके साथ भावनाएँ भी जुड़ी हैं। अनन्त चतुर्दशी पर गजानन की विदाई के पश्चात पूर्णिमा से श्राद्ध आरम्भ हो जाते हैं। इन्हें सौलह श्राद्ध भी कहते हैं। मृत्युतिथि अनुसार श्राद्ध करते हैं। स्वच्छता व विधिविधान से किसी ब्राह्मण को भोजन हेतु न्यौता जाता है। किंतु पण्डित लोगों को भी कुछ विशेष अवसरों पर ही पूछा जाता है। सही है कि दक्षिणा के लालच में कइयों का आग्रह मान लेते हैं। थोड़ा बहुत ग्रहण कर अगले यजमान के यहाँ पहुँच जाते हैं।...
परिवार की खुशी के लिए पुरुष का समर्पण
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परिवार की खुशी के लिए पुरुष का समर्पण

सीमा रंगा "इन्द्रा" जींद (हरियाणा) ******************** आज के भागदौड़ भरे इस आधुनिक जीवन में किसी के पास वक्त ही नहीं है। एक घर में रहकर भी घर के सदस्य एक-दूसरे के साथ बैठकर खाना नहीं खा पाते, बात नहीं कर पाते हैं। ऐसा नहीं है बात नहीं करना चाहते। सभी करना चाहते पर घर-परिवार की जिम्मेदारियां और फिर कमाने की जद्दोजहद में सब व्यस्त रहते हैं। सोचते हैं इस वर्ष की बात है अगले वर्ष सब ठीक हो जाएगा परंतु अगले वर्ष करते-करते कब बुढ़े हो जाते हैं पता ही नहीं चलता? एक आदमी को सिर्फ कमाना ही नहीं होता बल्कि बच्चों की पढ़ाई, स्वास्थ्य, घरवालों के ख्याल के साथ-साथ बहुत से खर्चों का ध्यान रखना पड़ता है। उसे हमेशा एक ही चिंता रहती है कहीं घरवालों की जरूरतें पूरी ना हो, या कहीं कोई क़िस्त समय पर ना जाएं या फिर बच्चे की स्कूल फीस, ट्यूशन फीस लेट ना हो जाए। त्योहारों पर बच्चों की जरूरतों का सामान...
स्वर्ण मृग आज भी सत्य
आलेख

स्वर्ण मृग आज भी सत्य

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** स्वर्ण मृग वस्तुतः एक छलावा ही तो हैं, जो की आज भी प्रासंगिक हैं, वास्तविकता की आज कोई दरकार ही नहीं हैं, सब कुछ बाहरी आकर्षण ही हैं ओर आकर्षण भी ऐसा की इससे अछूता कोई रह ही नहीं सकता। सुबह से शाम तक कोई ना कोई किसी ना किसी को छल ही रहा हैं बातों में मिश्री घोल सुंदर सा लबादा ओढ़कर सिर्फ़ ठगा ही जा रहा हैं। यूँही ज़िंदगी कई बार बेवजह के इम्तिहान लेती हें। टूटे हुए शाख़, दरख़्त भी कई बार मिलकर एक मुकम्मल जहां बना लेते हें। ज़िंदगी की राहों में ऐसे मुक़ाम आना भी लाज़मी हें वरना अपनी रूह से मुलाक़ात ही कहाँ हो पाती हें। कई बार आदतन या कई बार मजबूरी से हमें अपना माँझी दिख नहीं पाता ओर नतीजन हम रास्ता भटक ही जाते हैं। यह भटकाव ज़रूरी नहीं कि हमें गर्त की ओर ही ले जाए कई बार इसके नतीजे क्रांतिकारी भी होते हैं। जैसे कि महात्मा बुद्ध को ही ले ...