जंगल हर दिन रोता है
डॉ. भगवान सहाय मीना
जयपुर, (राजस्थान)
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एक दिन मैं गुजर रहा था,
शाहाबाद के जंगल से।
पहाड़ों को काटकर बनाई गई,
खुबसूरत डामर की सड़क पर।
अद्भुत मनोहर कांतार,
पर्वत के शिखर से तलहटी तक
सघन आच्छादित सुरम्य।
नदी, झरने, घाटी, जलाशय
से भरा पूरा परिवार।
असंख्य जीव,जन्तु,पशु,पक्षी,
भ्रमर, तितलियाँ, फूल,फल,
चारों दिशाओं में व्यापक विस्तार।
मुझे देखकर सिसकने लगे पेड़,
महुआ, पलास, शीशम, छिला।
दहाड़े मारने लगे शमी,नीम और
कानन के सब पहरेदार।
असीम अरण्य रुदन सुनकर
मैं भयग्रस्त कम्पित हृदय से
विनीत स्वर में पूछा..
हे! विपिन क्या, कोई
प्रलय का आभास हुआ
या दावानल कही जल उठी।
बियाबान में क्रंदन कैसा..?
क्यों कोमल किसलय रो उठी।
यह सुनकर मेरी मीठी बात,
कुछ धीरज धरकर चुप हो
फिर अटवी बोला मेरे से,
ना प्रलय का आभास हुआ
ना दावानल से डरता मैं।
मेरे कंद,मूल,...

















