जिन्दगी के पन्ने
शरद सिंह "शरद"
लखनऊ
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तन्हा बैठी देख रही थी,
अन्तस्तल की पुस्तक को,
हर पन्ना उल्टा पल्टा,
मन की तसल्ली करने को,
कुछ पन्नों मे सूनापन था,
कुछ मे छाई रंगीनी थी,
पर कुछ पन्ने सूने क्यों हैं?,
क्या इनकी कोई कहानी है?,
क्या इनको मिला न कोई रंग?
वह रंग, जो रहता इनके संग,
इनमे भी बन जाती कोई तस्वीर सुहानी
क्यों न बनी, क्यों सूने हैं यह,
पूछा मैने उन पन्नों से,
मूक रहे वह पन्ने,
बोल न सके वह कुछ मुॅह से,
आगे के पन्नों पर बढी़ उत्सुकता वश
पर यह क्या? आगे तो हर पन्ना सूना है,
एक दो चार दस हर पन्ना तो सूना है,
पल्टा हर पन्ना यही सोचकर,
शायद कुछ होगा आगे के पन्ने पर,
हाॅ आगे कुछ था,
कुछ बजी थी शहनाईयाॅ,
थिरके थे कदम मिली थी बधाईयाँ,
फिर छा गया अन्धकार,
आया तूफान करता हा हा कार,
उड़ गये उन पन्नों के सारे रंग,
फिर थी सूनी जिन्दगी की किताब,
जैसे किसी मतवाली वाला के,
टूट चुक...