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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग : ०८

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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दोपहर एक बजे के लगभग उज्जैन से इस घर के दामाद और मेरे पिताजी पंढरीनाथ उनके घर छत्रीबाजार न जाते हुए सीधे इधर इस बाड़े में ही आ गए। पुत्र प्राप्ति का तार मिलने के बाद तुरंत यहां आते हुए रास्ते भर वे प्रसन्नचित्त ही होंगे। लेकिन यहां इस बाड़े में सर्वत्र ख़ामोशी का माहौल था। उन्हें विचित्र लगा। पर उन्हें अन्दर आंगन में आते देख एक बार फिर से औरतों का जोर से रोना शुरू हो गया। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। पर अगले ही क्षण उनकी नजर मंदिर से सटे बरामदे में रखी मृत देह पर पड़ी। आशंकित मन से, हाथ की थैली एक ओर फेंक कर वें तुरंत उस ओर तेज कदमों से चल कर गए। देखा तो उनके होश उड़ गए। उनकी पत्नी की मृत देह जमीन पर रखी थी। ‘शा ..लि…नी …! ‘उन्होंने जोर से चिल्लाने का प्रयास किया, परन्तु सदमे से उनके शब्द गले में ही अटक गए। वें नीचे जमीन पर बैठ गए। मृतदेह के दोनों कंधे पकड़ कर जोर से हिलाने लगे, ‘ये क्या है शालिनी … ये कैसे हो सकता है .. शालिनी? तुम मुझे अकेले छोड़ कर कैसे जा सकती हो? उठों शालिनी … उठों .. ‘इतने ही शब्द उनके मुंह से निकले थे, पर शालिनी कहां उठ कर खड़ी होने वाली थी? अचानक पत्नी को मृत देख वें हैरान थे। उनके आक्रोश और वेदनाओं का मिश्रण एक साथ ही उनके चेहरे पर सब को दिखाई दे रहा था। यात्रा की थकान और ग्लानी इन सब में भर डाल रही थी। वें मन ही मन अपनी पत्नी से संवाद साधने का प्रयास कर रहे थे। सात जन्म का साथ निभाने की कसम खाने वाली उनकी सह्चरणी पांच वर्ष में ही उन्हें अकेला छोड़ गयी थी। और इसी का जवाब वें मृत देह से पूछ रहे थे। थोड़ी देर कोई भी आगे नहीं आया। फिर फूफाजी ही आगे आए। उन्होंने अपने लाडले साले के कंधे पर हात रखा, ‘पंढरी, शालिनी कल रात हम सब को छोड़ कर चली गयी। पिछले एक माह से ज्यादा बीमार चल रही थी। जचकी सहन नहीं कर पायी वो। अब तुम अपने आप को सम्हालों।
मेरे पिताजी ने अपना सर मेरे फूफाजी के कंधे पर रख दिया। फूफाजी ने भी उनकों थोड़ी देर रोने दिया। फिर पिताजी की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘हम अब ज्यादा ठहर नहीं सकते। तुम्हारे ही लिए रुके थे। रात को कर्फ्यू लगने से पहिले सब को अपने-अपने घर भी पहुचना होगा । सब कुछ जल्दी निपटाना होगा। इसलिए अब खुद को सम्हालों। हिम्मत रखों। दो बच्चों का सोचो। सम्हालों खुद को।’
कैसे सम्हालूं खुद को?’ मेरे पिताजी ने अपनी आंखें पोछी। इस घर के दामाद को रोते देख सभी की आंखें नम हो गयी।
‘जिन्दगी भर साथ रहने की कसमें हमेशा खाती थी। पर पांच वर्ष में ही चली गयी। सब झूठ। ऊपर से दो बच्चें मेरे अकेले के जिम्मे छोड़ गयी। क्या होगा आगे? क्या करू मै?’
सच में ही फूफाजी के पास पिताजी के किसी भी प्रश्न का उत्तर ही नहीं था।
दादाजी को भी अपने पुत्र का यह दु:ख सहन नहीं हो रहा था। वे आगे आए, मेरे पिताजी के कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘पंढरी, शांत हो जाI बहू को ले जाने का अंतिम समय आ गया है।’
अंतिम यात्रा की सब तैयारी हो चुकी है यह पिताजी को भी समझ में आ गया। उन्होंने अपने आप को सम्हाला। फूफाजी मेरे पिताजी को हाथ पकड कर अन्दर कमरे में ले कर आए। इन दोनों को आता देख काकी हड़बड़ी में खड़ी हो गयी। मै खटियां पर ही लेटा था।
‘पंढरी, ये तुम्हारा पुत्र है।’ फूफाजी बोले। मेरे पिताजी कुछ पल मुझे निहारते रहे। फिर बिना कुछ कहे धीरे-धीरे कमरे से बाहर चले गए।
मायके आयी हुई सुहागन के सबने अंतिम दर्शन किए। काकी मुझे लेकर कमरे से बाहर आगयी। मुझे बोली, ‘अपनी माँ के अंतिम दर्शन तू यहीं से करले। ‘मेरे कुछ बोलने या समझने का सवाल ही नहीं था।
‘राम नाम सत्य है! कहते हुए सभी लोग अर्थी लेकर बाहर निकल पड़े।

घर की औरतों को सब लोगों के घर वापस आने का इंतजार करने के अलावा कोई काम ही नहीं था। माई, दादी, नानी, नेने भाभी और सभी आयी हुई औरतें कमरें में आकर बैठ गयी। काकी तो मुझे लेकर बैठी ही थी। अब भावुक होने की बारी शायद काकी की थी। उन्हें अचानक मालूम नहीं क्या सूझा, वों मुझे लेकर उठी और सीधे मेरी दादी की गोद में मुझे रख दिया और बोली, ‘थोड़ी देर दादी के पास भी सो जा।’ इतना कहकर वे बाहर चली गयी।
शायद उनकों भी रोने की इच्छा हो रही थी, परन्तु वैसा वें किसी को दिखाना नहीं चाहती थी। काकी ऐसा कुछ करने वाली है इसकी दादी को बिलकुल भी कल्पना ही नहीं थी। वें थोड़ी असहज हो गयी। काकी का ऐसा व्यवहार दादी को बिलकुल भी पसन्द नहीं आया। माई ने यह पहचान लिया। उन्होंने मुझे दादी की गोद से लेकर नेने भाभी की गोद में दे दिया।
मेरे इस तरह कई हाथों में झूलने से एक बार फिर सभी औरतों को भावनाओं में डुबो दिया।
माई ने मेरे दादी से कहा, ‘कुछ भी कहो, अक्का के अपनेपन और स्नेहल स्वभाव के कारण उसने सभी को अपना बना लिया था। कभी किसी को दु:ख नहीं दिया। कभी किसी को ज़रा सी भी तकलीफ नहीं दी। रह रह कर उसकी अब बहुत याद आएगी।’
‘सुख नसीब में नहीं था बहू के और क्या कह सकते है? ‘ दादी बोली।
‘फिर क्या?’ नेने भाभी को भी कुछ याद आया, ‘आपको बताऊं, हाथी पर बैठे दुल्हे के साथ बारात आयी थी। क्या तो बारात का अभिमान था अक्का को। पूरे बाड़े में कहती फिरती थी कि मेरा दूल्हा हाथी पर बैठ कर बारात लेकर आएगा, तभी मै जाऊंगी। और माई आपने भी तो क्या ठाटबाट और धूमधाम से शादी की थी अक्का की।’
हाँ। अब क्या कहें? अपने हाथों में कुछ भी नहीं होता। हम सोचते कुछ है पर रामजी के मन में कुछ और ही होता है। ‘माई कहने लगी, ‘अपनी लाडली नाती अक्का की शादी का इन्हें भारी उत्साह। ऊपर से इनके बालसखा के लड़के से विवाह। हम दोनों की खुशियों का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। हमने कोई भी कसर नहीं रखी थी शादी में। बारात में चालीस से भी ज्यादा लोग आए थे तो भी हमने कोई कमी नहीं होने दी थी। सब बारातियों का मान-सन्मान, आदर आतिथ्य, कुछ मत पूछो। मालूम है पंगत में सब बाराती रेशमी धोती पहन कर बैठे थे और भोजन बनाने वाले महाराज और परोसने वाले भी सिर्फ रेशमी धोती ही में थे।
नानी अपने सास की सब बातें चुपचाप सुन रही थी। उसके बेटी के विवाह की चर्चा हो रही थी पर इसमें उसका या नानाजी का कोई ज़रा सा भी जिक्र नहीं कर रहा था। अब तक काकी भी कमरें में लौट आयी थी।
नेने भाभी ने मुझे वापस काकी की गोद में दे दिया था। बहुत देर से मन में दबाए बैठी अपने मन की उत्कंठा नेने भाभी ने बोल कर ही बता दी, ‘माई, मुझे तो दोनों बच्चों के बारे में सोच सोच कर ही मन भर आता है। बहुत बुरा लगता है। बिन माँ के बच्चें और उसमे ये दो दिन का। अब क्या होगा माई इस बच्चें का?’
‘हम हैं ना!’ मेरी दादी को नेने भाभी का बोलना अच्छा नहीं लगा।
अंतिम संस्कार निपटा कर सारे लोग अँधेरा होने के पूर्व ही लौट आए थे। थोड़ी देर रुक कर, मेरे दादा, मेरी दादी, बुआजी, फूफाजी, और बाकी सभी जाने को निकले। मेरे पिताजी शायद जाऊं या रूकूं इस दुविधा में लग रहे थे। आखिर फूफाजी उन्हें समझा कर अपने साथ ले गए।

मृत्य पश्चात अगली सारी माँ के क्रिया कर्म की विधियाँ, अर्थात पहले से लेकर तेरहीं भी हई। परन्तु वो सब इस बाड़े में न होकर छत्रीबाजार के घर पर ही होने के कारण इस बाड़े में कुछ भी आवाजाही नहीं थी। इधर से ही सब लोग छत्रीबाजार जाते रहे। एक दो बार माई भी नानी के साथ हो कर आयी। पर काकी सदैव मुझे ही लेकर रहती। अब शायद मै काकी को पहचानने लगा था। मेरे रोने पर जैसे ही वें मुझे लेती उनके हाथ मुझे पहचाने से लगते और मै शांत हो जाता। परन्तु हर बार मुझे दूध पिलाने के लिए काकी को नानी के पीछे लगना पड़ता। उसकी मिन्नतें करनी पड़ती। कई बार तो माँ बेटी में बहस हो जाती और परिवार के सब लोगों का उसमें उद्धार हो जाता। नानी की इच्छा न होते हुए भी उसे मुझे लेना ही पड़ता।
तेरहीं के बाद दूसरे दिन गंगापूजन और शांतिपाठ वाले दिन मुझे भी छत्रीबाजार ले जाया गया। इच्छा न होते हुए भी बूढी काकी को मेरी खातिर मुझे लादकर ले जाना पड़ा। वैसे ज्यादा दूर भी नहीं था हमारा घर। छत्रीबाजार में जिसे देखों वह मुझे ही देखने में लगा था। सबकी आँखों में बिन माँ के बच्चें को देखकर उपजी करुणा होती। हर एक के मन में बिना माँ के मैं कितने दिन जीवित रह सकूंगा यह शंका भी होती। मुझे कौन सम्हालेगा, मैं कहां रहूँगा, यह जानने की सबकों उत्सकुता भी रहती। बिन माँ के मैं कितने दिन जीवित रह सकूँगा इसका उत्तर शायद किसी को भी मिलना संभव नहीं था। पर मुझे कौन सम्हालेगा इसका उत्तर सबको उसी दिन मिल गया।
बगल में ही सिंधिया राजघराने की छत्रियां भी थी और वहां कई मंदिर भी थे। सब कार्यक्रम निपटने के बाद उसी अहाते में जाकर मंदिर में देव दर्शन के बाद सब वापस लौटे। अब बड़ों में इस बाबद चर्चा शुरू हुई कि मुझे कौन सम्हालेगा? अब तक पुरे ग्वालियर में यह बात फ़ैल चुकी थी कि मेरी नानी ही मुझे दूध पिला रही है और तीन माह की प्रसूता होने से उसे यह सहज ही संभव है। पंतजी ने काकी से मुझे बैठक में लेकर आने को कहाँ और मुझे काकी से लेकर मेरे दादाजी के हाथों में सौप दिया। मेरे दादाजी ने तुरंत उसे मेरी दादी के हाथों में दे दिया और पंतजी से बोले, ‘पंत, पंढरी का बड़ा बेटा उज्जैन में है। रघु और उसकी पत्नी वहां होने से हमें उसको सम्हालने की चिंता नहीं है। परन्तु यह बिन माँ का नवजात बच्चा माँ के दूध बिना हम कैसे सम्हाल पाएंगे यही चिंता हमें सता रही है। इसलिए हमें ऐसा लगता है कि एक दो वर्ष आपके ही यहाँ इसे सम्हालने की व्यवस्था हो तो बेहतर। पंढरी भी अकेला पड़ गया है अत: अब हम भी उसके पास उज्जैन जाकर रहने का विचार कर रहें है। आगे हम इस बच्चें को भी उज्जैन ले कर जायेंगे। तब तक आप सम्हाले ऐसी विनंती ……..।’
मेरे दादाजी को मेरी दादी ने बीच में ही टोका,’ … अजी उसमें क्या है? ख़ुशी से सम्हालेंगे पंतजी अपने बेटे के नाती को। परन्तु इसका पहले नामकरण संस्कार होना चाहिए। अच्छा सा कोई नाम रखना चाहिए।’
‘अच्छी याद दिलाई।’ दादाजी बोले, ‘परिस्थिती ही कुछ ऐसी थी कि नामकरण का किसके मन में आता? खैर। नामकरण संस्कार तो होना ही चाहिए। कल रात की गाडी से पंढरी वापस उज्जैन जाने का कह रहा है। फिर ऐसा करते है कल दोपहर को एक छोटे से कार्यक्रम में नामकरण अभी कर लेते है। बड़ा कार्यक्रम आगे मुहर्त देख कर आराम से कर लेंगे। क्या कहते हो पंत?’
‘ठीक ही है। आप जैसा कहें। वैसे कल का दिन भी ठीक ही है। हम अभी भालचंद्र शास्त्रीजी से चोपड़ा दिखवा लेते है। वैसे उनकों बच्चे की पत्रिका बनवाने के लिए पहले ही बोल दिया था और उनकों सारी जानकारी भी देदी थी।’ पंतजी बोले।
सब वापस इस बाड़े में लौट आए। मुझे कौन सम्हालेगा ये भी तय हो गया और पलने में डालकर मुझे एक पहचान देने का भी तय हो गया। सारे निर्णय दादाजी और पंतजी ही ले रहे थे। काकी, नाना-नानी तो खामोश से अलग-थलग ना जाने क्या सोच रहे थे?
दूसरे दिन दोपहर में घर के कुछ गिनती के लोग छत्रीबाजार में इक्कठे हुए।
किसी के तो भी पुराने से लोहे की संदूक में किसी बच्चे का एक नया कोरा रेशमी झगा (कुर्ता) ढूढने से मिल गया। वही मुझे पहना कर पलने में लिटाया गया। दादाजी ने मेरी बुआ को अपने पास बुलाया और उसके कान में धीरे से कुछ कहां। एक रेशमी कपडे में सिलबट्टे को रखा और उसे कपडे में लपेटा। बाद में दो सुहागनों ने तीन बार ‘गोविन्द लो गोपाल लो’ कहा और रेशमी कपडे में रखे कृष्ण के प्रतिक को पलने से नीचे ऊपर तीन बार किया। उसके बाद मेरी बुआ ने मेरे कान में धीरे से मेरा नाम लिया, “विश्वनाथ”।
पूर्व सूचित किसी सभा में कोई घोषणा की जावे ऐसी घोषणा मेरे दादाजी ने की, ‘पंत, आज से पंढरी के बेटे का नाम है, ‘विश्वनाथ’ और किसी घोषित सभा में सब जल्लोष के साथ सब कोई निर्णय मान्य करें, वैसे सबने तालि बजाकर दादाजी का निर्णय मान्य किया। तालियों की गडगडाहट के साथ मै अनाम इस दुनियां में “विश्वनाथ” हो गया। एक-एक पेडा खाकर सब मेरे नामकरण संस्कार के गवाह बने।
मेरे दादाजी के ‘विश्वनाथ’ नाम घोषित करते ही सभी भावुक भी हो गए थे। दादी के तो अपने बेटे की याद में आंखें भी भीग गयी। ‘विश्वनाथ’ ये दादाजी के चार बेटों में दूसरे नंबर के बेटे का नाम था। अर्थात मेरे ताऊजी का। दादाजी का सबसे होनहार और लाडला यह बेटा उज्जैन में महाकाल पुलिस थाने में सब इन्स्पेक्टर था। गोराचिट्टा, ऊँचापूरा, खूबसूरत, दादाजी का यह बेटा छ: माह पूर्व अपनी जवानी में ही पीलिया की बीमारी में चल बसा था। अपने कर्तबगार बेटे का दु:ख दादाजी और दादी को भुलाना कठिन ही था। एक बेटे का दु:ख सहन नहीं हो रहा था अब बहू के जाने से सबसे छोटे बेटे के दु:ख का पहाड़ भी दादाजी और दादी पर बोझा ही बन गया था। दादाजी ने अपने नवजात पोते का नाम अपने पुलिस इन्स्पेक्टर बेटे की याद में रखा था।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ०९ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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