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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था भाग-०१

वरिष्ठ साहित्यकार
सूर्यकांत नागर
इंदौर म.प्र.

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प्रस्तावना

विश्वनाथ शिरढोणकर एक सुपरिचित रचनाधर्मी हैं। मराठी साहित्य-जगत में तो यह एक जाना पहचाना नाम हैं ही, हिंदी का पाठक भी उनसे अपरिचित नहीं हैं। हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में उनके पत्र, लेख और टिप्पणियाँ प्रकाशित होती रही हैं। उनका संवेदनशील मन और पारखी नजर अपने परिवेश को अलग अंदाज से देखती, परखती और विश्लेषित करती हैं। उनमें सोचने-विचारने की प्रवृत्ति बचपन से ही हैं जो समय के साथ विकसित होती गई। बचपन में उन्हें अनेक विपरीत और विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा इसलिए बाल्य-काल की मीठी-कड़वी यादें उनके ज़ेहन में बहुत गहरे तक जड़ें जमाए हुए हैं।
शिरढोणकरजी द्वारा रचित उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ ऐसी ही स्मृतियों का वृहद कोष है। उपन्यास का मूल मराठी संस्करण वर्ष २०१६ में प्रकाशित हो चुका हैं और उसे महाराष्ट्र में अच्छा प्रतिसाद भी मिला है। संभवतः इसी से प्रेरित हो उपन्यासकार के मन में यह बात आई कि उपन्यास में व्यक्त मनोभावों से हिंदी के पाठकों को भी अवगत कराया जाए। अत: मूल उपन्यास में थोड़े संशोधनों के साथ उन्होंने स्वयं ही इसका हिंदी अनुवाद किया हैं।
‘मैं था मैं नहीं था’ एक तरह से आत्मकथात्मक या कहें संस्मरणात्मक उपन्यास हैं जो लेखक के बाल-मन की उथल-पुथल, आशा-अपेक्षा और जीवन संघर्ष को शिद्धत के साथ पेश करता हैं। यहां- वहां कल्पना का पुट अवश्य हैं क्यों कि सृजनात्मक लेखन केवल घटना या यथार्थ आधारित नहीं होता। कला और कल्पना रचना की बड़ी ताकत होती है। कथा एक बालक द्वारा कही गई है। अपनी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं स्वरूप उपन्यास केवल बाल्यकाल तक ही सीमित हैं। एक प्रकार से यह स्मृति-आधारित रचना हैं। स्मृति लेखक की बड़ी पूंजी होती हैं। जिस रचनाकार के पास स्मृति का कोष नहीं हैं, वह बतौर रचनाधर्मी, दरिद्र हैं। इस द्रष्टि से शिरढोणकरजी बहुत सम्पन्न है। उपन्यास में लेखक ने यह बताने की कोशिश की हैं बिना माँ के बेटे की भरेपूरे संयुक्त परिवार में कैसी दुर्दशा होती हैं। जन्म लेने के कुछ समय बाद ही माँ की मृत्यु हो जाती है और बालक अपने ननिहाल में विविध मानसिकता वाले लोगों के बीच पलता-बढ़ता हैं। इस अवधि में उसे हमेशा यह लगता रहता हैं जैसे वह होकर भी नहीं हैं। उसने जन्म लिया है पर उसके अस्तित्व का संज्ञान नहीं लिया जा रहा हैं। वह उपेक्षित है। दूसरों की मेहरबानियों पर जीने के लिए अभिशप्त हैं और घटित के अलावा वह उन संभावनाओं पर भी विचार करता हैं जो बढ़ती उम्र के साथ साथ घटती हैं। कई लोगों के लिए परिस्थितयाँ समान होती हैं, पर उनके बारे में उनकी प्रतिक्रिया और सरोकार भिन्न होते हैं। यदि २०-२० क्रिकेट मैच के दौरान बारिश शुरू हो जाती हैं तो दर्शक वर्ग चाहता हैं कि पानी बरसना तुरंत बंद हो जाए ताकि वें खेल का आनंद ले सके। पर उसी समय किसान ईश्वर से प्रार्थना कर रहा होता हैं कि बारिश खूब जमकर हो ताकि सूखे के कारण नष्ट हो रही उसकी फ़सल फिर से लहलहा उठे। इस उपन्यास में भी समान परिस्थितियों के बीच बाल नायक की मन:स्थिति और घर के बड़े-बूढ़ों की भिन्न मन:स्थितियों का मार्मिक चित्रण हैं। इससे यह पता चलता है कि हम जिस कसौटी से एक पात्र की मनोदशा को परख सकते हैं, उसी से अन्य पात्रों की मनोदशा का अंदाज हम नहीं लगा सकते। हर कोई अपने हिसाब से चीजों को देख समझ कर परख कर रहा है और उसी अनुरूप अपने स्वयं के लिए स्थितियों का आकलन भी कर रहा है। इस सब वातावरण के कारण बाल नायक आहत हो रहा है। उसे सर्वाधिक पीड़ा तब होती हैं जब वह सभी से तिरस्कृत होता हैं और श्रम और शरीर दोनों से ही उसका शोषण होता है। यहाँ तक कि उसकी स्वयं की नानी उसे अपना दूध पिलाने को तैयार नहीं होती, क्योंकि खुद उसका भी स्तनपान करता बच्चा हैं। बिन माँ के नाती के लिए नानी का यह व्यवहार अचंभित भी करता हैं और उसे विचलित भी करता हैं।
परिवार में अधिकांश लोगों का व्यवहार बाल नायक के प्रति स्नेहिल न होकर उपेक्षा का भी हैं। परन्तु बाल नायक की परनानी जो उसकी नानी की माँ है और जिसे सभी काकी कहते है को इस बालक से स्नेह है, लगाव हैं। यही काकी बालक की देखभाल भी करती है। इस उपन्यास का यह एक महत्वपूर्ण पात्र है, परन्तु यह काकी खुद अपनी ही बेटी की ससुराल में आश्रित होने से उसकी भी अपनी सीमाएं है। परन्तु इन परिस्थितयों में भी यह बूढी काकी बालक को संस्कारित करने का अथक प्रयास करती है। अपने रामजी पर असीम श्रध्दा और भक्ति रखने वाली इस काकी का बालक के मन पर गहरा प्रभाव है। दूर हो कर भी उसे पल-पल काकी के कहे शब्द ही याद आते है जो समय के साथ उसके विचारों को परिष्कृत भी करते हैं।
पौन सदी पूर्व के निम्न मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार की जीवन-शैली, आचार-विचार, सोच और परिवेश को पूरी जीवंतता से प्रस्तुत करने में रचनाकार सफल हुआ हैंI तब के एक ख़ास ब्रांड के दंतमंजन के उपयोग का उल्लेख हो या रांख से दांत साफ़ करने, बीडी बण्डल के तब के प्रचलित ब्रांड का या स्नान कर गीली धोती से शरीर पोछने की बात हो लेखक ने परिवेश को विश्वसनीय बनाया हैंI जो पाठक उस कालखंड से परिचित रहें हैं उन्हें ये ब्यौरें अवश्य ही उनके अतीत में ले जाएंगे और इससे उन्हें एक अलग तरह की सुखानुभूति होगी। तब एक पैसे की भी कीमत थी जब कि आज कोई भी एक रूपये से कम कीमत के किसी सिक्के को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होताी
उपन्यास का बाल नायक बाट जोहता रहता हैं कि उसका पिता उसे एक दिन आकर ले जाएगा और अपने साथ उसे रखेगा पर लम्बे समय तक उसकी इस इच्छा की पूर्ति नहीं होती। उसे कई बार निराश होना पड़ता हैं। पिता के पास जाने की राह देखते बालक की निराशा और दु:ख का चित्रण पाठकों के मन को विचलित कर देता हैं। आरंभ में लगता हैं कि पिता निर्दयी हैं, पर बाद में आगे सारी गुत्थियाँ सुलझती जाती हैं और पता चलता हैं कि पिता समय और परिस्थितयों के दुष्चक्र में उलझा हुआ था। इस अवधि में पिता के दो विवाह और हुए। बीच के अकेलेपन को दूर करने के लिए वह जुए का और बीडी सिगरेट तथा दोस्तों के साथ का सहारा भी लेता हैं। पिता जुए में हमेशा ही हारता हैं। इस संदर्भ में बाल नायक का यह सोचना, “दादा हमेशा हारते हैं। जीवन में भी और जुए में भीI” लेखकीय सामर्थ्य का एक उत्तम उदाहरण हैं। अंग्रजों के राज्य में स्वाधीनता आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश शासन द्वारा की जा रही दमनात्मक कारवाई का संकेत दे कर लेखक ने समकालीनता के प्रति अपने जज्बे को भी रेखांकित किया हैं। उस समय समाज में स्त्रियों को पूजा करने की भी अनुमति नहीं थी इस कारण बाल नायक की स्त्रियों के प्रति उपजी यह व्यथा बता कर और पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति के उल्लेख से लेखक के सामाजिक सरोकारों का पता चलता हैं।
इस उपन्यास में पात्रों की भरमार हैं। हर तरह के पात्र हैं। इर्ष्या करने वाले, लाड़ करने और लड़ाने वाले, रौब जमाने वाले, ईश्वर की आराधना करने वाले, अलग अलग आदतें और स्वभाव वाले। कुछ ब्यौरें तनिक लम्बे हो गए हैं, तो कहीं कहीं हल्का दोहराव भी नजर आता हैं। इन सब के बावजूद उपन्यास में काफ़ी उतार-चढ़ाव हैं, मोड़ हैं, प्रवाह हैं, रोचकता और जिज्ञासा भी हैं। इन सबसे कृति की पठनीयता बनी रहती हैं। इतने पात्रों और प्रसंगों के बावजूद उपन्यास में कहीं भी जोड़ नज़र नहीं आता। कई जगह बालनायक का चिंतन बड़ों का सा लगता हैं, पर उसकी मन: स्थिति के चित्रण के लिए यह नितांत जरुरी प्रतीत होता हैं। हम इसे एक तरह की फेंटेंसी कह सकते हैं, जहाँ एक छोटा पात्र बड़ों की काया में प्रवेश कर अपने मनोजगत को उजागर कर रहा हैं। जादुई यथार्थवाद में कल्पना सत्य के निकट होती हैं, सच्चाई का आभास देती हुई। शिरढोणकरजी द्वारा अपने स्वयं के ही मराठी उपन्यास का किया गया अनुवाद सहज-स्वाभाविक हैं, और पाठकों को मूल सा आस्वाद भी देता हैं। उनके पास एक सहज अर्थगर्भी भाषा हैं। उनका चिंतक हर पृष्ठ पर मौजूद हैं। इस उपन्यास का नायक भले ही बालक हैं पर यह उपन्यास सिर्फ बाल उपन्यास नहीं हैं। यह बड़ों की कहानी और वेदना भी पाठकों के सम्मुख रखता है। सहीं तो यह हैं कि इस उपन्यास में हर पात्र की एक अलग कहानी होने से इसे एक शृंखलाबद्ध कथाओं का संग्रह भी हम कह सकते हैं। इस उपन्यास से गुजरना पाठकों के लिए एक अलग तरह का अनुभव होगा। बाल मनोविज्ञान को रेखांकित करती उत्कृष्ट कृति के लिए शिरढोणकरजी को बधाई एवं शुभकामनाएँ।

सूर्यकान्त नागर
८१ बैराठी कॉलोनी
इंदौर म.प्र. – ४५२०१४

उपन्यासकार : विश्वनाथ शिरढोणकर.

उपन्यासकार : विश्वनाथ शिरढोणकर


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