Monday, May 13राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर आपका स्वागत है... अभी सम्पर्क करें ९८२७३६०३६०

उपन्यास : मै था मैं नहीं था : भाग – १९

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

******************

दुसरे दिन की सुबह एक नया ही उजाला ले कर आई। सुबह साढ़े पांच बजे घडी में अलार्म जोर से बजा। सबसे पहले दादा उठ गए पर हम दोनों की आंखों में नींद समाई हुई थी। मेरे लिए घडी का अलार्म यह कुछ नया सा था। अब आगे क्या होगा इस उत्सकुता के साथ मैं बिस्तरे पर ही लेटा रहा। दादा ने अपने नित्यकर्म से निपटने के बाद हम दोनों को आवाज दी, ‘बाळ-सुरेश,उठोI छ: बज गए जल्दी निपटलो। बिटको की शीशी वहां रखी है। दोनों के लिए पानी की बाल्टियां भी भर कर रखी है। पहले अच्छे से दांत साफ़ कर लो। जीभ अच्छे से साफ़ करना। मैं दोनों के लिए दूध गर्म कर रहा हूं। जल्दी करों।’
सुरेश उठ खडा हुआ। उसने अपनी दरी और चादर अच्छे से घडी कर जगह पर रख दी। मुझे ग्वालियर की याद आयी। काकी के कमरें में तो जूट के बोरे से बनायी दरी दिनभर बिछी ही रहती थी। और नानाजी के कमरें में भी खाट पर वैसे ही दरी दिन भर पड़ी रहती। वहां कोई कुछ भी नहीं कहता। ना उठने के लिए ना बैठने के लिए। आज पहली बार कोई मुझे मेरा नाम लेकर उठा रहा था। दादा मेरे पास आए बोले, ‘बाळ उठो। सुबह हो गयी। रोज उठने के साथ ही अपना बिस्तर ठीक से घडी कर के जगह पर रखना चहिये इससे एक तो घर में फैलाव नहीं रहता और दूसरे दरी और चद्दर गंदे नहीं होते और रात को सोते समय अपने को बिस्तर भी जगह पर और साफ़ सुथरा मिलता है। और एक बात झाड़ू लगाने में भी आसानी होती है।’
ये दादा मुझे क्या समझा रहे थे? ऐसा तो आज तक मुझे किसी ने नहीं कहा था। नयी जगह नए आदमी, कहा मानने में ही भलाई है। मैंने चुपचाप अपनी दरी और चद्दर घडी करके वहीं रखी जहां सुरेश ने अपना बिस्तर रखा था। अब कंडे की राख से दांत साफ़ करने वाला मैं मेरे लिए तो छोटी सी शानदार कांच की शीशी में रखा बिटको का काला दंत मंजन देखना भी एक नया आश्चर्य ही था। बिटको की नयी नवेली शीशी में से काला दंतमंजन ले कर दांत साफ़ करने में मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा था पर मैंने पहले ही तय कर लिया था कि जैसे भी जो जो भी सुरेश करेगा वह मैं भी करुंगा। इससे मैं यहां के तौरतरीके जल्दी ही सीख जाऊंगा और दादा से ज्यादा कुछ भी पूछने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
शौच मुखमार्जन और दांत साफ़ कर मुंह धोने के बाद सुरेश ने नेपकिन से अपना मुंह पोछा और कमरे में एक कोने में रखे लकड़ी के छोटे से देवघर के ढांचे के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गयाI। उसे देख कर दादा बोले, ‘बाळ को भी मुंह पोछने को नेपकिन दो और हां तुम’ वक्रतुंड ‘मुझे सुनाई दे ऐसे जोर से बोल कर कहना इससे बाळ भी’ वक्रतुंड ‘याद कर पाएगा।’
काकी मेरा मुंह अपने नौ गजा धोती के पल्लू से पोंछती थी। नानाजी भी अपनी धोती से ही अपना मुंह पोछते। मतलब यहां मुंह पोछने के लिए अलग से नेपकिन होता है? और नहाने के लिए भी अलग तौलिया? मेरे लिए सब आश्चर्यजनक था। मैं थोड़ी देर यहीं विचार कर रहा था कि इतने में सुरेश ने दादा के चरण स्पर्श किये। दादा बोले, ‘खुश रहोI वक्रतुंड का पाठ हो गया?’
‘हां।’ सुरेश बोला।
‘पर सुनाई नहीं दिया।’ दादा बोले।
‘मैं तो रोज मन ही मन बोलता हूं ना?’
‘पर मैं भी तो तुम्हें रोज जोर से बोलने के लिए कहता हूं ना? जोर से कहने से हमारा उच्चारण शुद्ध होता है और सब जल्दी याद भी हो जाता है पर तुम बिलकुल ध्यान नहीं देते। इसके अलावा अब तुम्हें सब बाळ को भी सिखाने के लिए बोला है ना? एक बार फिर से बड़ी आवाज में जोर से सब उच्चारण करो इससे मुझे समझ में आएगा तुम कुछ भूले तो नहीं हो।’
‘अब मैं दुबारा नहीं कहूंगा मेरा कहना हो गया है।’ सुरेश वहीं अड़ गया।
दादा ने इस पर सुरेश को कुछ भी नहीं कहां पर वें मुझसे बोले, ‘बाळ, भगवान को नमस्कार करों ।’ मुझे काकी की याद आई। वें हमेशा उनके रामजी को साष्टांग दंडवत के लिए और घर के बड़ो के चरण स्पर्श के लिए पीछे पड़ी रहती पर मैंने उन्हें कभी मना नहीं किया था। काकी के साथ ही मुझे नानाजी की भी याद आई। याद आने की तीव्रता इतनी थी कि मुझे रोना आगया और मैं जोर से रोने लगा। सुरेश को लगा कि उसने मुझे ‘वक्रतुंड’ नहीं सिखाया इस लिए मैं रो रहा, हूं और दादा को लगा कि उन्होंने मुझे भगवान को नमस्कार करने को कहा इसलिए मुझे रोना आया।
‘अर..र….र .. रोने को क्या हुआ? दादा बोले। उन्होंने मेरे आंसू अपने हाथ से पोछे और मेरी पीठ सहलाते हुए मुझे भगवान के सामने ले गए।मैं थोडा शांत हुआ। दादा बोले, ‘सुरेश ने नहीं सिखाया तो क्या हुआ मैं तुम्हें सिखाऊंगा पर ऐसे रोना नहीं। पहले मैं जोर से बोलता हूं फिर वह सुनकर तुम बोलना। धीरे-धीरे तुम भी सीख जाओगे। हा शुरू करो ….।’
‘मुझे सब आता है .’मैंने धीरे से कहां।
दादा को मुझसे इस उत्तर की अपेक्षा ही नहीं थी। पंतजी जैसा दादा को भी आश्चर्य का धक्का लगा और उन्हें भी विशवास नहीं हो पा रहा था।वें बोले, ‘अरे व्वा ..अच्छा ही है फिर क्या है शुरू करो।’ मैंने जोर से कहना शुरू किया, ‘वक्रतुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ:! निर्विघनम कुर्मे देवं सर्व कार्येषु सर्वदा ………… !’ मैंने सारे संस्कृत के सुबह कहे जाने वाले श्लोक पूरे जोश के साथ, ‘कराग्रे वसते लक्ष्मी …. ‘ तक जोर से सुना डाले। मेरा उच्चारण स्पष्ट था और विशेष यह कि मैं कहीं भी लडखडाया नहीं था और ना ही मुझसे कोई गलती हुई थी। इसके बाद मैंने इस संसार में सबके भगवान को, और इस घर में मेरे भगवान को झुककर नमस्कार किया। दादा और सुरेश तो मेरी ओर आश्चर्य से देखते रहे। दादाने मेरी पीठ थपथपाई और बोले, ‘शाब्बास! और क्या क्या आता है तुम्हें?’
‘वक्रतुंड, रामरक्षास्त्रोत, मारुतीस्त्रोत, मन के श्लोक, करुणाष्टक.’
‘अरे व्वाI तुम्हें तो बहुत कुछ आता है। किसने सिखाया ये सब? ‘
‘काकी ने। राममंदिर के दालान में रोज शाम को दियाबाती के समय हम सब बच्चें इन सब का पाठ नियम से करते।पहाड़े भी कहते है। उनके साथ मैं भी जोर से कहता और मुझे सब याद हो गया।’ बहुत अच्छे!’ दादा फिर सुरेश से बोले,’ देखो, इसे सब आता है। कितने स्पष्ट उच्चारण से बाळ ने सब कह कर सुनाया। तुम्हें सिर्फ वक्रतुंड ही आता है। वो भी तुम जोर से बोलना टाल देते हो। तुमको कितनी बार समझाया कि जोर से पाठ करने से उच्चारण शुद्ध होता है और सब जल्द याद हो जाता है पर तुम सुनते ही नहीं हो। ‘फिर मुझे बोले,’ अब रोज दिया बाती के समय यहां भी नियम से सब कहना। नागा नहीं करना इससे तुम्हें सब याद रहेगा। सुरेश भी तुम्हारे साथ रोज बोलेगा और रविवार के दिन मुझे भी सब सुनाना। अच्छा अब देर हो रही जल्द से दूध ख़त्म करो। अपने-अपने कप धोकर जगह पर रखना। इसके बाद जल्द से नहां धोकर तैयार होना। आज तुम्हारा स्कूल का पहला दिन है।ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे।’ दादा के मुंह से मेरे लिए मेरे सामने पहली बार आशीर्वचन निकले। आज यहाँ काकी को होना था। वें होती तो उन्हें कितना आनंद होता इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। मेरे चेहरे पर विजयी भाव मुद्रा थी। गर्व क्या होता है इसका एहसास जीवन में मुझे पहली बार हो रहा था। पर दादा ने मुझे शाबासकी दी यह सुरेश को अच्छा नहीं लगा।मुझसे वह थोडा नाराज सा हुआ। उसे लगा होगा शायद अब उसके एकछत्र राज को हरदम कोई चुनौती देगा। हर बार उसकी तुलना मेरे साथ की जाएगी और हर बार कोई चुनौती देने वाला उसके सामने खड़ा रहेगा। यह स्वाभाविक भी है। किसी को भी झुंझलाहट हो सकती है पर इसमें मेरी क्या गलती? और फिर बहुत सी ऐसी बातें हो सकती है बल्कि निश्चित ही होंगी जो सुरेश को आती होंगी और मुझे नहीं आती होंगी? मुझे वें भी सब सीखनी होंगी। देखेंगे और सीख भी लेंगे।
हमारा दूध पीना होने के बाद दादा ने सब कमरों में झाड़ू लगाईI रात के बर्तन सब वैसे ही पड़े थे दादा ने वें सब मांज कर धोकर रखे। उसके बाद नहाकर पूजा करने बैठ गए। पूजा निपटा कर वें माला लेकर बहुत देर तक गायत्री मंत्र का जाप करते रहे। यहां भी माला और यहां भी जाप? पर यहां रामजी का अस्तित्व शायद कम सा लगा। दादा का सब निपटने तक हम दोनों का भी नहाना हो चुका था उसके बाद हम सब तैयार हो गए। सुरेश ने अपने स्कूल की तैयारी की। साढ़े नौ के लगभग हम सब बाहर थे। दादा ने ताला लगाया और चाभी नीचे रह रहे खेर नाम के किरायेदार के यहां दे दी। फिर हम तीनों पिछवाड़े की गली से गोपाल मंदिर होते हुए सराफा के पीछे रतन मारवाड़ी भोजनालय में पहुचे। इस भोजनालय में पहुचने के बाद ही मेरी समझ में आया कि हम सब यहां खाना-खाने आये है। मेरे लिए तो ये भी एक नया ही अनुभव। सुबह दूध से लेकर दांत साफ़ करने, नहाने, नेपकिन, तौलिया, और अब यह भोजनालय। खाने की क्या बात करे मैं तो आजतक किसी हॉटेल में गया ही नहीं था और घर हो या बाहर कभी चाय तक नहीं पी थीI
हम तीनों खाना खाने बैठ गए। हमारे सामने सजी, परोसी हुई थाली रखी थी। क्या हो रहा है यह सब मेरी कल्पना शक्ति के बाहर ही का था।चारों और सब तरफ आनंद ही आनंद ! परमानंद ही था मानो। मैं को तो कुछ सोच ही नही पा रहा था। मनमाफिक स्वादिष्ट इच्छा भोजन की मानों दावत ही थी। खाना खाते हुए दादा सुरेश को बोले,’ खाना खाकर मैं सीधे बैंक जाऊंगा। तुम दोनों आराम से भोजन करों। उसके बाद सीधे घर जाना। स्कूल का समय होने पर ग्यारह बजे स्कूल जाना। बाळ को भी स्कूल में साथ ले जाना और वहां उसे तीसरी कक्षा में बिठाना।ठीक से सम्हाल कर जाना दोनों।’
खाना खाने के बाद दादा सीधे बैंक चले गए।

महाकाल मंदिर के बहुत बड़े से आंगन में, आंगन क्या बहुत बड़ा अहाता ही कहिये, के चारों ओर पुराने बरामदे से बने थ। प्रवेशद्वार के वहां के बरामदे में थी महाकाल प्राथमिक मराठी विद्याल। सुरेश इसी विद्यालय में पांचवी कक्षा में पढता था। मेरा नाम भी इसी स्कूल में दादा ने लिखवा दिया था। रतन मारवाड़ी भोजनालय से खाना खाकर हम दोनों घर आए। सुरेश ने किरायेदार खेर के यहां से चाबी ले कर दरवाजा खोला। थोड़ी देर बाद हम दोनों स्कूल के लिए निकले। सुरेश के पास बस्ता था पर मेरे पास कुछ भी नहीं था। घर के सामने ही विद्यालय था।सुरेश ने तीसरी कक्षा के मास्टरजी से मेरी पहचान करवाई और मुझे कक्षा में छोड़ कर वह अपनी कक्षा में चला गया। मास्टर जी का नाम था रानडे। रानडे मास्टरजी का दाया पैर घुटने के नीचे एक दुर्घटना के बाद इलाज के दौरान काटना पड़ा था। उन्होंने घुटने के नीचे लकड़ी का पैर लगवा लिया था। लकड़ी का पांव होने के कारण उसमें वजन था और इसलिए उन्हें चलने में और विशेष कर अपना दाया पांव उठाने में बहुत तकलीफ होती। पर इस हालात में भी वों स्कूल में पैदल ही आते। इतना ही नहीं पानदरीबा मोहल्लेसे अपने घर से आते हुए उन्हें कुछ सीढियां भी चढ़नी पड़ती। अपनी दिव्यांगता के कारण रानाडे मास्टरजी को निश्चित ही झुंझलाहट होती होगी, मन:स्ताप भी होता होगा पर नाना जी सरीखा वें अपना गुस्सा कभी भी बच्चों पर नहीं निकालते थे। वें किसी भी बच्चें को डांटते नहीं थे। यहीं उनकी ख्याति थी। ग्वालियर में लक्ष्मण मास्टरजी जैसी रानडे मास्टर जी को बीडी तम्बाखू की गन्दी आदत भी नहीं थी इसलिए यहां पाठशाला की दीवारे साफ़ दिखाई देती और जनकगंज प्राथमिक विद्यालय के लक्ष्मण मास्टर जी जैसी रानाडे मास्टर जी के हाथ में मैंने छड़ी भी नहीं देखी। बच्चों को पढ़ाते हुए वें अनेक प्रेरक और उद्बोधक ऐसी प्रभावशाली कहानियां बड़े अच्छे से सुनाते। हर सीख के लिए उनके पास एक कहानी तैयार रहती। इन सब बातों के कारण वें बच्चों के प्रिय थे और बच्चें उनकों बहुत चाहते। उनकी कक्षा में बच्चें शांत ही रहते। कुल मिलाकर उनके पढ़ाने का तरीका बहुत ही अच्छा था।
किताबे नहीं, कापी नहीं, स्लेट और बत्ती भी नहीं, बस्ता भी नहीं। मैं तो खाली हाथ ही आया था और यह रानडे मास्टरजी को अच्छा नहीं लगा।पहले दिन ही उन्होंने कक्षा में मुझे सबसे पीछे बिठाल दिया। पाठशाला छूटने के बाद हम दोनों घर आये। सुरेश ने किरायेदार खेर चाची के यहां से चाबी ली और दरवाजा खोल कर हम अन्दर आए। मुझे भूख लगी थी। पर मैं तो इस घर में नया था, मुझे कुछ मालूम भी नहीं था और सुरेश को कहने में मुझे संकोच हो रहा था। सुरेश को भी भूख लगी ही थी और उसे घर में कहां क्या रखा है यह मालूम भी था। ढूंढने से घर में थोड़े चने परमल सेव मिल गए। हम दोनों ने वही खाए।पेट नहीं भरा, नहीं समाधान भी नहीं हुआ पर क्षुधा थोड़ी शांत हुई। फिर क्या था थोडा ठंडा पानी पीकर ही समाधान मान लिया। शाम को नीचे आंगन में सुरेश के सब मित्र इकट्ठे हुए। हम खूब देर तक खेलते रहे। दियाबाती के समय खेर चाची ने सुरेश को अपने घर बुला लिया। हम चाची के घर गए। चाची ने दियाबाती की। वें ऊपर जाकर हमारे घर में भी दियाबाती कर के आई। खेर चाची का लड़का हरी मेरे ही कक्षा में था। आज ही पहचान हुई थी।
‘ये तुम्हारा छोटा भाई है ना? बोलता नहीं है क्या?’ चाची ने सुरेश से पूछा।
‘अभी कल ही आया है ना इसलिए थोडा संकोच करता है। नया है ना? ‘ सुरेश के इतना कहने पर सब हंस पड़ेI शाम को दादा के आने का इन्तजार सुरेश खेर चाची के यहां बैठकर ही किया करता। आज मैं भी उसके साथ चाची के यहां बैठकर दादा का इन्तजार कर रहा था। मुझे ग्वालियर की याद आई। वहां कोई किसी का इन्तजार नहीं करता। जरुरत भी नहीं थी। शाम हुई नहीं कि राम मंदिर के बरामदे में बच्चों की धमाचौकड़ी और खूब मस्ती और सब श्लोक। यहां दियाबाती हो गई फिर भी किसी ने रामरक्षास्तोत्र ,और शुभंकरोति, नहीं कहा। सब खामोश से थे। दादा का इन्तजार करते करते हम दोनों को भूख सताने लगी। रात आठ बजे के बाद दादा आये।आते ही हम लोग पैदल पैदल ही फिर रतन मारवाड़ी भोजनालय पहुचे। वहां समयपर पहुचे इस लिए भोजन कर पाए। सब थक से गए थे इस लिए घर आते ही जल्द ही सब सो गए।
दूसरा दिन भी कुछ अलग लेकर नहीं आया। वहीँ दिनचर्या।दादा और सुरेश अपने अपने काम में व्यस्त होने से मुझसे ज्यादा बोले ही नहीं थे। सब कुछ नया होने से मुझे भी कुछ कहने में या मांगने में संकोच हो रहा था पर आज पाठशाला जाते वक्त बस्ता नहीं था, कोई किताब कोई कापी, स्लेट या बत्ती तक नहीं थी। दादा तो बैंक में निकल गए। किससे कहता ये प्रश्न वैसे ही रहा। सच तो यह है किसी से जरुरत के लिए कुछ मांगना इसकी अभी ठीक से समझ ही नहीं थी। जरुरत कैसे निर्माण होती है ? जरुरत क्या होती हैं ? वें कैसे बढती है? वें कैसे पूरी की जाती है? कैसे अधूरी रहती है? उनमें कितना स्वार्थ रहता है? कितना परमार्थ रहता है ? किसी किसी भी बात की समझ नहीं थी मुझे। पसंद नापसंद के बारे में मुझे समझने लगा था पर मांगने से इच्छा पूर्ति की शाश्वती नहीं थी और इसका पूरा अनुभव भी नहीं था। इन सब बातों पर गंभीरता से विचार करने की उम्र भी नहीं थी। पर काकी ने मेरे हाथ बांध कर रखे थे। काकी ने मुझे उज्जैन में सम्हल कर रहने और दादा को कोई भी तकलीफ न देने अर्थात उनसे कुछ भी नहीं मांगने, कोई भी जिद न करने की समझाईश दे रखी थी। मुझे काकी की याद सताने लगी। उनकी सीख मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी फिर क्या था आज फिर मैं खाली हाथ ही पाठशाला गया।
रानडे मास्टरजी की बड़ी बारीक नजर नए बच्चों की ओर रहती थी। कक्षा में पहुचते ही उन्होंने मुझे खडा किया और पूछा, ‘बस्ता नाही लाये?’ मैं क्या जवाब देता ? खामोश ही रहा।
‘अरे, किताब नही, कापी नहीं, पाटीपेम भी नहीं। फिर पढ़ाई कैसे करोगे ? यह तीसरी की कक्षा है अब तो पढ़ाई ज्यादा करनी पड़ेगी।’ मेरे पास रानडे मास्टरजी के किसी भी सवाल का जवाब नहीं था। क्या करता खामोश ही खड़ा रहा।
अब रानडे मास्टरजी मेरे बगल में आकर खड़े हो गए ‘ अरे ,मैं तुमसे क्या पूछ रहा हूँ? पढ़ाई कैसे करोगे? तीसरी की कक्षा में तीस तक पहाड़े, जोड़ बाकी, गुणा भाग और अक्षर ज्ञान सहित किताब भी पढना आना चाहिए। ‘ फिर अचानक मास्टरजी को मालूम नहीं क्या सूझी उन्होंने मुझसे पूछा, ‘पहाड़े आते है ?’
अब गर्दन हिलाने की बारी मेरी थी।
‘कहाँ तक आते है ? ‘
‘ तीस तक।’ मैंने कहां।
अब आश्चर्यचकित होने की बारी मास्टरजी की थी। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि अभी तो पढ़ाई शुरू ही हुई थी इस वर्ष की। उन्होंने पूछा,’ सच में आते है?’
‘ हां।’ अब पहली बार मुझे रानडे मास्टरजी के सामने बोलने की हिम्मत हुई।
‘तो फिर उनत्तीस का पहाड़ा सुनाओ।’
रानडे मास्टरजी ने तो जैसे मेरे ऊपर आक्रमण ही कर दिया पर तुरंत मैंने अपने आप को सम्हाला। मुझे काकी की याद आई। राममंदिर के बरामदे में रोज शाम को मैं नियम के साथ पहाड़े और संस्कृत के स्त्रोत का पाठ करू इसलिए वो अपनी ओर से ध्यान देती और पूरे समय बरामदे में कपास की बाती ओटते बैठी रहती। उनका यह क्रम नानी के गुजर जाने तक जारी रहा। काकी की मेरे लिए चिंता करना और मुझसे सब कंठस्थ करवाना शायद आज मेरे ही उपयोग में आने वाला था। रानडे मास्टरजी की आज्ञा अनुसार मैंने उन्हें उनत्तीस का पहाडा एक ही श्वास में बोल कर सुना दिया। मैं कही भी अटका नहीं था। रानडे मास्टरजी को बड़ा धक्का सा लगा। उन्हें आश्चर्य भी हुआ. मुझसे उन्हें ये उम्मीद नहीं थी। अब वे मेरे प्रति और कठोर हो गए। मुझसे उन्होंने पूरी बाराखड़ी सुनी। एक लड़के से किताब ले कर मुझसे पूरा पन्ना पढवाया। धीरे-धीरे ही सही मैंने उन्हें वो सही उच्चारण सहित पढ़ कर सुनाया। अब रानडे मास्टरजी के चेहरे पर धीरे-धीरे आनंद दिखाई देने लगा। उनके चेहरे की चमक बढ़ने लगी। उनके पूछने का ढंग भी बदल गया।
‘और क्या क्या आता है तुम्हें बेटे ?’
‘पौवा, सव्वैया, ड्योढ़ा भी आता है और रामरक्षास्तोत्र, मारुती स्त्रोत, मन के श्लोक, करुणाष्टके, शुभंकरोति कल्याणं …. भी मुझे याद है। ‘उन्होंने मुझसे कुछ मन के श्लोक सुने और खुद का समाधान कर लिया। उन्हें खूब ख़ुशी हुई। मेरी उम्र के किसी लड़के से ज्यादा मैं बुद्धिमान हूं ऐसी उनकी समझ हो गयी हो शायद। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई,’ शाब्बास ! बहुत अच्छे। खुप होशियार हो और तेज भी हो। धन्य है तुम्हारी माँ जिसने तुम्हें अच्छे संस्कार दिए ..अच्छी शिक्षा दी। मेरे आशीष सदैव तुम्हारे साथ है। खूब बड़े हो। बुद्धिमान हो। पर कल बस्ता जरुर लाना।’
रानडे मास्टरजी यहीं नहीं रुके उन्होंने तुरंत मुझे पूरी कक्षा का मानिटर बना दिया। किसी को भेज कर सुरेश को कक्षा में बुलवाया बोले, ‘कल तुम्हारे पिताजी को मुझसे मिलने के लिए बुला लाना।’ सुरेश ने कोई उत्तर नहीं दिया।
‘अरे , मैं क्या पूछ रहा हूँ ? ‘
‘दादा बैंक में जाते है। सुबह जल्दी जाते हैं और शाम को देर से आते है।’
‘ फिर तुम अपनी माँ को बुला लाओं कल।’ रानडे मास्टरजी बोले।
रानडे मास्टर की इस बात का सुरेश ने तो कोई उत्तर नहीं दिया पर खेर चाची का लड़का हरी तुरंत खड़ा हो गया,’ गुरूजी माँ नहीं है दोनों की। बहुत साल हो गए भगवान के घर गयी।’
अब रानडे मास्टर जी को फिर एक आश्चर्य का धक्का मिला। कुछ पल उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आया कि वें क्या बोले। फिर वें सुरेश को बोले,’ तुम्हारे दादा को बोलना कि इसे बस्ता और तीसरी कक्षा की किताबे वगैरे लेकर आए।’ पर उसी रात को जब दादा घर आये तो, मेरे लिए बस्ता, तीसरी की किताबें, कापी, स्लेट और बत्ती वगैरे ले कर ही आये थे। हम दोनों खेर चाची के यहां उनका इन्तजार कर रहे थे। मैंने देखा दादा के हाथ में नया बस्ता और किताबे वगैरे है। आते ही उन्होंने मेरे हाथ में सब दिया और बोले, ‘ दो दिन से फुर्सत ही नहीं मिल रही थी इसलिए मन में होने के बावजूद भी नहीं ला पाया था किताबे वगैरे। तुम्हारे मास्टरजी ने कुछ कहां तो नहीं तुम्हें?’
‘अरे चाचा क्या बोलते गुरूजी? कुछ भी नहीं बोले गुरूजीI ‘ हरी बीच में ही बोल पडा , ‘और चाचा गुरूजी ने बहुत तारीफ़ ही की है बाळ की। और बताऊं इसे तो चौथी कक्षा का भी सब आता है इसलिए गुरूजी ने आज ही इसे हमारी कक्षा का मॉनीटर भी बना दिया। ‘हरी में गजब का उत्साह था।
‘क्या बिना कापी किताबों के ?’ दादा को भी बहुत आश्चर्य हुआ। पहले सुबह सब स्त्रोत वगैरे वें मुझसे सुन चुके थे और इसीसे से वें अचंभित हो चुके थे और अब ये स्कूल की घटना। फिर सुरेश ने उन्हें सब विस्तार से बताया। मैं पूरे समय खामोश ही था। मुझे तो इसी बात का ताज्जुब हो रहा था कि मुझे सब याद है इसमें इतना आश्चर्यजनक क्या है? पर दादा बहुत खुश थे। उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले,’ शाब्बास!’ अब जरुर मुझे ख़ुशी हुई।
मुझे काकी की एक बार फिर याद आई उनके शब्द याद आये, ‘दादा अकेले रहते है। उन्हें कोई तकलीफ नहीं देना। उनके सामने किसी भी चीज के लिए जिद नहीं करना।’
पर बिना प्रयास के, कुछ भी न मांगते हुए और कोई भी जिद न करते हुए, दादा की ओर से कुछ मिला था मुझे मेरी जिन्दगी में। शायद यह पहला ही अवसर हो। खून का रिश्ता ऐसा ही होता है क्या जिसमे बच्चों को क्या चाहिए ये माँ बाप को अच्छी तरह से मालूम हो जाता है। खून के रिश्तों की भावनाएं, उसकी अच्छाईयां, उनका प्रभाव, उनका आकर्षण और रिश्तों के गुण, इन सब की एक साथ ही मेरी नए से पहचान हो गई। उस रात रतन मारवाड़ी भोजनालय में खाना खाते समय दादा ने सब के लिए श्रीखंड भी मंगवाया। मुझे बहुत अच्छा लगा यह पदार्थ और अच्छा लगा सब का मेरी तारीफ करना।
उस रात सपने में मुझे काकी दिखाई दी और दिखाई दिए काकी के रामजी। काकी भी कमाल की है उन्होंने तो सपने में भी मुझसे उनके रामजी को साष्टांग दंडवत करने को कहांI मैंने काकी के रामजी को साष्टांग दंडवत किया, और हां अपने मन से काकी के भी चरण स्पर्श किये। सपने में काकी को मैं उज्जैन की सब बातें बताता रहा। सब सुनाने के बाद काकी बोली, ‘खून के रिश्तों की मिठास अलग ही होती है।’ मुझे कुछ समझ में नही आया पर जाते-जाते काकी के कहे बोल दिन भर मेरे कान में गूंज रहे थे,’ तुम्हारे दादा अकेले हैI उन्हें बिल्कुल तकलीफ नहीं देना उनके सामने कोई जिद नहीं करना।’

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २० में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के बाद हमे हमारे नंबर ९८२७३ ६०३६० पर सूचित अवश्य करें … और अपनी कविताएं, लेख पढ़ें अपने चलभाष पर या गूगल पर www.hindirakshak.com खोजें…🙏🏻

आपको यह रचना अच्छी लगे तो साझा जरुर कीजिये और पढते रहे hindirakshak.com हिंदी रक्षक मंच से जुड़ने व कविताएं, कहानियां, लेख, आदि अपने चलभाष पर प्राप्त करने हेतु हिंदी रक्षक मंच की इस लिंक को खोलें और लाइक करें 👉🏻हिंदी रक्षक मंच👈🏻 हिंदी रक्षक मंच की इस लिंक को खोलें और लाइक करें … हिंदी रक्षक मंच का सदस्य बनने हेतु अपने चलभाष पर पहले हमारा चलभाष क्रमांक ९८२७३ ६०३६० सुरक्षित कर लें फिर उस पर अपना नाम और कृपया मुझे जोड़ें लिखकर हमें भेजें…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *