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बहन की डायरी

दीपक्रांति पांडेय
(रीवा मध्य प्रदेश)

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कैसे हो भैया ! मैं तुम्हारी छोटी सी, मोटी सी और शरारती बहन क्रांति, पहचानते हो ना मुझे? मैं वही क्रांति हूं जो आज से १४ वर्ष पूर्व तुम से लड़ती, झगड़ाती थी, तुम्हारे मजबूत कंधों में झूलती थी। आह! कितना मनोरम दृश्य था वह एक कंधे में मैं, दूसरे कंधे में कुंदन और तुम बीच में लोहे के मजबूत झूले की तरह तुम! हम दोनों को गोल मटोल घूमाते थे।
क्यों भैया तुम्हें थकान नहीं लगती थी….???
वह बचपन के समस्त आनंद तुम्हारे जाते ही खत्म हो गए, जीवन जैसे निरीह हो गया, घर अब घर नहीं लगता, वहां रहने की इच्छा नहीं पड़ती, घर सिर्फ एक रैन बसेरा हो गया है जहां सब कुछ पल के लिए आते हैं और चले जाते हैं। पता है अब घर में पिता जी, शुभम और कुंदन के अलावा कोई नहीं रहता। वह तीनों भी मजबूरी में रहते हैं उनका भी मन नहीं लगता होगा, लगे भी कैसे वहाँ अब मन लगने लायब बचा हीं क्या है।?!
जब मैं गांव जाती हूं तो देखती हूं पिता जी रात-रात को जागकर तुम्हारी और मम्मी की तस्वीर घंटों देखा करते हैं, पता नहीं मन हीं मन क्या बात करते हैं तस्वीरों से, वह भी बहुत से सवाल करते होंगे तुमसे, करते हैं ना? काश !
उनके मन की पीड़ा मैं बांट पाती,!!
उनसे पूछ पाती, उन्हें कुछ सांत्वना दे पाती,!
लेकिन आज भी मेरी वही आदत है, मैं पिताजी के सामने ज्यादा बोलती नहीं।
जानते हो अब दिवाली उतनी धूमधाम से घर में नहीं मनाई जाती और ना ही रंगों का त्योहार जो मैं और तुम होली आने के २ हफ्ते पहले से हीं मनाना शुरु कर देते थे, घर में कोई रहता भी तो नहीं है। भाभी बच्चों के साथ रीवा में हीं रहती हैं, जब से रीवा में घर बना है वो वर्ष में केवल एक दो दिन के लिए हीं आती हैं, आपको तो पता है उन्हें गांव से कभी कोई रुचि नहीं थी, दुनिया बदल गई लेकिन वह! वही की वही हैं उनकी वही अलग-थलग विचारधाराएं ज्यों की त्यों हैं। हां अब बच्चे छुट्टी पाते हीं घर चले जाया करते हैं, उन्हें हम सभी से उतना हीं लगा है जितना तुम्हें था।
पता है? सागर, समीर अब मुझसे भी बड़े हो गए हैं। समीर…? वही राज, जिसको तुम धन्नू बुलाते थे और जिसे तुमने नाचना सिखाया था, कौन सा गाना था वह…? एक बार आजा आजा… सोते हुए भी वह डांस करने लगता था, तुम्हारी आवाज सुनकर, वही तुम्हारा धन्नो आज बड़ा हो गया है, बड़ी-बड़ी बातें करता है, बहुत समझदार हैं दोनों, तुम्हें पता है? सागर बिल्कुल तुम्हारे चेहरे को गया हैं, ईश्वर उसे बुरी नजरों से बचाए, वही चेहरा वही आंखें वही नाक… मम्मी तो उसी में तुम्हें तलाशा करतीं थीं..खैर अब तो सब कुछ बदल गया है.. सब मतलब सब कुछ…. यह दुनिया भी….
इन १४ वर्षों में पहली बार मन कर रहा है, तुमसे मन की समस्त परतें खोल दूं, ठीक उसी प्रकार जैसे बचपन में दिन भर की समस्त बातें तुम्हारे चारों तरफ भ्रमण करके बोला करती थी। जब तुम कहीं चले जाते थे तो तुम्हारा इंतज़ार किया करती थी, अब तो वह इंतज़ार भी नहीं रहा!!
तुम्हारे जाने के बाद शायद हीं कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिससे मैंने अपने जीवन से जुडी समस्त बातें कहीं हों, पता है भैया इच्छा हीं नहीं होती और सच कहूं तो अब डर भी लगता है। पता नहीं सामने वाला व्यक्ति कैसा हो वह मेरी बातों को प्राथमिकता दे ना दे !! सबसे अहम बात तो यह है इन १४ वर्षों में मैंने दुनिया का अध्ययन अत्यंत निकटता से किया एक-दो को छोड़कर सभी स्वार्थी हैं, पहले अपने स्वार्थ सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं….
भैया आश्चर्य करने की बात नहीं है, यह पूर्ण रूप से सत्य है, यह अब वो दुनियाँ नहीं जिस पर आंख बंद करके विश्वास किया जा सके, हमारी दुनिया से अलग भी एक दुनिया है जहां सिर्फ स्वार्थी व्यक्ति निवास करते हैं… हां भैया यह सत्य है, आश्चर्य ना करो, तुम तो बहुत सीधे थे, हर व्यक्ति को अपनी तरह मानते थे, कोमल और सहज परंतु यहां लोग उसी कोमलता और सरलता का गलत आशा निकालते हैं और समय पर उसका दुरुपयोग करते हैं।
तुम जानते हो? इतने वर्षों में मैं किसी एक को, अपना परम हितैषी और परम मित्र नहीं बना पाई, स्कूल कालेज के इतने वर्ष यूँ हीं व्यतीत हो गए, ऐसा नहीं है कि मित्रता मुझे पसंद नहीं है। स्कूल कालेज और समस्त क्षेत्रों के अगर साधारण रूप से भी आंकड़े लगाऊं तो, लग-भग दो-तीन हजार से अधिक ही सहेलियां हैं, वह भी मेरी परम हितैषी। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो मुझ पर प्राण तजने को तत्पर रहती हैं, सभी से मेरी मित्रता है, सभी को यह अनुभव होता है कि वह मेरी परम मित्र हैं। तुम्हें पता है? सत्य तो उसी भांति है जैसे विराट आकाश में उदित चंद्रमा को देखकर प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि चंद्रमा मेरा है। केवल मेरे आंगन में हीं इसकी शीतलता, उसका प्रकाश व्याप्त है। लेकिन वास्तविकता तो कुछ और हीं होती है।
कुछ ऐसा हीं मेरे साथ भी है, मेरे सभी अपने हैं, लेकिन अपना कोई नहीं..मैं सभी की हूं, लेकिन किसी की नहीं.. ।
ऐसा नहीं है कि मैंने लोगों को आजमाया नहीं या मैंने किसी को मौके नहीं दिए… अगर ऐसा होता तो मुझे कैसे पता चलता कि लोग कैसे हैं उनकी सोच कैसी है, तब तो इन बातों से मैं बेखबर हीं रह जाती…
खैर छोड़ो….याद करने से जख्म और हरे हो जाते हैं।
जब तुम थे तो बात हीं कुछ और थी, कितना आनंद था उन दिनों..
मैं और तुम कितने हीं बार तो घर में हीं चोरी किया करते थे, मैं तुम्हारी गर्दन में सवार होकर मीठा निकालती थी, फिर हम दोनों, जी भर के खाते थे…आनंद की बात तो यह थी कोई हमें कभी पकड़ नहीं पाया, सबको यही प्रतीत होता था, बिल्ली मीठा चट कर गई, परंतु किसे को कहाँ पता था, यह समस्त कारस्तानी मेरी और तुम्हारी हुआ करती थी, यानी कि एक बिल्ला और एक छोटी बिल्ली की..आह!!!
कहां गए वह दिन पता नहीं, तुम्हें पता है भैया तुम्हारे जाने के बाद मेरा बचपन भी तुम्हारे साथ हीं, उन्हीं आग की लपटों में विलीन हो गया जिनमें तुम…..
जो भी मुझे देखता है,चाहे वह लड़का हो या लड़की सभी बोलते हैं, क्या खुशमिज़ाज लड़की है, लेकिन सच तो तुम्हें भी पता हीं होगा.. कुछ गिने-चुने विरले लोग हीं मेरी आंतरिक दशा को भाप पाते हैं, क्या करूं अपने दुख, अपनी व्यथा से लोगों को व्यथित करना मेरा स्वभाव नहीं, अगर किसी को खुशी नहीं दे सकती तो अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा भेंट स्वरूप क्यों प्रदान करूँ।
जब मैं घर में रहती हूं तो वर्तमान समय में भी कुंदन और शुभम को उतना ही हंसाती हूं, उनके साथ ठिठोलीयां करती हूं, उन्हें इतना परेशान करती हूं कि आज भी दोनों अपनी सहायता के लिए पिताजी को आवाज़ लगाते हैं, लेकिन हमेशा की तरह पिता जी आज भी मेरे हीं पक्षधर रहते हैं।
सच कहूं तो यह भी मेरा एक अभिनय हीं हुआ करता है, यह सब करके आपकी यादें और ताज़ा हो जाया करती हैं, यह अभिनय करके शायद मैं कुंदन और शुभम आदि के जीवन में तुम्हारी कमी का कुछ अंश पूर्ण करने में सफल हो जाती हूं, लेकिन सत्य तो यही है ना? कि तुम्हारा, हमें छोड़कर बिना बताए चले जाना हीं ऐसी कमी है, जो कभी पूर्ण नहीं की जा सकती, सभी विकल्प तुच्छ और निरीह जान पड़ते हैं।
तुम्हारा जाना क्या हुआ सब कुछ बदल गया, या यूं कहें कि, सभी के जीवन की पूर्ण दिशा हीं परिवर्तित हो गई, सभी का जीवन जैसे शून्य मालूम पड़ता है, एक-एक करके सभी अपने हमें छोड़ के चले गए, तुम्हें तो पता हीं होगा.. तुम सभी को इतने प्रिय जो थे कि कोई हमारे पास क्यों रहने लगा भला?
क्रमशः सभी तुम्हारे रास्ते होलीए। इन १४ वर्षों में हमारे पास केवल वही लोग हैं जो तुम्हारे बिना जीना सीख गए, लेकिन उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो चाह कर भी तुम्हारे पास नहीं जा सकते।
सबसे अधिक बेचैन तो माँ रहा करतीं थीं, तुम्हारा यूं चले जाना उन्हें असहनीय था, मैं देखा करती थी उनकी तड़प..बहुत नज़दीक से मैंने महसूस भी किया है। हर क्षण वह तुम्हारे जाने के ग़म में ही डूबी रहा करती थीं। खाना, सोना तो दूर, उन्हें रोना भी अच्छा नहीं अच्छा लगता था। बस वह मेरे हाथ पांव देखकर हीं रो लिया करती थीं। उनका ऐसा मानना था कि मेरे हाथ-पांव तुम्हारे हाथ-पाँव जैसे हैं।
तुम्हारे चले जाने के ३ वर्ष बाद हीं तो वह भी तुम्हारे पास हीं चली गईं, पूछना उनसे ! अब तो खुश हैं ना वो? उन्हें अब तो किसी प्रकार की तकलीफ नहीं? तुम्हारे पास जाने के लिए कितने तप, कितने अनुष्ठान, कितने हीं व्रत करती थीं..लोग कहते थे वह पुत्र वियोग में पागल हो गई हैं। तो क्या हम सभी उनके कोई नहीं?
उन्हें याद दिलाना, वह अपनी कोख़ से ९ बच्चों को जन्म दी थीं, लेकिन सत्य तो केवल यही है कि वह सिर्फ तुम्हारी माँ थीं..हम सभी तो….
हाँ और एक बात याद दिलाना उन्हें, क्या आज- भी वह स्नान के उपरांत अपनी साडी़ बिना धुले रख देती हैं? यह मैं इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि वह मेरे हिस्से की है.. आखरी बार मैंने उनकी वो गुलाबी वाली साड़ी धुली थी, उसके बाद…..
उनकी साडी़ कि वह महक आज भी मेरे दिलो-दिमाग़ में है, वह खुशबू दोबारा कहीं नहीं मिली.. यह भी पूछना उनसे, क्या अब उन्हें पिता जी की कोई चिंता नहीं होती? उनसे बताना, अब रोज़ रात को पिता जी के पैर कोई नहीं दबाता, उनके सारे कपड़े भी मैले हीं रह जाते हैं, मैं भी अब घर से बाहर रहती हूं ना…
क्या करूं घर में अब वह रौनक नहीं, तुम्हें तो पता है भैया, मुझसे दिखावा नहीं हो सकता, बनावटी खुशी आखिर कब तक रखूँ? तन्हाई और एकांत हीं मेरे जीवन का एक अंग बन चुके हैं।
तुम हीं तो मुझे समझाते थे, मेरी शैतानियां देखकर, मुझे याद हैं वो शब्द – “एकांत से एकाग्रता आती है, एकाग्रता से चिंतन मनन की क्षमता का विकास होता है, एकाग्रता एवं विचार क्षमता हीं हमें मजबूत बनाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप हम में कुछ भी प्राप्त करने की क्षमता का विकास होता है” अतः आपकी वह बड़ी-बड़ी बातें, वह आदर्श वर्तमान में भी मेरी रक्षा करते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे तुम करते थे…
बचपन से हीं मेरा स्वभाव कम बोलने का, था, हां घर में तो गीदड़ भी शेर होते हैं, वर्तमान में मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी बातों का अनुकरण कर रही हूं।
अब और अधिक क्या बोलूं? फिर तुम झगड़ा करने लग जाओगे…एक-एक करके सभी को तुमने अपनी तरफ शामिल कर लिया नानी, दादी, मामा जी, मौसा जी, नाना जी, दादाजी सभी तुम्हारी टीम में शामिल हो गए। यहां तक कि खुशबू दीदी भी…
वह तो मुझे रोहित दादा से भी ज्यादा मानती थीं, चारों बुआ के लड़के लड़कियों में वही तो मुझे अत्यंत प्रिय थीं, यहां तक कि वह मेरे साथ एक हीं थाली में भोजन करती थीं, वह भी…!!!?
मास्टर बब्बा भी तो, दो ढाई वर्ष पूर्व हीं तुम्हारे पास चलें गए..मुझे याद है जब मैं कॉलेज में प्रवेश ली थी, द्वितीय बर्ष अध्ययन के दौरान हीं पीलिया से ग्रसित हो गई थी, उस वक्त वही रोज सुबह मेरे लिए गाय का दूध पहुंचा जाया करते थे..दादा जी की कमी वह बखूबी पूरी कर रहे थे, खैर…
लेकिन काकी आज भी मुझे उतना हीं स्नेह प्रदान करती हैं, जब मैं घर जाती हूं, उनके यहां जरूर जाती हूं, घंटों उनकी बातें सुनना, कभी दादी के बारे में, कभी मम्मी के बारे में और तरह-तरह की पौराणिक बातें पौराणिक कथाएं वह आज भी सुनाया करती हैं। हां अब वह चंदा खेलना जरूर छोड़ चुकी हैं और तुम्हें पता है भैया,? तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने ताश खेलना लगभग बंद हीं कर दी। हां, आज भी अगर घर में कोई धार्मिक या छोटा मोटा अनुष्ठान होता है तो वह पूर्व की भांति हीं बिना बुलाए, सब से पहले आती हैं और अपने कांपते हाथों से सभी को विभिन्न प्रकार के सुनिश्चित दिशा निर्देश प्रदान करती हैं।
तुम सोच रहे होगे इतने वर्षों के बाद भी मेरा तुमसे झगड़ा करने का स्वभाव नहीं गया आज भी तुमसे लड़ाई हीं कर रही हूं, लेकिन ऐसा नहीं है, अपने जीवन में मैंने लाखों परिवर्तन किए हैं, जैसे – अब छोटी-छोटी बातों में ज़िद नहीं किया करती, गुस्सा मैं बिल्कुल हीं त्याग चुकी हूं, सबसे बड़ी बात तो यह, अब मैं बात-बात में रोना भी छोड़ चुकी हूँ। शायद हीं कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने मुझे कभी रोते देखा हो। मैं तुम्हारे बिना खुश रहना सीख गई हूं और एक आश्चर्यजनक बात बताऊं मैंने कामचोरी भी छोड़ दी है, पूछना (बड़े) भाई से..अब घर में कोई भी कार्यक्रम होता है तो उस में मुख्य और अहम भूमिका मेरी हुआ करती है और अब तो मैं भाई को मशवरा भी देने का कार्य करती हूं…. हां भाई को… पिता जी और दीदी लोगों की तो आप बात हीं छोड़ दो, हंसी आ रही होगी ना तुम्हें?? हंसो मत अब तुम्हारे कंधों में सवार होने वाली छोटी बच्ची नहीं रही मैं, अब तुम्हारी बेवो बड़ी हो गई है। हाँ कुछ चीजें जरूर जीवन का हिस्सा बन गई हैं जैसे की घड़ी, डायरी और पेन यह तीन चीजें आज भी मुझे दुनिया की समस्त वस्तुओं से कहीं अधिक प्रिय हैं।
तुम्हें याद है जब मैं तीसरी कक्षा में थी और मैंने अपनी टूटी-फूटी भाषा में कविता लिखी थी, तुमने पूरे घर वालों के सामने मेरा कितना मज़ाक बनाया था, मैं रोने लगी थी, तब तुम मुझे खुश करने के लिए यही तीनों चीजें लाए थे। गुलाबी कलर का पेन, पीली पट्टे वाली घड़ी और हल्के कथ्थे रंग की डायरी, कितने हीं वर्षों तक मैं उन्हें संजोए थी। समय के साथ उन चीजों की जगह नई चीजों ने ले ली, लेकिन वह उपहार मेरे जीवन के समस्त उपहारों मे से प्रमुख हैं, वह उपहार मेरे जीवन के अंतिम क्षणों तक स्मृति पटल पर विद्यमान रहेंगे।
अब जैसे इन्हीं छोटी छोटी यादों का सहारा है बस….
पता है भैया (बड़े) भाई का प्रेम जो हम लोगों के लिए था, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, समय के साथ और बढ़ गया है उनके ऊपर अनेकों जिम्मेदारियां हैं लेकिन वह अकेले चुपचाप उन्हें निभाते हैं, पहले हर छोटी-छोटी बातों में वह तुम्हें बुलाते थे तुम से सहयोग लेते थे अब चुपचाप बिना किसी से कोई सहयोग की आशा किए लगे रहते हैं, आज भी उनकी वही आदतें हैं जब छुट्टी आते हैं रीवा और गांव एक करके रखते हैं सारी व्यवस्थाएं खुद करते हैं,उसी प्रकार पूरा दिन बिना थके लगे रहते हैं, अब तो उनकी जिम्मेदारियां और बढ़ गए हैं। पहले तुम उनका सहयोग कर कुछ राहत प्रदान कर दिया करते थे अब तो वे बिजली की मशीन की भांति दिन रात एक एक चीज संभाला करते हैं, हां जब मैं रहती हूं तो उनका यह अकेलापन देखकर सहयोग में लगी रहती हूं लेकिन वह खुद अब सहयोग के लिए किसी को आवाज नहीं देते।
तुम्हें याद है, भाई बचपन से हीं मुझे सबसे अधिक प्राथमिकता देते आ रहे हैं, मुझे याद है जब भाई की बारात जा रही थी तो उन्होंने मुझसे बोला था, तुम मेरे साथ मेरी वाली गाड़ी में रहोगी, बात बहुत छोटी सी थी लेकिन उसके पीछे का मतलब..,?
शायद उन्हें, मुझसे, तुम्हारी हीं तरह कोई उम्मीद है, कि मैं कुछ अलग करूंगी, मुझे याद हैं तुम्हारे वो शब्द तुम अक्सर बोला करते थे – “देखना क्रांति आगे क्या क्या करेगी” तुम्हारे वे शब्द हीं तो मुझ में प्राण की भांति प्रवाहित होते रहते हैं, नहीं तुम्हें तो पता हीं है, मैं बचपन से हीं कितनी डरपोक और नाजुक थी, काम से बचने के लाखों बहाने तैयार रखती थी और तब तुम डांटते हुए मुझसे बोला करते थे, इतने नाजुक बने रहना ठीक नहीं,…
मुझे अच्छे से याद है एक बार गाय का नाड़ा छोड़ने के लिए तुमने मुझे बोला और मैं उसमें तीन-चार घंटे जूझती रही, तुम्हें आते देख मैं रोने लगी, तब तुम मुझे डांटते हुए बोले ‘यह आदत बदल डालो, अपने आत्मबल से कुछ करना सीखो’ सच कहूं तो मेरे मन में एक हीं बात आई थी उस दिन, जब तुम मेरी मदद के लिए हो तो मैं मेहनत क्यों करूं, लेकिन तुमने भी कितना अच्छा सबक दिया तुम हीं दूर चले गए…
वह दिन है और आज का दिन, तुम्हारे जाने के बाद मैंने वह सारे काम सीख लिए जो मेरे लिए कठिन थे।
तुम्हारे जाने के बाद मां मुझे बोलने लगी थीं तुम अपने पिताजी के लिए बेटा बनो, आज भी वह जुनून खत्म नहीं हुआ, बस अब यही सोचती हूं मेरे पास खोने के लिए अब कुछ नहीं बचा, अब जल्द से जल्द कुछ प्राप्त करना है बस।
रोज तरह-तरह की घटनाएँ घटित होती हैं, पता है भैया, गांव और परिवार के कुछ व्यक्तियों को मेरी शादी की बहुत चिंता है, उतनी, जितनी की पिता जी और (बड़े) भाई को नहीं होगी..फिक्र से याद आया, तुम्हें भी तो मेरी शादी की बड़ी फिक्र थी, मुझे अच्छे से याद है तुम, (बड़े) भाई और शुभम तीनों में बातें हो रही थीं, (बड़े) भाई बोल – तीन बहनों की शादी मैं कर चुका, अब सिर्फ कीर्ति की शादी मैं करूंगा, उसके उपरांत दो बहनों की शादी राहुल के जिम्मे, तब शुभम बोला मैं सबसे छोटा भाई हूं इसलिए मैं अपनी छोटी बहन कुंदन की शादी करूंग तुम चुप-चाप भाई और शुभम की बातें सुन रहे थे। भाई ने पुन: वही बातें दोहराईं, तब आप का जवाब था – भाई आप ४ बहनों की शादी करेंगें और मैं अकेली एक की वह भी ऐसे की दुनिया देखेगी…
वह समस्त स्वप्न, स्वप्न हीं रह गए, फलीभूत ना हो सके !! खैर छोड़ो..
ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि फिकर सभी को है, लेकिन इन सभी की महानता तो देखो कभी मुझ पर कोई दबाव नहीं बनाते, बस दीदी लोगों से हीं कभी-कभार सुनने में आ जाता है कि सभी को मेरी शादी की फिक्र है, कई सारे रिश्ते भी आए…
सच कहूं तो मैं धन्य मानती हूं खुद को जो मुझे इस परिवार में जन्म प्राप्त हुआ, किसी चीज में कोई रोक-टोक नहीं, जो मैं कर लूं सभी कुछ कम है। दुनिया में ऐसे गिने-चुने हीं परिवार होंगे, जहा लड़कियों को इतनी छूट दी जाती है, मैंने तो यहां तक देखा है, कुछ महान विचारक ऐसे भी हैं समाज में जो लड़कों को जबरन पढाते हैं और लड़कियों को कोई महत्व हीं नहीं प्रदान करते, यहाँ तक की अपने लड़कों को पालने का, बड़ा करने का दिन-रात हक जताते हैं और उनका विवाह भी उनकी मर्जी के खिलाफ़, एक गाय बकरे की तरह बिना इसकी मरज़ी के दहेज की बलि चढ़ा देते हैं। लेकिन मुझे गर्व होता है अपने परिवार पर..
तुम्हें तो पता हीं है, पिताजी का हमेशा से नियम रहा है, बच्चों की परवरिश सिर्फ १८ वर्ष तक करनी चाहिए उसके उपरांत वह अपना अच्छा बुरा खुद सोच सकते हैं। यहां तक कि पुराणों और शास्त्रों में भी कहीं पर यह उल्लेख नहीं मिलता की किसी को उसकी व्यक्तिगत जिंदगी से खेलने का हक है। खैर, यह सभी को समझाया नहीं जा सकता। यह एक प्रचलन है हमारे समाज का, जो पता नहीं कब टूटेगा।
मैं यह बातें केवल इसलिए कह रही हूँ क्यों कि माँ के जाने के बाद यह सारे नियम शायद हम पर भी लागू हो जाते। लेकिन तुम्हें पता है, इन सब के लिए मैं बहुत संघर्ष की, मां के जाने के १ वर्ष उपरांत हीं कीर्ति दीदी का विवाह हुआ और उसके १ वर्ष बाद घर में मेरी शादी की बातें चलने लगीं, लेकिन तुम्हें तो पता हीं है, ना कल और ना हीं वर्तमान में मैं विवाह करने के पक्ष में नहीं थी, घर में एक तुम और दूसरी माँ, हीं,ऐसी थीं जिन्हें मैं सारी बातें बेहिचक बोल दिया करती थी, दोनों के ना रहने के उपरांत मैं तो जैसे गूंगी बन कर रह गई थी, शायद तुम्हें पता है विवाह शब्द हीं मेरे लिए कितना डरावना है बता नहीं सकती।
उस वक्त तो एक हीं व्यक्ति मेरा सहारा थे, डॉ प्रतीक चतुर्वेदी सर उन्होंने हीं मुझे घर में आंदोलन करने के लिए उकसाया था, अगर उस वक्त वह मुझे ना समझाए होते तो आज मेरी दुनिया कुछ और हीं होती, उस आंदोलन में मैं पिता जी, भाई-भाभी समेत सभी बहनों के दिल दुखाने का कारण थी, लेकिन मैं क्या करती, मेरे पास दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं था, अगर सिर्फ मेरी जिंदगी का सवाल होता तो शायद मैं चुप रह जाती, लेकिन मेरे बाद कुंदन की जिंदगी भी उसी चूल्हे चौके में हीं गुजर जाए…यह मेरे बर्दाश्त से बाहर है। वह दौर याद आता है तो दिल दहल उठता है, क्योंकि उस वक्त २ से ३ वर्ष मेरे जीवन के अत्यंत कठिन थे, कोई साथ देने को तैयार नहीं था, यहां तक कि मैं कॉलेज में प्रवेश भी बिना किसी के सहयोग के अपने बलबूते लेने पहुंच गई, प्रवेश लेने के उपरांत पिता जी का हृदय परिवर्तित हुआ और तब जाकर मुझे आजादी प्राप्त हुई।
तुम्हें पता है पिताजी का मैंने बहुत अधिक दिल दुखाथा, इतने कटु शब्दों का प्रयोग अपने जीवन में मैने शायद हीं कभी किया हो जो उस वक्त उन्हें बोली थी। पता नहीं क्यों मेरे अंदर पढ़ाई का जैसे भूत सवार था ऐसा लगता था मेरी जिंदगी हीं खत्म हो जाएगी अगर मेरा अध्ययन रोक दिया गया।
सबसे मजे की बात तो तब हुई जब २६ जनवरी २०१४ को स्कूल में मुझे प्राचार्य और गाँव के समस्त बरिष्ठ व्यक्तियों व्दारा, “रानी लक्ष्मीबाई” पुरस्कार मिला, उस वक्त मुझे खुशी से कहीं अधिक दुख और डर था, मानो प्राण गर्दन में अटक गए थे…. डर था अगर पिता जी को पता चला कि मैं प्रतिदिन रीवा साइकल से जाती हूं तो मुझे बहुत डांट पड़ेगी, पहले तो पिता जी को विश्वास नहीं हुआ कि मैं रीवा साईकल से जाती हूं, लेकिन जब उन्हें पता चला तो उनके अंदर अजीब सा परिवर्तन देखने को मिला उन्होंने मुझे डांटने की वजह और मेरा सहयोग करने का जैसे दृढ़ निश्चय कर लिया था। मुझ पर पिता जी का इतना विश्वास देखकर मैंने मन हीं मन दृढ़ निश्चय किया कि अब कुछ भी हो जाए घर में कभी झूठ नहीं बोलूंगी और ना हीं घर वालों को कभी शिकायत का मौका दूंगी। शायद यही वजह रही कि मैं चाहे जहां भी रहूं घर का कोई भी सदस्य कभी कोई प्रश्न नहीं करता ईश्वर करे मैं सदैव उनका यह भरोसा कायम रख सकूँ।

यह समस्त चीजें मुझे प्रेरित करती रहीं, जिसके बल स्वरूप मैं आज भी अनवरत रूप से अध्ययन कर रही हूँ,
तुम्हें पता है पिछले ४ वर्षों से मैं घर से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता लिए बिना हीं, अपनी पढ़ाई नियमित रूप से कर रही हूं, शुरू, शुरू में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, कई बार (बड़े) भाई के ऊपर अत्यधिक क्रोध भी आता था यह सोचकर कि वह अगर चाहें तो मेरी मदद कर सकते हैं..लेकिन जब मैं रीवा से बाहर आई और मैंने देखा कि यहां कितने हीं ऐसे बच्चे हैं जिन्हें घर से भरपूर सहयोग प्राप्त होता है परंतु कुछ लोग उनका नाजायज़ फायदा उठाते हैं और प्रगति के नाम पर शून्य की स्थिति में हैं। तब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा सहयोग ना करके भी (बड़े) भाई ने मुझे कितना बड़ा सहयोग प्रदान किया है।
तुम्हें तो पता हीं होगा वह मेरी कितनी फिक्र करते हैं, उनका यह फैसला भी मेरे भविष्य हित में हीं रहा, ऐसा नहीं है कि वह मेरा बिल्कुल सहयोग नहीं करते, जब भी आवश्यकता होती है एक शब्द बोलती हूं और वह मुझे पैसे भेज देते हैं, लेकिन उधार के तौर पर, कुछ समय बाद मुझे वह पैसे वापस करने पड़ते हैं। मैं कुछ समझ नहीं पाती थी कि आखिर यह सब वो क्यों कर रहे हैं ? आखिर वे चाहते क्या हैं ? मेरी मदद करना चाहते हैं या नहीं? आखिरकार मैं हिम्मत करके यह सवाल उनसे कर बैठी तब वो मुझे उत्तर स्वरुप सिर्फ एक हीं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बोले “अगर लव कुश का पालन पोषण, सीता यह बताकर करतीं कि, तुम एक बनवासी नहीं अपितु सम्राट के पुत्र हो, तो शायद हीं वह इतने वीर योद्धा बन पाते, ठीक उसी प्रकार तुम भी यह ना भूलो कि तुम एक कृषक की पुत्री हो” बस उनके यह शब्द मेरे समस्त प्रकार के प्रश्नों के लिए पर्याप्त थे।
तुम्हें पता है अभी कुछ दिनों पूर्व मुझे चोट लग गई थी और उस वक्त (बड़े) भाई की बेचैनी जो मेरे प्रति थी बह तुम्हें बता नहीं सकती…बड़ी दीदी के पास फोन लगा कर बहुत रोए, यहां तक बोले दिए थे की वह सही सलामत घर लौट आए तब कहूं। उनके शब्द कितनी पीड़ा कितनी वेदना से ग्रसित थे! मेरे पास भी आजकल हर दूसरे दिन भाई का फोन आया जाता है उनके प्रत्येक शब्द में चिंता परिलक्षित हुआ करती है, एक दिन उन्हें समझाते हुए मैं बोली भाई मैं ऐसे हीं नहीं इस दुनिया से नहीं जाने वाली। मृत्यु से मेरा नाता चोली दामन का है, आपको तो पता है जब मैं ६ महीने की थी तभी से मृत्यु मुझसे मात खाती आई है, सब मुझे दफनाने की तैयारी कर लिए थे तब भी मैं उसे मत दे कर लौट आई थी यह तो कुछ नहीं। मैं मृत्यु को तब तक चकमा दूंगी जब तक अपने समस्त अधूरे कार्य पूर्ण नहीं कर लेती। मेरी यह तब सुन कर भाई के चेहरे पर मुस्कान आई थी। शायद तब उनकी चिंता कुछ हद तक कम हुई थी। पता नहीं इन सभी के प्रेम और बलिदान का ऋण मैं कब उतार पाऊंगी? कहीं मैं हार तो नहीं मान जाऊंगी? नहीं मैं हार नहीं मान सकती, मैं पूरी कोशिश करूंगी की इन सभी के त्याग, बलिदान और तपस्या को व्यर्थ न जाने दू।।।
मुझसे जुड़े हर व्यक्ति बोलते हैं कि तुमने यह किया, तुमने वह किया, तुम बहुत आगे तक जाओगीे लेकिन सच कहूं तो मुझे संतुष्टि नहीं है, यही कारण है कि मैं आज तक कोई साक्षात्कार नहीं दी और ना हीं इच्छा रखती, लेकिन आज अपने आप को रोक नहीं पाई, इसलिए आज तुम्हें परेशान करने चली आई।
तुम्हें पता भी है भैया? यह ७ मई एक काली रात की तरह लगती है, हर वर्ष यह दिन आता है और सभी को पुनः झकझोर के चला जाता है घर का कोई भी सदस्य इसे भूल नहीं पाया है भूले भी तो कैसे, समय के साथ, सभी के दिलों में यह काला साया छप गए हैं, वह शाम !! वह क्रंदन कैसे भूल सकता और वह पीड़ा जो घर में उमड़ी थी, अग्नि कि वह लपटे मानो हम सभी के हृदयों में आज भी ज्यों की त्यों प्रज्वलित हो रही है।
तुम तो घर के पास वाले खेतों में विशालकाय बाग लगा के चले गए थे उस बाग की एक एक चीजें संजोने में उन्हें इस्तेमाल करने में सभी कितने व्यथित थे, उसका अंदाजा भी तुम नहीं लगा सकते। मुझे अच्छे से याद है बुआ के साथ उस बगीचे की प्याज की खुदाई करते समय भाई, पिता जी, मां घर के अन्य सभी सदस्य कितना रोए थे… तुम्हारे लगाए गए प्रत्येक पेड़ सभी ने आंसुओं से खींचे थे।
इतनी प्याज, इतनी सब्जी थी कि पूरा घर भरा हुआ था। जब तक उस प्याज का एक भी बीज घर में था मां के आंसू दिन-रात झरने के समान बहा करते थे, काश तुम समझ पाते भैया सभी के दिलों में कितनी पीड़ा, कितनी तड़प है, मैं तो आज तुमसे बात करके कुछ मन हल्का कर रही हूं, लेकिन कभी सोचना वह सभी घर के अन्य लोग कैसे होंगे कितने दुखी होंगे।
खैर छोड़ो अगर तुम किसी के बारे में सोचते हीं तो असमय हम सभी को अपार दुख के सागर में डुबोकर नहीं जाते ….!!!
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम फिर से हमारे बीच बस कुछ समय के लिए हीं सही वापस आ जाओ …. !!?!!
क्या सोच रहे हो कुछ तो बोलो,….? नहीं दुनिया मुझे पागल कहेगी।
याद रखना अगर मैं रूठ गई तो तुम मुझे मना नहीं पाओगे कोई तो जवाब दो भैया…..!!!!

तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में
तुम्हारी छोटी बहन
क्रांति….!!

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परिचय :- दीपक्रांति पांडेय
निवासी : रीवा मध्य प्रदेश


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