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Tag: छत्र छाजेड़ “फक्कड़”

क्या तब.. क्या अब.. ?
कविता

क्या तब.. क्या अब.. ?

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मन सोच रहा है कैसे खोल दूँ लब एक अरसे से मूक रहे जो खुलेंगे किस लिए अब…… लबों पर चिन्हित है गहरी मुस्कान मगर जग क्या जाने क्यों सीये थे सुर्ख़ लबों को तब…… आज तलक पनपता रहा आक्रोश गहरी पर्त्तों में रिसता रहा पर्त दर पर्त पीता रहा बूँद बूँद भुलाकर मन की चाहते सब….. पर दबा ही तो रहा,ख़त्म हुआ कहाँ वह आक्रोश मन में सहता रहा,दूसरों की ख़ुशी के लिए होते रहे छेद जिगर में मूक मन उफ़ भी करी कब….. अब होना है अंत यही जब क्या कह दूँ मन की सब जानते हुये भी कि चाहते पूरी नहीं हुई क्या तब….क्या अब…? परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन, अब तक पंद्रह पुस्तकों का प्रकाशन, पांच ...
अनुभव
कविता

अनुभव

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** कहा गया है चलती का नाम है जिंदगी इंसान चलता है ता-उम्र पर... क्या सब को मिलती है मंजिल.... इंसान चलता है कदम दर कदम पर... मंज़िल दूर रहती है खिसकती रहती है राहें सिसकती रहती है डगर न जाने कितने चाहे-अनचाहे आते हैं उतार-चढाव जिंदगी की दुर्गम राहों में..... कहीं उपस्थित है उन्नत श्रृंग शिखर सी विकट समस्यायें कहीं उछल रहे हैं दंश मारने को आतुर फुँफकारते विपदा नाग कभी रजनी का स्याह तमस कभी आंनद ओतप्रोत उर्जावान दीप्त दिवाकर कहीं खुशियों के लहराते सागर..... समेटे है अपने आप में ये सर्पीली राहें पग पग कटींली राहें कभी मिलते हैं सुरभित उपवन तो कहीं उगे हैं सरल,गरल, तरल सलिल सींचित कैक्टस मिश्रित अहसास लिए साथ साथ दौड़ती राहें मगर... मंजिल से पहले बहुत कुछ समझाती है ये...
मुँडेर-मुँडेर बिखरी ख़ुशियाँ
कविता

मुँडेर-मुँडेर बिखरी ख़ुशियाँ

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मुँडेर-मुँडेर बिखरी ख़ुशियाँ टिमटिमाये दीप क़तारों में मन प्रफुल्लित हुआ है आनंदित लक्ष्मी के आकार प्रकारों में झिलमिलाये दीपशिखा की लौ प्रीत जुड़ी प्रीत के तारों से रजनीगंधा सुमन सौरभ ले मुस्काये मधुर बहारों से महक उठे घर आँगन सारे ऋंगार, मिष्ठान, उपहारों से छिप-छिप चिहुंकै नव युगल बजे सरगम गुम सितारों से मन से मन कब मिलते हैं यहाँ स्वार्थ के स्वार्थी अभिसारों से भुल सभी गिले शिकवे पुराने गले मिलो अब निज प्यारों से जीवन दीप जले कोटि कोटि दिवाली मने दूर विकारों से ऋद्धि-सिद्धि बढ़े हो शुभ सब का वरदान मिले ईश अवतारों से परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन, अब तक पंद्रह पु...
ये कहानियाँ
कविता

ये कहानियाँ

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** कुछ हैरानियाँ कुछ परेशानियाँ वक्त से मिले आघातों की निशानियाँ जीवन से जुड़ी अतीत की अनगिन कहानियाँ मैं चाहता हूँ उन्हें भुलाना मगर कदम कदम अनेकों तथाकथित शुभचिंतक तैयार रहते हैं स्मरण कराने को फिर से वो कहानियाँ..... इतिहास भरा है छोटे बड़े भांति भांति के जख्मों से मैं तो भुलाना चाहता हूँ मगर वो अपने कहाँ चाहते हैं कि ...मैं भूल जाऊँ जिन्होंने दिये ये घाव बना कर कहानियाँ... और वो चाहेंगे भी क्यों क्योंकि कितना सुख मिलता है उन्हें इन घावों से उठती टीस से कितना मजा मिलता होगा मेरे दिल में व्याप्त कसक से सुना कर वो कहानियाँ.... वे अपने आत्मिक सुख के फेर में सहला सहला कर सूखते घावों को मुस्कुरा मुस्कुरा कर कुरेदते रहतें हैं सहानुभूति के शाल नीचे वे निशानियाँ सुना सुना ...
मैं और मेरा “मैं”
कविता

मैं और मेरा “मैं”

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मैं और सामने अडिग खड़ी सुदृढ़ लाल किले की सी तनी प्राचीर मेरी "मैं" की बैठे हैं इस पर अनेकों उल्लू भांति भांति के रूप धरे क्रोध... मान... माया... लोभ... विकसित हैं गहरे काम तंतु सोने पे सुहागा पालती है इन सब को शक्तिमान ये "मैं".... अनचाहे इन उल्लूओं की जमी है गिद्ध दृष्टि मेरी इस " मैं " पर उलझ कर भ्रमित करती हवाओं से मन उड़ने लगता है पवन वेग से चढ कर लिप्सा के हवाई घोड़े पर बढती जाती है असीमित कामनाएँ उद्वेग उठता महत्वाकांक्षाओं का मन गिरने लगता है वासना के अंधकूप में और सच्चाई घुल बह गई नयनों के काजल में अच्छाई दब गई दर्प की झीनी चादर में मति भ्रष्ट हो गई विषय विकार के दलदल में गुम गया मन भौतिकता की चकाचौंध में फिर हो गया लौटना नामुमकिन वापस मन का कल्याण कहाँ पथभ्...
प्रारब्ध, पुरूषार्थ, भाग्य
कविता

प्रारब्ध, पुरूषार्थ, भाग्य

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मन ने मन से पूछा कौन पैदा होता है अपने साथ कामयाबी ले कर प्रत्युत्तर भी दिया मन ने सही है ... कोई पैदा नहीं होता मगर ... पैदा होता है वो अपने जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ कर्मों का प्रारब्ध लेकर ... मन ने फिर कहा क्यों उलझाते हो शब्दों के मकड़जाल में अनेकों को देखा है शून्य है परिश्रम के नाम पर मगर ... पाते हैं ... सुख-सुविधा अपरंपार अकूत धन भंडार तब ... मन ने समझाया अपने ही मन को यही कहलाता है पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का खेल कहा जाता है प्रारब्ध ... मन अशांत व्याप्त थी जटिल कुंठा घूम रहे अनेकों प्रश्न फिर मनु क्यों करे पुरूषार्थ तुरंत उत्तर आया आवश्यक है पुरूषार्थ अन्यथा क्षीण हो जाता है प्रारब्ध सात्विक हो पुरूषार्थ तो सोने पर सुहागा प्रारब्ध गुणित हो जाता है और यदि...
व्यथा
कविता

व्यथा

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** उनींदी बोझिल पलकें लिए मृगनयनी कुछ कुछ सहमी कुछ डरी डरी सी मन-कपोत आतुर उड़ने को फड़फड़ाते पंख लिए पर आत्मा थी एक पीड़ा से भरी भरी सी संवाद अतुल है अक्षुण्ण है मगर अभाव है शब्दों का अभिव्यक्ति है मरी मरी सी अतिशय कहा नहीं जाता इसी द्वंद्व में जीना है पर कही नहीं जाती है खरी खरी सी क्यूँकि ज़मीर सोया है साहस खोया है मगर सत्य रोया है हिम्मत रह गयी है चुप धरी धरी सी इसी अन्तरद्वंद्व में थाह कहाँ पाये अंतरव्यथा मन की बस पीड़ा मन की है बस झरी झरी सी परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन, अब तक पंद्रह पुस्तकों का प्रकाशन, पांच अनुवाद हिंदी से राजस्थानी में ...
दोहरा मापदंड क्यों…?
कविता

दोहरा मापदंड क्यों…?

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मैं बेटी हूँ सिर्फ इसलिए ही जन्म से पहले कोख में मार दी जाती हूँ कहाँ चली जाती है ममतामयी माँ की ममता क्यों आँखे मूंद लेते हैं सरंक्षक कहलाने वाले पिता क्यों उत्प्रेरक बन सहयोगी बन जाता है समाज कैसी विडम्बना है सब कुछ होता है मर्यादा की ओट में ... खैर ..., ईश्वर कृपा से जन्म ले लेती है धरा पर अधिकांश बेटियाँ पर ... हर कदम दोहरापन थाली बजाई जाता है बेटे के जन्म पर लड्डू बाँटे जाते हैं बेटे के जन्म पर और.... बेटियाँ डूबो दी जाती है मायूसी के समंदर में ... युवा होती बेटियाँ मगर... कहाँ अवसर मिलता पंख फैलाने को इसी धर्म धरा पर पैदा हुई थी मैत्री, गार्गी ... यहीं पूजी जाती है लक्ष्मी, दुर्गा, काली, सरस्वती देश की आँख का नूर रही लक्ष्मी बाई, इंदिरा, सुनिता विलियम मर्दो के कंधे स...
भटकाव
कविता

भटकाव

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** जिंदगी में भटकाव ही भटकाव है भटकाव दर भटकाव मेला लगा है भटकावों का मन का भटकाव... तन का भटकाव... मन चंचल है न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है.... जब मन भटकता है मनु की सोच भटकती है जब चटकती है अतृप्त महत्वाकांक्षाएं जब खटकती है पर-प्रगति लटकती है लालसायें मटकती मन-मरीचिका सोच को उद्विग्न करती है मन डूबता जाता है आकांक्षाओं के समंदर में समंदर में भांति भांति की क्रोध,मा न, माया, लोभ सरूपी मीन सुनहरी आकर्षित करती मछलियाँ मन डोल कर हो जाता है पथच्युत भटकता स्व-निर्मित जाल में.... तन जब भटकता है उद्वेलित कर काम आवेशित कर तृष्णा भटका देता है मन भी भटकती राहें तन लिप्सा की बदल जाते संदर्भ जब भटकते तन-मन कहाँ बच पाता मन भटकाव से कैसे हो पाये मन स्थित प्रज्ञ कैसे लिख पाये व्यथित मन ...
ये कैसी आजादी है
कविता

ये कैसी आजादी है

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** ये कैसी आजादी है भूखा पेट, नंगा बदन मन-घाव सारे मवादी है ये कैसी आजादी है गांधी ने कब सोचा था देश जलेगा पेट की आग में जात-धर्म नाम पर लड़ेंगे क्या यही लिखा था भाग में रहे भूखा या फिर नंगे बदन करने काम जेहादी है ये कैसी आजादी है कलमकार लिखते सच्चाई पर उस से क्या पेट भरेगा जिनके सपनों में सत्ता हो जनता हेतु वो क्या करेगा मुफलिसी से जुझते जन को हालात बनाते फसादी है ये कैसी आजादी है बहुत काम हुआ अमृत काल में सब छिपा कागदों मे, दिखे कहाँ जनता पाती है दस बीस पैसा बाकी जाने जाता है कहाँ बँदर बाँट हो जाती है ऊपर जनता तो फरयादी है ये कैसी आजादी है उद्योग लगे, पुल-बाँध बने फैला सीमेंट कंक्रीट का जंगल अमीर,अमीर और गरीब,गरीब ठेकेदारों का हुआ बस मंगल जड़ें गहराई बस भ्रष्टाचार की बजट की...
भ्रम का दल-दल
कविता

भ्रम का दल-दल

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** भ्रम भ्रम तो भ्रम है मति भ्रम दृष्टि भ्रम दिशा भ्रम भांति भांति के भ्रम नित्य छलते हैं भ्रम कारण-अकारण भ्रमित करते हैं मानव मन..... मन चंचल है बदलती रहती है मन की दशायें कभी गम तो कभी खुशी कभी ईर्ष्या को कभी तुष्टि कभी प्रेम तो कभी नफरत कभी ग्लानि तो कभी लगाव कभी उद्वेग तो कभी उन्माद कभी क्रोधावेश तो कभी कामावेश नाना रकम के प्रपंच जीवन में भ्रमित करते हैं मानव मन...... मन सदा ही रहा है सुविधावादी जब संगम होता है स्वार्थ और सुविधा का मजबूर करता है मन को बदलने को सात्विक राहें और फिर मन चाहे-अनचाहै लगता है दौड़ने आपराधिक मार्ग पर दिग्भ्रमित मन करने लगता है अकरणीय शांत करने को अपने महत्वाकांक्षी अहम् को होने लगता भ्रमित फिर मानव मन..... शोणित प्रबल कंपन संवेदनह...
क्या है कविता
कविता

क्या है कविता

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** मैं नहीं जानता ये पद्य है या फिर गद्य है सावद्य है या फिर निरवद्य है पर इतना जानता हूँ भावों से ओतप्रोत रचना पूर्णतया सद्य है......! व्याकरण मुक्त है मन भाव युक्त है सरस्वती कृपा से संवेदन सशक्त है मन उभरे जो भाव लिख रही कलम उद्विग्नता से कागज पर आवेग भी है... संवेग भी है... शायद श्रेणी इसकी मुक्त छंद है..... चिन्तन है मनन है स्तवन है सम्मोहन है स्पंदन है ज्ञान है... मन विद्वान है निचोड़ है भाव अभिव्यक्ति सच की निरंतर... निर्लिप्त... होती है कविता.... ! सपने सजाती अंतस भाव दर्शाती अवसादी पीड़ा उन्मादी क्रीड़ा सच दिखलाती वाद विवाद की लक्ष्मण रेखा से परे निर्द्वन्द्व निस्पृह मनभावों से झरती है कविता...! ना पूंजीवाद ना साम्यवाद क्यों करें रचना कोई वाद-विवाद बात ...
परछाइयाँ
कविता

परछाइयाँ

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** कब पीछा छोड़ती है परछाइयाँ ये प्रतिबिंब होती है उसके व्यक्तित्व की झलक होती है निजी अस्तित्व की आभास होती है प्रछन्न अनुभूति की प्रबल विश्वास होती है मानसिक संवेदनाओं की... इसकी सघन जकड़न में अलग उन्माद है अजब आक्रोश है भीनी महक है चुलबुल चहक है सहमी सी कुंठा है पाने की उत्कंठा है सही की आशा है गहन जिजीविषा है.... फिर भी परछाई तो परछाई है कभी कभी दिखती है शेष बस अहसास है प्रत्यक्ष है... परोक्ष है... परंतु प्रति पल संग है.... ये तो मीठी मीठी सिहरन है पगलायी सी विरहन है नीलोत्पल की दमक दामिनी आवेश की सरस चाशनी पागलपन भी कैसा कैसा प्रिय-प्रिये मिलन जैसी परछाइयाँ.. पर क्या टूटेगा ये अमर प्रेम स्व से परछाई का वहम ना... कभी नहीं... क्योंकि ये स्व का दर्पण है स्व श्रद्...
क्यों रातें जल्दी ढलती है
कविता

क्यों रातें जल्दी ढलती है

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** सारे दिन अवसाद को ढोया जीवन के अनगिन झमेले रातें ही तो बस अपनी है जहाँ पूरी शांति मिलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है एक आस लिए इंतजार करूँ शशि सम पिय का दीदार करूँ मिलन के क्षण जब आते हैं साँसें बिन बात मचलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है मद छलकाये उजली चाँदनी ज्वार उठे, चुप मन मंदाकिनी भुजपाश बढाये तन ताप देह पिया मेरी जलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है पलकों की छुअन, रजनी रीती कैसे कहूँ, मन पर क्या बीती बातों में वक्त बीत गया लाज लगे, क्या कहती मैं क्यों रातें जल्दी ढलती है जाने कितनी मन भरी पीर बक जाता सब नयन नीर पिया मिले तो धीर धरूँ मैं यूँ ही जान ये निकलती है क्यों रातें जल्दी ढलती है परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य ल...
ये असमंजस क्यों ….?
कविता

ये असमंजस क्यों ….?

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** ये भी चुप वो भी चुप ना विवाद ना संवाद समझें कैसे मन की बात रूठा कौन किसे मनायें समझाये कौन प्रिये फिर मौन ये फैला क्यों...? अनहद नाद मन उन्माद रूठे संवेदन मूक स्पन्दन सपन गढ़े धड़कन बढ़े हूक उठे क़दम रुके झुकी पलक प्रिये फिर सन्नाटा ये पसरा क्यों....? यौवन श्रृंग मन उमंग बिजुरी चमके तन तरंग बिना भंग मन मलंग कैसी जंग रंग में भंग मन मदमाये प्रिये मगर धूप ये चुप क्यों....? कैसी उलफ़त नहीं शरारत ना ही नफ़रत कैसी हिमाक़त ना ही शिकवा कहाँ शिकायत गुज़र गई रात बनी नहीं बात भोर सुहानी हाय प्रिये फिर फ़िज़ा ये ख़ामोश क्यों...? परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन,...
मन कहे.. लो बसंत आ गया
कविता

मन कहे.. लो बसंत आ गया

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** अंगुलियाँ हिलने लगी कलम चलने लगी उतरने लगे फिर प्रणय गीत मन कहे.. लो बसंत आ गया डाल डाल पर नई कौपलें बन जायेगी कल कलियाँ मंडरायेंगे मधुप पीने पराग छल जायेंगे फिर छलिया जब बहे प्रीत का दरिया उर आनंद समा गया मन कहे.. लो बसंत आ गया चले पवन ले पतंग प्रीत डोर से बंधी हुई संग चली छाया अपनी कदम कदम सधी हुई नेह भरे नयन अंजनी अंग अंग यौवन छा गया मन कहे.. लो बसंत आ गया बदन मदनी हुआ उन्मत्त मन आनंद छाने लगा ले नव गीत जीवन संगीत मनपाखी मस्त गाने लगा सातों सुर सजे सात रंग इंद्रधनुष नभ छा गया मन कहे.. लो बसंत आ गया तारे सनद मन मदमत तन पुलकित होने लगा बाँध भुजपाश मीत के साथ अभिसार विचार होने लगा मन पढ़ भाव मीत मन के दिवा स्वप्न में समा गया मन कहे.. लो बसंत आ गया रति उतरे धरा ...
यूँ बन जाती है कविता
कविता

यूँ बन जाती है कविता

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** शब्दों का मीठा टुकड़ा मुस्काता मनभाता मुखड़ा धुँधली यादों में खोया मन रोता रहा जीवन का दुखड़ा जलता रहा अलाव तपता.... यूँ बन जाती है कविता.... मन एक तपिश बढ़ी पवन में कशिश बढ़ी तन कुछ कह न सका मन वह सह न सका बिन धुंवे रहा सुलगता..... यूँ बन जाती है कविता.... घाव मौन सिसकते रहे अरमान यूँ बिखरते रहे कुछ कहे,कुछ अनकहे झरने प्रेम के बहते रहे अंदेशा तूफ़ान का रहा बढ़ता... यूँ बन जाती है कविता.... काग़ज़ की नाव ही सही भाव नफ़रत के ही सही बहाने बनते बिगड़ते रहे पर डोर तो जुड़ी ही रही रंग प्राची नभ रहा चढता..... यूँ ही बन जाती है कविता.... आस अभी मन से छूटी नहीं चल रही सांसे भी टूटी नहीं चिंगारी को ज़रूरत हवा की आग भड़कने से रूकती नहीं पर रूख हवा का रहा पलटता... ऐसे ही बन जाती है कव...
सिंदूरी  सूरज
कविता

सिंदूरी सूरज

छत्र छाजेड़ “फक्कड़” आनंद विहार (दिल्ली) ******************** सुहानी सी ढलती शाम नजरें टिकी थी अस्त होते सूरज पर खोया खोया सा मन कैसे खोजूं चढते भानु की दैदीप्यमान अरूणिमा गरिमा की द्योतक से उभरता मन ललचाता वो लाल रंग कहाँ नजर आ रहा था तमतमाता भास्कर आँखे चुंधियाते चमचमाते दिवाकर का वो सुनहरा रंग बस नजर आ रहा है दिन और दोपहर के रंगों का मिश्रण धुंधला धुंधला सा निस्तेज मगर फीकी फीकी लाली लिए क्षितिज में डूबते सूरज का सिंदूरी रंग बना गया सूरज को सिंदूरी सूरज....! परिचय :- छत्र छाजेड़ “फक्कड़” निवासी : आनंद विहार, दिल्ली विशेष रूचि : व्यंग्य लेखन, हिन्दी व राजस्थानी में पद्य व गद्य दोनों विधा में लेखन, अब तक पंद्रह पुस्तकों का प्रकाशन, पांच अनुवाद हिंदी से राजस्थानी में प्रकाशित, राजस्थान साहित्य अकादमी (राजस्थान सरकार) द्वारा, पत्र...