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लेखक की आत्मा

सुधा गोयल
बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
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पसीने से तर-बतर, लस्त पस्त से यमराज भगवान विष्णु को प्रणाम कर नतमुख खड़े हो गए।
“वत्स यम, आज इतने थके और उदास क्यों लग रहे हो?”
“भगवान, इस सेवक को अब आप सेवामुक्त करें। बहुत दौड़ लिया। अब नहीं दौड़ा जाता”- कहते कहते यमराज का कंठ अवरुद्ध हो गया।
“ऐसी भी क्या बात है यम? जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है तुम अपना काम पूरी निष्ठा और लगन से कर रहे हो। अब क्या हो गया?इतने घबराए और निराश क्यो हो? सेवा समाप्त करने से समस्या का हल नहीं निकल पाएगा।”
पांव पकड़ लिए यमराज ने। “निश्चिंत होकर कहो क्या कष्ट है? संकोच मत करो।”
यमराज ने हिम्मत जुटाई। करबद्ध हो बोले- “भगवन्, आपने मुझे एक वृद्ध लेखक की आत्मा लेने भेजा था।”
“हां हमें याद है। परिवार वाले उससे तंग आ चुके हैं। उम्र भी पिचानवें साल है। बहू बेटे रोज मंदिर में दीपक जलाकर प्रार्थना करते हैं-“प्रभु, अब ससुरजी की आयु के दिन पूरे करिए। पूरा घर कागजों का गोदाम बना दिया है। एक कागज भी इधर से उधर हुआ तो समझो शामत आ गई। घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं। शैतानी करते ही रहते हैं। उन्हें किसी की आवाज नहीं सुहाती। न कोई टीवी चला सकता है न एफ.एम. सुन सकता है। बच्चे गाने लगाकर डांस भी नहीं कर सकते। हमारे घर में इक्कीसवीं सदी में चौदहवीं सदी का आदमी रह रहा है।हम घर का लीविंग स्टैंडर्ड नहीं सुधार सकते।
एक कमरे से इनका काम नहीं चलता। वह तो अच्छा है कि आपने सासूमां को जल्दी अपने पास बुला लिया। प्लीज़ इन्हें भी बुलाइए। टेलीफोन पर कब्जा जमाये रहते हैं। दस लोगों की रोटी का इतना खर्चा नहीं होता जितना टेलीफोन का बिल आता है। कम्प्यूटर तो ले ही लिया है। सारे समय ईमेल भेजते रहते हैं। पूरा घर इनकी चिट्ठियां पोस्ट करते-करते अज़ीज़ आ चुका है। प्रभो, बच्चों को पालें या इनके शौक पूरे करें। अपनी जीवन भर की कमाई अपने ही ऊपर लुटा रहे हैं। कुछ बेटे पोतों को भी मिलनी चाहिए। सभी के मां बाप छोड़कर जातें हैं।
कभी किसी सम्मेलन में जा रहे हैं, कभी किसी सभा सोसायटी में। आजकल सड़कों पर कितनी भीड़ है। कहीं गिर पड़े या हाथ पांव तुड़ा बैठे तो कितनी मुश्किल होगी। प्रभो, अपने यहां बुलाकर अपना लेखा विभाग इन्हें सौंप दें, आराम से संभाल लेंगे।
अतः वत्स हमने अपने भक्तों को स्वप्न में आश्वस्त कर दिया कि यथा शीघ्र तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। और उन्हीं सुखलाल को लेने तुम्हें भेजा था। तुम लाए नहीं।
“भगवन्, जीवन में पहली बार ही ऐसा हुआ है कि मुझे बैरंग लौटना पड़ा है। अच्छे भले आदमी मेरे नाम से थर-थर कांपते हैं। उन्हें लाने में एक पल भी नहीं लगता। लेकिन प्रभो, सुखलाल तो है पर उसकी आत्मा नहीं मिल रही। बहुत ढ़ूढां। प्रकाशकों, सम्पादकों, गोष्ठियों, सभाओं में सब जगह ढूंढा। शरीर तो है पर आत्मा नहीं है। हमें तो केवल आत्मा चाहिए। किसी सेठ की आत्मा तिजोरी में मिलती है, मजदूर की ठेकेदार के पास और ठेकेदार की इंजीनियर के पास। जिसका जैसा पद उसकी आत्मा का वैसा काम। पर प्रभो, इस सुखलाल ने बहुत छकाया है। आप ही बताइए कहां ढूँढू। अभी दिखाई देती है अभी गायब हो जाती है।
उसकी आत्मा उसके द्वारा रचित एक-एक शब्द में बसती है। लोग वाह वाह करते हैं। प्रभु, आपको नहीं लगता कि उसके बहू बेटे ज्यादा निर्दयी हैं। वह आत्मा की आवाज़ के गीत गाता है। किसी से कुछ मांगता नहीं। किसी को कोई कष्ट नहीं देता। वह तो स्वप्न जीवी है।”- सुनकर चकरा गए भगवन्। फिर भी आश्वस्त होने के लिए पूछा- “वत्स तुम वहां वहां गये जहां इसके होने की संभावना थी?”
“हां भगवान, किताबों की अलमारियों, पाण्डुलिपियों के बीच, कम्प्यूटर के पास, साइबर कैफे में, छत पर, मेज पर, पार्क में, नदी किनारे-कोई जगह नहीं छोड़ी।”
“तुम इसकी आत्मा को कुचल देते।”
“कैसे प्रभु?”
“उसकी पांडुलिपियां फाड़ कर।”
“क्या कहते हो प्रभु? शब्द ही ब्रह्म है और मैं ब्रह्म की हत्या कैसे कर सकता था?”
सोच में पड़ गये भगवन्। एक अदने से लेखक ने उन्हें चुनौती दे डाली। यमराज को वापिस आना पड़ा। लेखक ऐसा भी होता है जो देह के अंदर कम और बाहर ज्यादा रहता है। वे प्रत्यक्ष यमराज से बोले-“तुम थके हो वत्स, जाओ आराम करो। हम कोई उपाय सोचते हैं।”
यमराज भगवान को प्रणाम करके चले गए। भगवान ने अपनी प्रिया सरस्वती को समीप बुलाया और प्यार से बोले- “देवि भगवती, आप भी कभी आराम कर लिया करिए। सारा समय अपने भक्तों की सेवा में लगी रहती हैं।”
“भगवन्, आप आदेश दे रहे हैं या सलाह? क्या मेरे किसी भक्त ने आपका अपमान किया है?”
“नहीं देवि, मैं तो बस तुम्हारी व्यस्तता देखकर कहा रहा था। आराम कर लोगी तो पुनः दुगुने उत्साह से काम करोगी।”
“आप ठीक कह रहे हैं प्रभु। मैंने व्यर्थ ही आपकी सलाह पर शक किया। छमा करें। मैं आराम करने जा रही हूं।”
भगवान मुस्कराए और कहा- “तथास्तु”.
तीसरे दिन सुखलाल के दरवाजे पर पोस्टमैन ढ़ेरों डाक लाकर डाल गया। सुखलाल अपनी डाक लेने दरवाजे तक आए और हाथ में लेकर देखने लगे। ये सब उनकी लौटी हुई रचनाएं थीं। इतनी ढेर सी लौटी रचनाओं को देखकर वे शाॅक्ड हो गये। उन्हें उठाया और गिरते पड़ते अपने कमरे तक पहुंचे, उन्हें मेज पर डाल, माथे पर हाथ रखकर बैठ गये।
‘ये कैसा अनर्थ? इस उम्र में इतनी वापसी? क्या हो गया है सम्पादकों और प्रकाशकों को? कहां स्वंय ही फोन करके रचनाएं मंगवाते हैं और अब एक साथ सब वापस।”
थोड़ी देर बाद पोती पानी का गिलास लेकर आई- “दादाजी, पानी पिएंगे?”
उसने सुखलाल को हिलाया डुलाया, लेकिन यह क्या? वे कुर्सी पर बैठे बैठे धड़ाम से गिर गये। लेखक की आत्मा प्रभु के पास पहुंच गयी….

परिचय :– सुधा गोयल
निवासी : बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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