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जब मैं अमीर बना

दीपक अनंत राव “अंशुमान”
केरला
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संकरी मिट्टी की झोपडी में,
जहाँ चारों तरफ़ की दीवारें
हमेशा अपने पसीनों की
ख़ुशबू बिखेरती थीं, वहाँ मैं
एक इंसान-बसा था।
सोने-से रंग में हम
एक-दूसरे को चमकाते भी थे,
और बालों में ग़रीबी की
धूल भी बिखरती थी।
कालिख जमी चिमनी के पास,
नज़रें टिकाकर मैं
कुछ सवालों के जवाब
तलाशा करता था।
बचपन की मासूमियत में,
तब कुछ सवालों के
जवाब मिल भी जाते थे
कुछ को चुपचाप
सह लिया जाता था,
कुछ उत्तर तो तर्क से
क़रीब भी नहीं होते थे।
और कुछ तो ऐसे थे,
जिनका जवाब ढूंढते-ढूंढते
उम्र गुज़र जाती थी।
फिर भी उस कालिख
लगे मिट्टी के दीये
में मैंने जीवन को
जाना, चखा था।
अनुभवों से फटी-
पुरानी चादर जैसी
हमारे सपनों पर
माँ की साड़ी का आँचल
बिछा रहता
सिर्फ़ उम्मीदों पर टिके
मिट्टी के घरों के ऊपर
पिता सी उस सूरज की
देखभाल की परछाइयाँ रहतीं।
मैं, और हम-बस हम!
जैसे किसी धारा में
घुल-मिल जाती हों
खुशियाँ और ग़म।
आधे पेट भूखे
रहने वाले पेटों में भी
बस असीम संतोष ही बसा था।
जन्म और स्रोत
को पहचानकर
यहाँ-वहाँ बहने वाली
नहरों से भरी धरती पर
बिछी चटाइयों में
सपने गहरी नींद
में सोए रहते।
झोपड़ियों का जादू
चमक उठता था।
पर आज,
जब मैं अमीर हूँ,
सीमेंट के ठंडे पेड़ों के बीच
मिट्टी की सुगंध में
धड़कते दिल की ताल
सुनाई नहीं देती!
उसकी जगह अक्सर
बस उदासी ही मिलती है।
किसी ने बचपन में कहा था-
मन की शांति की क़ीमत
सबसे ज़्यादा होती है।
और बदलाव चाहे अनिवार्य भी हो,
उसे अपनाना पड़ता है.
समय की एक असीम धारा है
और आज मैं अमीर भी।

परिचय :- दीपक अनंत राव अंशुमान
निवासी : करेला
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।

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