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नारी के दो मन

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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एक नारी के दो मन की
कहीं व्याख्या नहीं मिलती !!

एक मन जो सब कुछ
चुपचाप सहन करता है,
तो दूसरा विद्रोह करने को आतुर !

एक मन छोड देना
चाहता है सबकुछ,
क्योंकि वो जानता है
सब निरर्थक है,
दूसरा मन लालायित होता है
सब सुविधाएं भोगने हेतु !

एक मन सदैव झुका रहता है,
करुना, ममता और परवाह में,
दूसरा मन निश्चिन्त-मस्तमौला
बन चलना चाहता है !

कभी-कभी ये दोनों
मन शांत हो जाते हैं,
भीतर ही भीतर संवाद करते हैं !

एक मन दूसरे को
मौन साधने को कहता है,
बोलने से बिखराव
का भय दिखाता है,
दूसरा मन मंद मंद ध्वनि में
अपनी व्यथा कहना चाहता है !

वो पूछना चाहता है,
कितनी पीड़ाओं से
और गुजरना होगा,
सब कुछ सम्भालने के लिए??
स्वयं के अस्तित्व को
खो जाने का डर भी
बताना चाहता है !

वह शांति और प्रकृति का
सानिध्य चाहता है,
दूसरा उच्छृखंल बन भौतिक
सुख-सुविधाओं की
चकाचौंध चाहता है !

जब ये दोनों
आमने-सामने आते हैं,
तब नारी को स्वयं ही
निर्णायक की भूमिका
निभानी पड़ती है !

आसान नहीं होता न्याय करना,
हर दिन खुद को जोड़ना
दो मन के बीच पुल
का निर्माण करना !

नारी जानती है यह अंत नहीं,
ठहराव है, परिवर्तन सरल नहीं,
फिर भी वो दृढ़ रहती है !

दोनों मन को मन ही मन सम्भाले,
अपनी यात्रा जारी रखती है,
अनंत से……. अंत तक !!

परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी
जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास्त्र, पी.जी.डिप्लोमा (मानवाधिकार)
निवासी : लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
सम्मान : राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच इंदौर द्वारा “जीवदया अंतर्राष्ट्रीय सम्मान २०२४” से सम्मानित
विशेष : साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने के शौक ने लेखन की प्रेरणा दी और विगत ६-७ वर्षों से अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।

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