अंतिम सत्य
संजय जैन
मुंबई (महाराष्ट्र)
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बहुत दिनों से मेरी
फड़क रही थी आँख।
कोई शुभ संदेश अब
हमें मिलने वाला है।
फिर एकाएक तुम्हें
आज यहाँ पर देखकर।
रह गया अचंभित मैं
तुम्हें सामने पाकर।।
बहुतो को रुलाया है
तुमने जवानी के दिनों में।
कुछ तो अभी भी जिंदा है
तेरे नाम को जपकर।
लटक गये है पैर अब
उनके कब्र में जाने को।
पर फिर भी उम्मीदें रखे है
आज भी दिल में बसाने की।।
यहाँ पर सबको आना है
एक दिन जलने गढ़ने को।
कितने तो पहले ही यहाँ
आकर जल गढ़ चुके है।
तो तुम कैसे बच पाओगी
जीवन के अंतिम सत्य से।
और यहाँ आकर मिलता है
समानता का अधिकार सबको।।
यहाँ पर जलते गड़ते रहते है
सुंदर मानव शरीर के ढाचे।
जिस पर घमंड करते थे
और लोगों को तड़पाते थे।
पर अब जीवन का सत्य
उन्हें समझ आ गया।
इसलिए तो अंत में तुम
आ गई हो अपनों के बीच में।।
परिचय :- बीना (...