पता नहीं क्यों
विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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कार्यक्रमों में लेटलतीफी तो सुधरती नहीं कभी,
आमंत्रितों को समय कम होता, पता नहीं क्यों?
कुछ कवियों को शायद श्रोता रूप कबूल नहीं
अपनी सुनाकर चले जाते लोग, पता नहीं क्यों?
सुंदर संदेश कथन काव्य संपदा भगवत कृपा है
सुनने का रोग नहीं पालते कुछ, पता नही क्यों?
वक़्त वक़्त के वक्ताओं से व्यक्तित्व छाप मिलती
अनावश्यक ज्यादा बोलते कुछ, पता नहीं क्यों?
जुबान में कमान और साथ साथ लगाम है जरूरी
तर्क विहीन तथ्यों पर टिके रहते, पता नहीं क्यों?
बड़े-बड़े वादे संकल्प तो केवल प्रदर्शन रूपी शान
प्रतिबद्धता में अति गरीब रहते हैं, पता नहीं क्यों?
सम्मान कोई खेतों से उगती फसल तो नहीं विजय
पाने और काटने जैसा समझते रहे, पता नहीं क्यों?
सामान्य व्यवहारों की कद्र कर पाना मुमकिन नहीं
कुछ भला भी भुला डालते हैं लोग, पता नहीं क्यों?
कमजो...