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कविता

मेरी आधुनिकता
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मेरी आधुनिकता

डॉ. सुभाष कुमार नौहवार मोदीपुरम, मेरठ (उत्तर प्रदेश) ******************** आज मेरे पास मोबाइल फोन है और रंगीन टीवी भी है। आधुनिक ज़माने को परिभाषित करती एक सुशिक्षित बीवी भी है। ज़रूरी नहीं है आधुनिकता के लिए बंगले और बड़ी कार का होना, दुमंज़िला मकान और एक अच्छी-सी नौकरी भी है। सोफे पर बैठकर बड़ा इतरा के दबाता हूँ रिमोट टी.वी का, और ए.एक्स.एन चैनल की गौरांगनाएँ घेर लेती हैं मुझे। उनके सफेद बालों को देखकर पिता जी के सन जैसे सफेद बाल तैर जाते हैं मेरी आँखों में। धरी रह जाती है मेरी आधुनिकता। कुछ लिपटने के अंदाज में पत्नी कहती है:- जानू, तुम फिर क्यों उदास हो गए? ले आइए ना पिता जी को यहाँ, रख लेंगे किसी वृद्धाश्रम में! तुम्हारी चिंता भी जाती रहेगी और मिल भी लिया करना एक-दो महीने में। मुझसे तुम्हारी ये उदासी देखी नहीं जाती, कम-से-कम अपना नहीं तो मेरा तो खयाल किया करो! और मनान...
मां और सर्दी का मौसम
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मां और सर्दी का मौसम

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** मां और सर्दी का मौसम सर्दी का मौसम मां तुम्हारी बड़ी याद दिलाता है। बचपन की वादियों में ले जाकर, अक्सर घुमा लाता है। छुटपन में जब गठरी बन कर रजाई में तुम्हारे छिपकर हम सो जाते थे, तुम धीरे- से थोड़ा खिसककर, रजाई से हमें अच्छे से ढंककर, अपने थोड़ा बाहर होकर सोती और प्यार से हमें ढंकती थी, वो स्पर्श याद दिला जाता है। चाहे कितनी भी ठंड हो, अंगीठी की सुर्ख आंच पर, हमारे लिए रोज चाव से कुछ न कुछ बनाना और हमें खाते देख निहाल हो जाना, सच कहूं मां तुम्हारे प्यार से पगा वो स्वाद बार-बार याद दिला जाता है। गरम कपड़ों से पूरा लदे होने पर भी तुम्हारी आंखों की वो चिंता कहीं ठंडी न लग जाए। स्कूल निकलने के समय काफ़ी दूर तक हमें जाते देखते खड़े रहना और तुम्हारी आंखों का भर जाना, आज भी याद दिलाता है। ये कमबख्त सर्दी का मौसम तुम्हारे न होने की स...
दिल धड़कता रह गया
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दिल धड़कता रह गया

विवेक रंजन 'विवेक' रीवा (म.प्र.) ******************** यूं अचानक से कोई कुछ पास आकर कह गया, बस उन्हें फिर याद कर ये दिल धड़कता रह गया। जज़्बातों की बात क्या सब ख्वाब जलकर खाक हैं, अरमानों की बुझी राख में शोला भड़कता रह गया। शोर सहता है बहुत मन पर भीड़ में रहता अकेला, अपने तो दिल का मंजर सूनी सड़क सा रह गया। कनखियों से वार कर खामोशियां रुखसत हुईं, मुट्ठियों में उसके बस वह खत फड़कता रह गया। खुशी ओढ़ ली चेहरे पर पत्थरदिल बनकर विवेक वह उन्मन है यही सोच तन मन तड़पता रह गया। परिचय :- विवेक रंजन "विवेक" जन्म -१६ मई १९६३ जबलपुर शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र लेखन - १९७९ से अनवरत.... दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास "गुलमोहर की छाँव" प्रकाशित हुआ है। सम्प्रति - सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं। ...
ठंढी की कहानी
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ठंढी की कहानी

विरेन्द्र कुमार यादव गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) ******************** बेजुबान कढ़ाके ठंढी की कहानी, कई हजारों साल की है ये पुरानी। ठंढी के दिन की शुरुआत जब होये, सभी ढूढे अपने गर्म कपड़े जो खोये। किसान गेहूँ का बीज,खाद सब जोहे, कड़ाके की ठंढ़ में खेत में गेहूँ बोये। नंगे पाँव वह खेत में गेहूँ सिचने जाये, उसे ठंढ़ की चिंता बिल्कुल न सताये। ठंढ जनवरी में इतनी ज्याद बढ़ जाये, सूरज ठंढ में बर्फ का गोला बन जाये। पानी सब लोग पिये गरमाय-गरमाय, ठंढ में खीर-पूड़ी,पकवान सब खाय। गरम समोसा पैक करके घर ले आय, कई गरम जिलेबी दुकान पर ले खाय। कोई स्वैटर व जाकिट पहिन ठिथुराय, कोई उलेन का पैंट-शर्त रहा बनवाय। फिर भी सबको ठंढ रहा बहुत सताय, गर्मकर रहा हाथ कोई लकड़ी जलाय। फिर भी ठंढ नहीं रही किसी की जाय, पीये काफी कोई पीये चाय पर चाय। फिर भी ठंढ रहा सबको बहुत सताय, फिर भी ठंढ रहा सबको बहुत सताय। परिचय ...
जय जवान, जय किसान, जय स्वच्छकार
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जय जवान, जय किसान, जय स्वच्छकार

बुद्धि सागर गौतम नौसढ़, गोरखपुर, (उत्तर प्रदेश) ******************** देश, जवान, किसान की जय, जय स्वच्छकार की करते हैं। आप सभी गौरव भारत के, गर्व आप पर करते हैं। भारत देश हमारा है, बहुत प्यार हम करते हैं। जन्म लिए हम भारत में, जय भारत, भीम की करते हैं। जवान देश के सैनिक हैं, ये देश की रक्षा करते हैैं। गर्मी, ठंडी में दिनों रात, सीमा पर ड्यूटी करते हैं। जय जवान, जय देश के सैनिक, नमन आपको करते हैं। देश में रहते अमन चैन से, याद आपको करते हैं। किसान हमारे शुद्ध रत्न, धूप में तपते रहते हैं। तन, मन, धन, श्रम अर्पित करके, अन्न उगाया करते हैं। अन्न उगाकर कृषक लोग, पेट देश का भरते हैं। जय जवान, जय धरती मां, हम नमन आपको करते हैं। जय जय जय जय स्वच्छकार, स्वच्छ देश को करते हैं। अपनी चिंता किए बगैर, दिन-रात सफाई करते हैं। आत्मसुरक्षा नहीं, उपकरण, स्वच्छकार ना पाते हैं, मेनहोल, सीवर में घुसकर, स्वास ब...
पछतावा
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पछतावा

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** किसी को सता कर जिये तो क्या जिये, किसी को रुला कर जिये तो क्या जिये। करता रहा तुम पर भरोसा अटूट हर पल, उसी को आजमां कर जिये तो क्या जिये। किया जिंदगी की जमा-पूंजी नाम तुम्हारे, उसे घटिया बता कर जिये तो क्या जिये। जिसके अश्रुधार बहे सिर्फ तुम्हारे ही लिए, उसे नजरों से गिरा कर जिये तो क्या जिये। किया जो कुछ, सब तुम्हारी खुशी के लिए, उसी का दिल दुखा कर जिये तो क्या जिये। लहू के रिश्ते जैसा ही रिश्ता था जब उससे रिश्ते में दाग़ लगा कर जिये तो क्या जिये। परिचय :- आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक ...
कौड़ियों में बिकता श्रम किसान का
कविता

कौड़ियों में बिकता श्रम किसान का

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में बिकता, मेरे हस्तांतरित भोजन से, हर एक जीव का पोषण होता, शाक, पात, आहार में फिर क्यों मेरा अर्पित समर्पण नहीं दिखता। क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता! मैं अन्न के हर एक कण को, सींचकर जीवित न सदा रखता, माटी से माटी के पुतलों का फिर कैसे जगत में जीवन अनवरत चलता। क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता! अन्न से है दौड़ता खून नसों में, जीव की देह को जो ऊर्जा से भरता, धरा का प्रथम पुत्र बनकर फिर क्यों फल में लाल रंग मेरा रुधिर नहीं दिखता। क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता! लेह, चौष्य, भक्ष्य हो या भोज्य, हर पदार्थ मेरे उद्यम से ही बनता, साधुओं-सा जीवन जीता फिर क्यों सबमें आहुति-सा तुम्हे नहीं दिखता। क्यों श्रम मेरा, कौड़ियों में ही बिकता! चाहता हूँ, बस अब इतना ही, चाहे अन्नदाता तू मुझे ना कहता, निज स्व...
भूख
कविता

भूख

रुचिता नीमा इंदौर म.प्र. ******************** कभी मन्दिर की सीढ़ियों पर... तो कभी मज्जिद के बाहर... कभी गुरुद्वारे के लंगर में... तो कभी चर्च के गलियारों में... कुछ चेहरे हर जगह नजर आ जाते है जिनके पेट की भूख, उन्हें हर जगह ले आती है... ये वो लोग होते है, जिनका कोई धर्म नही, कोई मज़हब नही होता।। जो उन्हें कुछ दे दे, बस वही इनका भगवान होता है इनके लिये हर धर्म का भी बस 'रोटी' नाम होता है। दुनिया इन्हें भिखारी कहे, या कहे बेचारे लेकिन ये है सब किस्मत के मारे।। मज़हब के लिये लड़ना सिर्फ हम जानते है, जो भूख से तरसते है, वो सबको मानते है।। हम इंसान तो भगवान से भी महान हो गए जब मज़हब के नाम पर लाखों कुर्बान हो गए।। कभी भेद न किया उसने किसी पीर में फकीर में, और हम खींचते चले गए धर्म पर धर्म की लकीरें।। इस दुनिया में भूख का कोई मजहब नही होता और इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नही होता।। परिचय :-  रु...
ज़मी पर लाया उसने
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ज़मी पर लाया उसने

रवि चौहान आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) ******************** ज़मी पर लाया उसने, पकड़ ऊँगली चलना सिखाया उसने! कंधे पर बिठा, सारा जहाँ दिखाया उसने! चलता रहा कांटो भरी राह पर, फुलो की राह पर चलाया उसने! चुभे कांटे पैरो मे जब, रोया मगर आंसू नहीं बहाया उसने! देख दर्द उसका रो न दू मै, अपने दर्द को छुपाए उसने! लड़ता रहा सारे जहाँ से, मेरी खुशियों की खातिर, खुद रो कर भी मुझे हसाया उसने! छोड़ अपने सपनो को, मेरे सपनो को अपनाया उसने! गवा दिया जीवन अपना मेरी खातिर, मेरी कामयाबी में खुद को कामयाब पाया उसने! परिचय :- रवि चौहान निवासी : आजमगढ़ (शेखपूरा) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु ...
बेटे
कविता

बेटे

मनीषा जोशी खोपोली (महाराष्ट्र) ******************** आन, बान और शान हैं बेटे। हिम्मत और अभिमान है बेटे। दादा दादी के हैं प्यारे, मां बापू के राजदुलारे। खुशियों भरी उड़ान हैं बेटे। आन, बान और शान हैं बेटे। कविता दोहे छंद सरीखे, खुशबू और मकरंद सरीखे। फूलों के उद्यान हैं बेटे। आन, बान और शान हैं बेटे। हैं खुशियों के रेले जैसे घर के अंदर मेले जैसे। आशा और अरमान है बेटे। आन, बान और शान हैं बेटे। परिचय : मनीषा जोशी निवासी : खोपोली (महाराष्ट्र) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें h...
उदासी से… परे
कविता

उदासी से… परे

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** चाहे!!! जिंदगी उदास हो.... उदासी भरा दिन, उदासी भरी एक लंबी रात हो... वही जिंदगी की, चक्की पर चलती। दिन और रात के कामों की, हर दिन की तरह वही लिस्ट हो। चाहे!!!जिंदगी उदास हो..... गलियों से गांव... गांव से शहर.... फिर चाहे!!!! शहर से जंगल तक उदास हो। एक धुंध में पसरी हुई, जिंदगी की हर आस उदास हो। सुनना खामोशियों के शोर, और खुद से बात करना। भीड़ का तो..... हर इंसान अकेला है। फिर किस साथ के लिए उदास हो। मिलोगे ना जब तुम खुद से, हर तरफ उदासी दिखेगी। प्यास.... बाहर नहीं। तुझे तेरे भीतर ही मिलेगी। परिचय :- प्रीति शर्मा "असीम" निवासी - सोलन हिमाचल प्रदेश आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, ले...
भैया बोल कर चली गई
कविता, हास्य

भैया बोल कर चली गई

डॉ. सर्वेश व्यास इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************** कविता की प्रेरणा- बात उन दिनों की है, जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था। परीक्षा के दिन चल रहे थे, रात में महत्वपूर्ण प्रश्न मॉडल पेपर बांटे जाते थे। जब लड़कियों को पेपर की जरूरत होती थी, तो वह लड़कों से हंसकर बात करती थी, उन्हें बुलाती थी। लड़के समझते थे, हंसी मतलब........! बेचारे लड़कियों के पेपर के इंतजाम के चक्कर में रात भर जागते थे, पेपर पहुंचाते थे और खुद का पेपर बिगाड़ते थे। लड़कियों को प्रथम लाने में वे नींव का पत्थर बनते थे। यह क्रम आखरी पेपर तक चलता था। परीक्षा पूर्ण होने के पश्चात लड़की उन्हें घर बुलाती, नाश्ता करवाती, चाय पिलवाती और विदाई समारोह स्वरूप (फेयरवेल) अंत में धन्यवाद भैया कह कर विदा कर देती। बेचारा लड़का शब्द-विहीन, अपनी सी सूरत लेकर विदा हो जाता। उसी घटना को स्मरण कर आज यह कविता लिखने की प्रेरणा हुई। अचानक व...
तुम गैरों के संग
कविता

तुम गैरों के संग

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** मेरे सनम मुझसे ही नाराज़ हो गए, थे दिल के पास तुम, दूर दराज हो गए। मोहिनी, कामिनी, रागिनी से लगते थे अब तो तुम्हारे अलग अंदाज हो गए। कभी थे मेरे लिए कुदरत का उपहार अब गैरों के संग ख़ुशमिजाज हो गए। नभ की नीलिमा, चंद्रमा सी लालिमा थी अब तो कर्कश तुम्हारे अल्फाज हो गए। स्वप्न दिखाए खूबसूरत कल के मुझको पल में ही तुम मेरे अश्रु भरे आज हो गए। परिचय :- आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीया। कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल वर्तमान समय में कवि सम्मेलन मंचों व लेखन...
नदी
कविता

नदी

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** मेरी परिभाषा या परिचय की आवश्यकता नहीं मेरी भी भावनाएं हैं, मै महसूस भी करती हूं मगर आज ये सब अस्तित्व विहीन सा लगता है। बिना रुके बिना थके अविरल चलती रहती हूं पर्वतों, कठोर रास्तों से टकराती, दर्द से कराहती नहीं इठलाती बलखाती सागर से मिलती हूं। जीवन का स्त्रोत हूं, जीने का आधार भी हूं, में। किसी धर्म जाति के बंधन से परे हूं कोई सीमा मुझे बांध नहीं सकती, पूरी दुनियां में अलग नाम अलग रूप हैं मेरे, मुझमें सुख दुख की अनुभूति भी है, गहरी चोट खाती, आहत हूं आज, मगर चुप हूं!!!!!! क्यों कि प्रकृति की देन हूं, जो प्रकृति मेरी 'मां"है। मां ने मुझे हिसाब लेना नहीं सिखाया किन्तु आज मैं संकट में हूं। मैं दुखी हूं !! मेरे आंचल में ही इंसान का अस्तित्व सिमटता है, मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन, उसके सपने, सभी ...
कुहासा
कविता

कुहासा

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ******************** क्या कहूँ? मेरी जीवन में तो हमेशा ही छाया रहता है, बेबसी, लाचारी, भूख का कभी न मिटने वाला कुहासा। औरों का तो छंट भी जाता है मौसमी कुहासा, पर मेरा कुहासा तो छँटने का नाम ही नहीं लेता। ऐसा लगता है ये कुहासा भी जैसे जिद किये बैठा है, जो आया है मेरे जन्म के साथ और पूरी निष्ठा से मेरे साथ यारी निभा रहा है, जैसे प्रतीक्षा कर रहा है मेरे अंत के साथ ही छँटने की। परिचय :- सुधीर श्रीवास्तव जन्मतिथि : ०१.०७.१९६९ पिता : स्व.श्री ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव माता : स्व.विमला देवी धर्मपत्नी : अंजू श्रीवास्तव पुत्री : संस्कृति, गरिमा पैतृक निवास : ग्राम-बरसैनियां, मनकापुर, जिला-गोण्डा (उ.प्र.) वर्तमान निवास : शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव जिला-गोण्डा, उ.प्र. शिक्षा : स्नातक, आई.टी.आई.,पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार) साहित्यिक गति...
अन्नदाता किसान
कविता

अन्नदाता किसान

रमेश चौधरी पाली (राजस्थान) ******************** में ऐसे ही नहीं अन्नदाता कहलाया, मैने पसीने की बूंदों से मिट्टी को सीचा है। में ऐसे ही नहीं अन्नदाता कहलाया, मैने स्वयं को भूखा रक कर छत्तीस कौम के वासियों की जठराग्नि को शांत किया है। में ऐसे ही नहीं अन्नदाता कहलाया, मैने ठाकुरों की सितियासी (८७) प्रकार की लाग-बागो को सहन करके मोती रूपी अन्न को उपजाया है। में ऐसे ही नहीं अन्नदाता कहलाया, मैने लौह पिघलती हुई धूप में बंजर भूमि को स्वर्ग बनाया है। में ऐसे ही नहीं अन्नदाता कहलाया, मैने सूरज के जगने से पहले खुद को जगाया है। अपने लिए नहीं अपने देश वासियों के लिए अपने देश वासियों के लिए.....। परिचय :- रमेश चौधरी निवासी : पाली (राजस्थान) शिक्षा : बी.एड, एम.ए (इतिहास) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट...
जीवन के रंग अनोखे
कविता

जीवन के रंग अनोखे

बुद्धि सागर गौतम नौसढ़, गोरखपुर, (उत्तर प्रदेश) ******************** है जीवन के रंग अनोखे, हंसी खुशी से जी लो तुम। प्यार मोहब्बत के रंगों से, जी भर खूब नहा लो तुम। दुख जीवन का काला रंग है, हंसकर इसे हरा दो तुम। खुशियों के रंगों से जीवन, अपना खूब सजा लो तुम। है जीवन के रंग अनोखे, अंबर नीला नीला है। सरसों के फूलों को देखो, सुंदर पीला पीला है। भारत का चौरंगा झंडा, गौरव शान बढ़ाता है। जीवन का हर रंग अनोखा, हमें प्रेम सिखलाता है। जाड़े गर्मी हर मौसम में, हमें लहरते रहना है। सत्य, अहिंसा, प्रेम के पथ पर, आगे बढ़ते रहना है। सरदार भगत सिंह, भीमराव का, भारत गुलशन प्यारा है। संविधान भारत का मेरा, हमें जान से प्यारा है। परिचय :- बुद्धि सागर गौतम जन्म : १० जनवरी १९८८ सम्प्रति : शिक्षक- स्पर्श राजकीय बालिका इंटर कालेज गोरखपुर, लेखक, कवि। निवासी : नौसढ़, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश घोषणा पत्र : मै...
आने की आहट का डर
कविता

आने की आहट का डर

डॉ. सुभाष कुमार नौहवार मोदीपुरम, मेरठ (उत्तर प्रदेश) ******************** जब डॉ. ने गर्भवती महिला को बताया कि आने वाला शिशु एक लड़की है, तब बेटे की चाह रखने वाली माँ का चेहरा उतर गया और वह उदास हो गई। इसका शिशु पर क्या असर पड़ा होगा? सुनिए उसकी व्यथा कथा... हे माँ! मेरे आने की आहट से तू उदास हो गई! क्या हो गया तुझे? तू किन ख्यालों में खो गई? अभी तो एक अनकही कहानी हूँ मैं, तुम दोनों के प्यार की निशानी हूँ मैं । सोचा था कि मैं तुम्हारी तमन्ना की तान हूँ ममता से भरी तुम्हारी लोरी का गान हूँ। पर तुम्हारी उदासी ने मुझे आहत किया है, रूढिवादिता का मेरे दिल पर आघात किया है। मैं तो तुम्हारी माँ बनने की पूर्ण हुई अर्जी हूँ, स्वयं तो कुछ नहीं मैं, ईश्वर की मर्जी हूँ। पर माँ अब ऐसा लगता है कि तेरी कोख भी मेरे लिए पराई है, लोग तो क्या कहेंगे तूने तो खुद ही पूछ लिया मुझसे कि तू इ...
रक्कासा
कविता

रक्कासा

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** सजी है महफ़िल कोठे पर इश्क़ के प्यासे हुस्न के दीवाने जमा हो रहे कोठे पर। भूख से तड़पते दवा के लिए रोते अपने मासूम के लिए माँ नीलाम हो गई कोठे पर। आँसुओं में डूबे घुँघरू बजना करते है शुरू होशमंदो की उलटबाँसी में ममता फँसी है बेबसी में दूध रोटी के सवाल पर रक्कासा नाच रही कोठे पर। बहते आँसुओं को अदा समझ वाह वाही कर रहे नासमझ चिल्ला रहे सिक्के उछाल कर पड़ रहे चांटे गुरबत के गाल पर रक्कासा नाच रही कोठे पर। सितार सिसक रही तबले पर उदासी छा रही हारमोनियम रो रही बिखरे पड़े है फूल मोगरे के कुचले हुए जमीन पर रक्कासा नाच रही कोठे पर। उजाले के पीछे कौंन देखे अंधेरा जरूरतों ने जिंदगी को आ घेरा जिंदगी तेरा हर फैसला कबूल मत रो याद कर के अपनी भूल मैंने जीना सिख लिया है आंसू पीना सिख लिया है चमकते जो किरदार उजाले में वही चेहरे चले आते है स्याह रात में यहाँ...
कुछ पूछना है तुझसे
कविता

कुछ पूछना है तुझसे

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** कुछ पूछना है तुझसे मां, कितने ही कष्ट उठाये हैं, मुझको जो जन्म दिया है, वो दर्द दिल में छुपाये हैं। कुछ पूछना है तुझसे मां, कैसे मुझको दिया सहारा, खुशी भुला डाली अपनी, बस तुझको मैं लगा प्यारा। कुछ पूछना है तुझसे मां, कैसे वे उपकार उतारूंगा, हजारों जन्म ले लेकर के, बस तेरा ऋण उतारूंगा। कुछ पूछना है तुझसे मां, एक बार मुझे दर्शन देना, मुझको तुम यूं छोड़ गई, मुझे भी अपने साथ लेना। कुछ पूछना तुझ से तात, कैसे पालपोष पढ़ाया है, दिनरात एक कर कमाया, वो राज तुमने छुपाया है। कुछ पूछना तुझसे पिता, कितनी देर तुम सोते थे, मेरे कष्टों को देख देख, तुम घुट घुटकर रोते थे। क्यों छोड़ गये मुझे पिता, बस तुझसे यही पूछता है, जैसे बचपन में रूठा था, एक बार वैसे रूठता हूं। कुछ पूछना तुझसे भाई, तुमने भी राह दिखाई है, कभी अपने संग रखा है, कभी भूख मेर...
करते जो खुद पर विश्वास
कविता

करते जो खुद पर विश्वास

सपना दिल्ली ******************** करते जो खुद पर विश्वास रचते वे  ही नया इतिहास... बिना फल की इच्छा करे कर्मों पे हो अटल विश्वास धरती ही नहीं अंबर छू लेने का जिनके मन में  बुलंद अहसास रचते वे ही नया इतिहास... छोड़ उम्मीद दूसरों से रखते खुद पर अटल विश्वास नहीं रुकते किसी के कहने पर डराता नहीं उन्हें कोई उपहास कर अपने पर विश्वास राह में मिलें चाहे फूल चाहे कांटे बिना रुके बिना थके लक्ष्य पथ पर बस आगे ही बढ़ने की बात रचते वे ही नया इतिहास..... देख दूसरों को संकट में सहारा जो उनका बनते भूखा रहकर खुद भूख दूसरों की मिटाते खुद से पहले देश की चिंता बताते मातृ भूमि की रक्षा करने को जो रहते हर दम तत्पर ख़ास रचते वे ही नया इतिहास.... लालच नहीं जिनके मन में कुछ भी झोपडी़ में रहकर भी महल समान सुख का जीवन बीताते कर्मों पर कर विश्वास जो अडिग रहे उनका ही फैला प्रकाश रचते वे ही नया इतिहास...। परिचय :- सप...
वो पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े
कविता

वो पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े

अलका जैन (इंदौर) ******************** वो पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े जिन्हें हम सितोलिया पुकारते उन सात पत्थर की कीमत अनमोल जब मुल्याकं किया बुढ़ापे में आदमी ने वो महफ़िल जो बेमक़सद सजती रही मेरी आपकी हमारी चोखट पे आये दिन जिन महफ़िलो में फजीते रहते थे खाने के जिन महफ़िलो में लिबास को तवज्जो नहीं वो शुद्ध यारी दोस्ती की महफ़िल अनमोल याद आते हैं वो दिन अनमोल यारी दोस्ती यार के एक आवाज पर जान देने की आरजू वो सिगरेट के छोटे छोटे खश खींचना चुपके वो दारु पीने की जुगाड करना चुपके चुपके वो हसीना को बेवजह घूरना फिरके कसना वो बेफिक्री जाने किधर गुम गई जिंदगी से वो पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े सितोलिया जिंदगी तेरा कही ख़तम अब मृत्यु बुला रही है सितोलिया परिचय :- इंदौर निवासी अलका जैन की शिक्षा बी.एससी. है, शायरी के लिए आप गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर हैं और मालवा रत्न अवार्ड से नवाजी गईं हैं, फर...
यक्षप्रश्न गहरे हैं
कविता

यक्षप्रश्न गहरे हैं

डॉ. कामता नाथ सिंह बेवल, रायबरेली ******************** तेरे नैनों की भाषा को अब तक कोई समझ न पाया, डूब गया हूँ जबसे मैंने इनके तट पर पाँव धरे हैं।। मौन मुखर होने को आतुर सौ संसृतियों के उद्भव का, परिलक्षित स्वरूप होता हर एक असम्भव का, सम्भव का; जाने क्या काला जादू है इनमें, जिसे देखकर अबतक जाने कितने चाव अधूरे इनकी पाँखों में ठहरे हैं।। सागर सी गहरी आँखों में आसमान की ललक जगी है, सपनों के मूंँगे-मोती से अपनों की हर पलक पगी है: कितनी मनुहारें इनके तट पर आकर डेरा डाले हैं, अवचेतन मन के फिर भी जाने कितने कठोर पहरे हैं।। पछुआ के झंझावातों ने पीछे कितनी बार धकेला, पुरवाई ने दिये निमंत्रण देखा जितनी बार अकेला; अमराई की छाँह न सोची, दोपहरी का घाम न देखा, प्रेम पियासे पागलपन के देखा यक्षप्रश्न गहरे हैं।। परिचय :- डॉ. कामता नाथ सिंह पिता : स्व. दुर्गा बख़्श सिंह निवासी : बेवल, रायबरेली ...
सुन बापू .. तेरे देश में
कविता

सुन बापू .. तेरे देश में

शिवांकित तिवारी "शिवा" सतना मध्य प्रदेश ******************** सुन बापू .. तेरे देश में, आम आदमी आम नहीं हैं, ईश्वर,अल्लाह, राम नहीं हैं, सत्य,अहिंसा कहीं नहीं है, नियत हमारी सही नहीं है, बेटी हमरी सेफ नहीं है, नेता कहते रेप नहीं है, ठगते है ढोंगी जनता को, बाबाओं के भेष में, सुन बापू .. तेरे देश में, रोज़गार का नाम नहीं है, फसलों का भी दाम नहीं है, करने वाले लाखों है पर, मिलता उनको काम नहीं है, अंग्रेज़ी में बात कर रहे है, हिन्दी का अब ध्यान नहीं है, भाई - भाई करे लड़ाई, अब तो ईर्ष्या द्वेष में, सुन बापू .. तेरे देश में, अपराधी को जेल नहीं है, अपराधों पर नकेल नहीं है, नोचा,खरोंचा और जलाया, बेटी है कोई खेल नहीं है, गांधी जी के तीनों बन्दर, का आपस में मेल नहीं है, ख़ून चूस जनता का नेता, करते है ऐश विदेश में, सुन बापू .. तेरे देश में, जीवन में रफ़्तार नहीं है, अपनों में भी प्यार नहीं है, मरन...
मैं एक पौधा हूं
कविता

मैं एक पौधा हूं

ओमप्रकाश सिंह चंपारण (बिहार) ******************** मैं एक पौधा हूं बेसहारा हूँ खाद उर्वरक की कमी से गुजरा हूँ मरूभूमि की खजूर सा लंबा शरीर वाला मतवाला हूँ ताड़ सा शब्द ब्रह्म का नशा देने वाला हूँ अगर मेरे नशा को पीकर कोई बनता मतवाला हो कल्पना की महानद मे गोता लगाने वाला हो आ जाए मेरे पास मैं वह परम तत्व देने वाला हूँ अप्प दीपो भव का वैराग्य देने वाला हूँ किसी बुद्ध की खोज में बेसहारा हूँ बोधि वृक्ष मैं बन पाऊं ऐसी मेरी कामनाएं है भावनाएं हैं मैं एक पौधा हूं बेसहारा हूँ पूनम की सर्द रात्रि में सत्य देने वाला हूँ शांति सौभाग्य का छाहँ देने वाला हूँ हर दिलो में है दुखों के गागर भरे मैं पी रहा हूं ग़मों के प्याले ने धीरे धीरे शून्य से उतर कर आ रही है सुजाता पुनः अमृत रूपी खीर की थाली लिए धीरे-धीरे परिचय :- ओमप्रकाश सिंह (शिक्षक मध्य विद्यालय रूपहारा) ग्राम - गंगापीपर जिला - पूर्वी चंपारण ...