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दुर्योधन नही सुयोधन

दशरथ रांकावत “शक्ति”
पाली (राजस्थान)

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मैं समय ठहर सा गया युद्ध
जब भीम सुयोधन बीच हुआ,
उस रणभूमि का कण-कण
साक्षी क्या उसका परिणाम हुआ।
अंत समय तक वीर लडा़
सौ बार गिरा फिर खड़ा हुआ,
हो धर्म विजेता या पाप पराजित
पर वीर सुयोधन अमर हुआ।
क्षण मृत्यु का निकट हुआ
माधव को निकट बुलाकर बोला,
संतप्त हृदय से पीड़ा निकली
तत्काल संभलकर यु बोला।
हे गिरिधर एक बात सुनो
मैं नीच नराधम दुर्योधन हूं,
मैं पाप मूर्ति में कली रूप मैं
अधर्म का संचित धन हूं।
मैं विषघट हूं कुलनाशक
मैं अनीति का वृहद वृक्ष हूँ।
भातृशत्रु मैं कुटिल कामी
मैं क्रोध लोभ का प्रबल पक्ष हूं।
है कितने ही अवगुण अपार
मैं महाभारत का हूँ आधार,
मेरे कारण गीता कही मैं
पाप स्वयं सत का आधार।
तुम धर्म स्वयं को कहते हो
सत्य सनातन बनते हो,
पापों का दमन ध्येय तेरा
इस हेतु देह नर धरते हो।
क्या पाप कहो मैंने किया
कब संत साधु को कष्ट दिया,
क्या पर नारी का हरण किया
या निरपराध को नष्ट किया।
क्या मैने गौ ब्राह्मण मारा
या सुख बहनो को दिया नहीं,
प्रेम सहोदर किया नहीं या
मान मात पितु दिया नहीं।
हाँ राज्य लालसा थी मेरी
इसमें क्या गलत कहो माधव,
वैभव की चाह नहीं जिसको
निश्चित है पशु न वो मानव।
अधिकार पिता का था भू पर
सत्ता पर ज्येष्ठ सदा बैठे,
अंधता योग्यता लील गई
परिणाम पाण्डु पद पर बैठे।
उस समय पितामह विदुर द्रोण ने
क्यों राज्य विभाजन सोचा नहीं,
अधिकार पिता का करु वरण तो
अब कहते ये अच्छा नहीं।
मैं ज्येष्ठ पिता का ज्येष्ठ पुत्र
साम्राज्य भोग अधिकारी था,
पाण्डव कैसे भागी होंगे ये
न्याय विदुर का भारी था।
अपना राज्य लिया मैने
छल बल से सही पर युद्ध नहीं,
अनुचित कुछ किया कहो गिरधर
शान्ति सदा है दुर्लभ ही।
खुद धर्मराज ने रखे दांव पर
राज्य भाई और पत्नी को,
चौसर था खेल दांव पर
सत्ता होना ही था होनी को।
इतिहास साक्षी है नष्ट हुए
साम्राज्य युद्ध की राहो में,
मैने कितने जीवन रोके जो
जाते मृत्यु की बाहो में।
पर बुद्धि पाप के वश में थी
कुछ द्वेष हृदय पर भारी था,
अपमान द्रोपदी का करके
निश्चित मैं मृत्यु अधिकारी था।
माधव यू तो क्षण में आते
उस दिन कृष्णा क्यू याद न आयी,
या ये कह दु कि चाहते थे अपना
प्रभुत्व जग को दे दिखाई।
ये सभा उन्हीं पुरखो की थी
उनके कहने पर चलती थे,
वे पुरूष वेश में अबला थे
पांचाली सच ही कहती थी।
हाँ पिता मेरे थे दयावान
दे डाला जो भी हारा था,
अधिकार मेरा छीना फिर से
अपमान तो हुआ हमारा था।
जला दुध का छाछ भी फूके
फिर से क्यू खेल स्वीकार किया,
अब मुझ पे दोष थोपते हो
उस क्षण न क्यू प्रतिकार किया,
बारह वर्षो का वनवास
और वर्ष एक अज्ञात रहे,
उस विराट की रक्षा में
अज्ञात हो ये भी भूल गए।
मैने टाला जब तक था टला
पर पाण्डव मुर्ख है वीर नहीं,
क्या था पर महारथी हुआ
राधेय सरीखा वीर नहीं।
बारह वर्षो में ले धरा जीत
क्या इन्द्रप्रस्थ में अटके थे,
पाँचो भाई लिये पत्नी को
क्यो वन-वन आखिर भटके थे।
धृष्टद्युम्न, शिखण्डी़, अर्जुन
और भीम प्रण सबके हो जाते झूठे,
गोविंद तुम्ही ने गूँथे जाल
युद्ध ठीकरा हम पर फूटे।
में तो केवल था बना निमित्त
पाप अधर्म के मर्दन का,
पाण्डव बने धर्म के वाहक
में अपयश का अर्जक था।
भाई-भाई मैं युद्ध करा तुम
धर्म अधर्म बतलाते हो,
कब तुमने छल माया त्यागी
जग झूठे कहलाते हो।
शिशुपाल जरासन्ध कंस सभी
मारे तुमने क्या नीति से,
तुमने खांडव वन जलवाया
निर्दोष मरे क्या मृत्यु से।
क्या शत्रु ललकार रहा हो
मैं कायर बन बैठा रहु,
सब कुछ छिनने देऊ माधव
मौन रहु और कुछ ना कहुं।
ना गिरिधर क्षत्रिय पुत्र हूँ
मां का दुध न लजाऊंगा,
जब तक सांस रहेगी तन में
गिर कर फिर भीड जाउंगा।
युद्ध मोड जब आ ही गया
रुक जाऊ क्यू की अंधेरा है।
गीता में तुम ही बोले कान्हा
कर्तव्य धर्म बस मेरा है।
है चक्रधारी एक बात कहो
मैं पापी था ज्ञान मुझे,
पाण्डव सत्य राह पर थे
ये सत्य नहीं है भान मुझे।
वो अजेय थे सर्वश्रेष्ठ थे केवल
इसलिए की तुम उधर खड़े थे,
हमने माना तुम देवरूप हो
बड़ा माना तब हुए बड़े थे।
परशुराम के तीन शिष्य
उधर नहीं थे इधर खड़े थे,
तीनो ने माना ईश्वर हो तुम
धर्म उधर तुम जिधर खड़े थे।
तुम छल माया में बड़े पारंगत
तीनो को धर्म बता सके क्या,
सत कोटी जन्म से प्रभु मिले
कर्तव्य राह से डिगा सके क्या।
हाँ मैं दुर्योधन भले अधर्म
तुम मेरी ओर जडे़ थे,
पर ये महामानव क्या धर्म
देखकर मेरी ओर लडे थे ।
बात धर्म की करते हो
एक बात मुझे बतलाओ कान्हा,
हमने छल किया नीति त्यागी
तुम माने बतलाओ कान्हा।
क्या नारी ओट से तीर चलाकर
प्राण पितामह हरे नहीं थे,
अश्वथामा मरा बताकर
द्रोण शीश भु धरे नहीं थे।
दुस्साशन छाती फाडी़ कहो
कार्य बड़ा मानवोचित था,
दानव भी रक्त से खेले नहीं
कहो कृत्य धर्मोचित था।
जयद्रथ उनका भी बहनोई था
क्या बहन कहोगे सौभाग्यवती,
छल से तुम दिन रात किये
खुद भाई बहन को करे सती।
जंघा से नीचे गदा प्रहार
अरे वीर कहु तुम्हें किस मुंह से,
बलदाऊ बोले थे पक्ष मेरे
किया भ्रमित उन्हें तुमने छल से।
यदि पाँचो भाई मिलकर भी
नीति से करे पराजित स्वीकार मुझे,
वे कायर है तुम छलिया हो
ये कहने का अधिकार मुझे।
अरे कृष्ण जानते थे तुम
राधेय ज्येष्ठ हम सब का था,
युद्ध कभी होता ही नहीं वो
मित्र मेरा तन मन का था।
यदि एक बार मुझसे कहते
राधेय तुम्हारा भ्राता है,
सौगंध शंभु की तुच्छ राज्य ये
श्रेष्ठ हमारा नाता है।
मैं निश्चय ही पापी हूँ पर
धर्म हमारी और ही था,
तुम भले छिपाओ गिरधारी
युद्ध का कारण ओर ही था।
तुमने एक परिवार के हक में
जग में युद्ध करा डाला,
कितने ही निर्दोष जनो को
मृत्यु ग्रास बना डाला।
यदि मैं पापी था मुझे मारते
चक्र सुर्दशन किस लिए धरे हो,
बस सौ गाली पर क्रोधित होकर
ज्यो शिशुपाल का शीश हरे हो।
भीष्म द्रोण कृप कर्ण सरीखे
वीर कहाँ कहो और मिलेंगे,
बर्बरीक अभिमन्यु जैसे वो
घटोत्कच और मिलेंगें।
है केशव इस महाभारत का
पूरा जिम्मा आप पर है,
रक्त से रंजित बंजर भु का
पूरा जिम्मा आप पर है।
उत्तर दो है कृष्ण बिहारी क्या
तर्क मेरे सब उचित नहीं,
मेरी इस अंतिम प्रणाम पर
मौन तनिक भी उचित नहीं।
किस ग्रंथ लिखा है पाप-पाप से
छल-छल से जीता जाता है,
कीचड़ को कीचड़ से धोकर
वस्त्र श्वेत हो जाता है।
यदि कुत्सित थे कर्म मेरे
या अनीति की राह चला था,
तुम भी कुछ निर्दोष नहीं थे
तुमने सबको खुब छला था।
यदि अंधकार है घर के भीतर
उसे मिटाते दीप जलाकर,
जो युद्ध हुआ बतलाओ तो
चमक बढी क्या दीप बुझाकर।
अब तक शांत रहै बनवारी
मुस्काये फिर बोले ऐसे,
शांत दुर्योधन मेरी सुनो
बतलाता हूं तुम पापी कैसे।
कुछ ध्यान तुम्हें कितने रिस्तो को
खंड खंड कर चूर किया,
पिता पितामह चाचा ताऊ
गुरु मित्र भाई मजबूर किया।
एक मामा के वचनो पर इतना
क्या विश्वास तुम्हें था,
उसने तो प्रतिशोध अग्नि में
बचपन से झोंका तुम्हें था।
पिता तुम्हारे जन्मान्ध भले
थे कर्मान्ध तुम्ही ने किया उन्हें था,
राज्य समूचा भाग नहीं
अधिकार है तुम्ही ने कहा उन्हें था।
लो सुनो कृत्य अपने सारे
कहने में लाज तो आती है,
तेरे सारे तर्को का उत्तर
खुद अपने आप बताती है।
जहर तुम्ही ने दिया भीम को
लाक्षागृह भी चाल तुम्हारी,
बैर भाई से था पापी पर
कुन्ति तो थी माँ तुम्हारी।
यदि मन में तेरे भातृ भाव का
एक अंकुर भी फूटा होगा,
वो शकुनि ने जड़ समेत
निश्चित ही नष्ट किया होगा।
एक राज्य के दो राजकुमार
तब बंटवार होना निश्चित था,
पिता तुम्हारे योग्य नहीं थे
तब पाण्डु राजा निश्चित थे।
तुम ज्येष्ठ पिता के पुत्र भले हो
ज्येष्ठ पुत्र तुम कभी नहीं थे,
इसलिए युधिष्ठिर योग्य राज्य के
तुम क्रोधी हो योग्य नहीं थे।
पर शकुनि की चालो में तुम
सदा सहायक हुए नहीं क्या,
चौसर में छल के पासो से
छलपूर्ण हुआ वो दांव नहीं क्या।
बारह वर्षो के वन में भी
पग-पग पर कांटे कष्ट दिये,
अज्ञातवास में जानबूझकर
उस विराट पर युद्ध किये।
एक अकेला अर्जुन जब
पुरी सैना पर भारी तब था,
सोचो जब गांडीव चलेगा
ताप बढेगा जल थल का ।
हाँ राम जन्म में मर्यादा को
सबसे श्रैष्ठ कहा था सबको,
रावण इन्द्रजीत पापी थे
रखते थे मर्यादित खुद को।
ना कभी रात्रि में युद्ध हुए थे
हत्या चोरी डाका नही थे,
इस युग में क्या मूल्य बचे
जो बलिवेदी पर चढे नहीं थे।
सात-सात वीरो ने मिलकर
अभिमन्यु को मारा था,
सच पुछो तो सुनो दुर्योधन
तु युद्ध उसी दिन हारा था।
जब पाप अनीति महाबली हो
तब सज्जनता नहीं चलेगी,
शत्रु छली हो शक्तिमान हो
धर्म राह फिर कठिन करेंगी।
भीष्म धर्म के ज्ञाता थे
पर धर्म कर्म में भ्रमित हुए,
जग माया के वचन निभाने
धर्म विरुद्ध बन पतित हुए।
गुरु द्रोण ये कैसे भुल गये
बाह्मण जब धर्म को छोडे़गा,
वेतन मूल्यों से बडा़ नहीं
मृत्यु निज ओर ही मोडेगा।
कर्ण तुम्हारे उपकारो के
तले दबा नहीं जी सकता था,
तेरे कुकृत्य में सहभागी था
बिन छल के नहीं मर सकता था।
और तुम कौरण कुल नष्ट कराए
अपने मद लालच में पडकर,
हाँ धर्म हमेशा ऋणी रहेगा
शान्ति करोगे तुम मरकर।
जो भी हो हे वीर सुयोधन
अद्भुत गाथा तुम्हारी हो,
प्राप्त वीरगति होकर तुम
निश्चित स्वर्ग अधिकारी हो।

परिचय :-दशरथ रांकावत “शक्ति”
निवासी : पाली (राजस्थान)
सम्प्रति : लेखाकार
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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