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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग- २४

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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मेरा सारा ध्यान अंदर की बातचीत पर ही था। अण्णा ने नानाजी की चिट्ठी पढ़ कर एक तरफ रख दी। चिट्ठी सुनकर थोड़ी देर के लिए माहौल गंभीर हो गया था। अण्णा के बाद नानाजी की चिठ्ठी दादा ने भी पढ़ ली और उसके बाद दादा माँजी से बोले, ‘बाळ अभी छोटा है, उसमे भलेबुरे की समझ नहीं है और फिर अभी हाल ही वह आपके पास आया है। एक दूसरे को जानने और समझने में वक्त लगेगा। थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा इसलिए इन बातों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।’ ‘पर बाळ के नानाजी तो बच्चें नहीं है। नासमझ नहीं है? उन्हें तो अच्छे बुरे की समझ है।‘ अब सुशीलाबाई बोली। वें गुस्से में थी। ‘मुझे उन्हें चिट्ठी लिखने का अधिकार ही क्या है? और तो और उन्होंने मुझे पराया भी लिखा। मैं इन बच्चों को पराया समझती हूं क्या?‘ क्या मैं पराई हूं?‘ अब उन्हें रोना आ गया।
अब माँजी भी भडक गयी, ‘इसमें रोने की क्या बात है?‘ फिर वो अण्णा से बोली,‘ देखा अण्णा क्या तमाशा चल रहा है यहां? कौन किसका क्या लगता है यह पता ही नहीं पड़ रहा। आज चौदा वर्ष हो गए तो भी इसका वनवास ख़त्म नहीं हो रहा। दिमाग ख़राब कर के बैठी है यह सुशीला।मीराबाई हो गयी है। मीराबाई दीवानी! इनकी दो गृहस्थियां सजा कर हो गयी। दो बच्चें भी हो गए पर ईश्वर जाने हमारी सीता को राम कब मिलेंगे? बाळ के नानाजी की लिखी चिट्ठी का इतना बुरा मानने का कोई कारण ही नहीं।‘ फिर माँजी सुशीलाबाई से बोली, ‘अरी सुशीला, ये बच्चें उनके सगे नाती है और उन्हें लिखने का अधिकार हैंI पर पहले तू ये बता कि ये बच्चें तेरे कौन लगते है?‘ ‘माँ, तुम बार बार वही बात लेकर बैठ जाती हो।‘ सुशीलाबाई बोली, ‘हम दोनों एक दुसरे से शादी करने वाले है। दोनों का एक दूसरे से प्रेम है ……I’ माँजी ने उन्हें आगे बोलने ही नहीं दिया, ‘फिर ये प्रेम चूल्हें पर रखकर पकाने वाली हो क्या?‘ माँजी का गुस्सा कम नहीं हुआ था। ‘माँ तुम भी क्या जो मन में आये वो बोले जा रही हो।‘
‘तू न अब मुझे पूरा पागल बना कर ही छोडोगी।‘ माँजी बोली।
‘ठहरो …. ठहरो …I’ अब अण्णा बीच में बोले, ‘पहले तुम दोनों शांत हो जाओ। मौसी, पाहले हम अच्छे से समझ ले कि मूल समस्या क्या है?‘ ‘अरे इसीलिए तो तुम्हे बुलाया है ना बम्बई से अब तुम ही भरो इसके दिमाग में कुछ ज्ञान की बातें। मै तो समझा समझा कर थक गयीI’ माँजी बोली।
‘मै बताता हूं।‘ अण्णा बोले,’पहले तो एक ये कि इन दोनों का बीते चौदह वर्षों से आपस में गहरा प्रेम होने के बावजूद भी विवाह न हो पाना। दूसरा पंढरीनाथ जी का दुर्भाग्य और तीसरा यानी सुशीला का स्वास्थ ठीक न होना। यही तीन कारण मूल रूप से है। इसमें बच्चें कतई बीच में नहीं है और नाही उनके कारण इनके विवाह में कोई अड़चन है। एक बार दोनों की शादी हो जाए तो किसी को भी बीच में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं रहेगा। परन्तु मौसी, मुझे एक बात बताओं इतने मासूम बच्चे है और तुम इनसे घर के काम लेती ही क्यों हो? घर के काम के लिए कोई किसी को रखने में क्या दिक्कत है?‘ अण्णा बोले।
‘सत्यानाश। लो ये आ गए एक और नानाजीI’ माँजी बोली, ’अरे अण्णा ये तुम क्या कह रहे हो? जितना बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है ऐसा कुछ भी नहीं है। थोडा बहुत काम तो बच्चों को बताना ही पड़ता है और बताना भी चाहिए। सुशीला का बोलो तो मुझे उसका तिनके का भी सहारा नहीं है। तुम तो सब अच्छी तरह से जानते हो। मै अकेली ही तो मरे जा रही हूं। और मुझे बता अण्णा इतने छोटे बच्चों को नौकर बनाता है क्या कोई? हम मूरख है क्या बच्चों को परेशान करने के लिए? और मै कहती हूं एकाद काम कभी कभार करने के लिए कह ही दिया तो कौन सा आसमान फट गया? बाळ अभी नासमझ है, लिखा होगा कुछ भी अपने नाना को। पर चिट्ठी लिखने के पहले उसके नाना को तो सौ बार सोचना था?‘
‘जाने भी दो ना मौसी।’ अण्णा बोले हम क्या बाळ के नानाजी पर ही चर्चा करते रहेंगे? नानाजी को क्या जवाब देना है वो उनके दामाद यानी पंढरीनाथजी को लिखने दो। सुशीला तुम उनको कोई जवाब भी मत भेजो और ना ही उसके बारे में ज्यादा सोच कर परेशान हो। मूल मुद्दा इन दोनों के विवाह का है। हमको उसी के बारे में सोचना चाहिए। बोलिए पंढरीनाथजी क्या कहना है आप का?‘ अण्णा ने दादा से पूछा। अब दादा बोले, ‘अण्णा,आपको तो सब मालूम ही है। कानपुर में हम दोनों उसी वक्त विवाह करने वाले थे और मै अपने घरवालों से बात करने के लिए ही ग्वालियर गया था और वहां पर जिन परिथितियों में मेरे पिता ने मुझे मजबूर किया और मुझे वहीँ ग्वालियर में शादी करनी पड़ी ये सब लोग जानते है। मेरे पिता ने अपनी पगड़ी मेरे पैरों पर रख दी थी और भावनावश पिता द्वारा किसी ओर को दिए गए वचनों को मुझे ही निभाना पड़ा। पिता का संकट देख मै निरुत्तर और लाचार हो गया था।’ ‘फिर दूसरा ब्याह रचाते वक्त सुशीला की याद क्यों नहीं आई?‘ माँजी के मन में अभी भी कड़वाहट थी। ‘माँजी अगर आप मन में इतनी कड़वाहट रख कर बात करेंगी तो फिर बातचीत करने का कोई अर्थ ही नहीं है। ‘दादा बोलेI ‘मौसी तुम ज़रा शांत रहो ना।’अण्णा बोलेI
‘कैसे शांत रहूं? ‘माँजी बोली, ‘पहली पत्नी की मृत्यु के बाद भी इन दोनों का विवाह हो गया होता तो सुशीला के ऊपर इतना बड़ा संकट नहीं आता। ‘माँजी अब रुआंसी हो गयीI
‘सुशीला को जिस संकट का सामना करना पड़ा उस अनहोनी को केवल दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।’ दादा बोले,‘यह सच है कि सुशीला मेरा पहला प्यार था पर जिस लड़की के साथ मेरी मर्जी के विरुद्ध मेरी शादी मेरे पिता ने करवा दी उस लड़की का भी इन सब घटनाओं में भला क्या दोष था? अपने विवाह के बाद उसके द्वारा देखें गए सारे स्वप्न, उसका पति, उसकी ग्रहस्थी, यह सब उसका सर्वस्व होना स्वाभाविक ही था।‘ ‘और सुशीला के देखे सब स्वप्न और उसकी जिन्दगी बर्बाद करना आपके लिए बहुत आसान और स्वाभाविक ही तो था?‘ माँजी ने ताना माराI ‘मैंने ऐसा कब कहा?’ दादा बोले, ’अण्णा आपको तो सब मालूम ही है कि मेरी शादी होने के बाद आप सब को यही लगा था कि मैंने सुशीला का धोखा दिया है। मैंने सुशीला को अपनी बात समझाने के लिए उससे मिलने की बहुत कोशिश की थी पर आप लोगों ने सुशीला से मुझे मिलने ही नहीं दिया। यहां तक की आप सब ने सुशीला पर भी अनेक पाबंदियां लगा दी थी। मुझे सबकी ओर से यही बताया गया कि सुशीला मुझसे बहुत ज्यादा घृणा करती है और उसकी मुझसे मिलने या बोलने की कतई इच्छा ही नहीं है। मुझे यह भी बताया गया कि सुशीला को अब मै भूल जाऊं। इन सब बातों से मै अपनी ओर से यह समझ बैठा कि वाकई मैंने सुशीला पर बहुत बड़ा अन्याय किया है। इस कारण मै अपना सुख-चैन गवां बैठा। मुझे अपनी बात समझाने का अवसर ही नहीं मिला इस लिए मै बहुत ही निराश हो गया था।‘ ‘शालिनी की मृत्यु उपरांत मेरा दूसरा विवाह और दो दिनों में ही मेरी दूसरी पत्नी का घर से बिना किसी को बताए अपने प्रेमी के साथ चले जाना, ये सारी घटनाएं मेरे ऊपर एक वज्रपात सा था। मै आप सब को यह कैसे समझाऊं कि मेरा सबसे बड़ा दुर्भाग्य था यह। आप सब तो मेरी सफाई सुने बगैर ही मुझे दोषी ठहरा चुके है तो फिर अब खुले मन से बातचीत कैसे हो सकती है? सच तो यह है कि बच्चों की खातिर किया मेरा दूसरा विवाह एक दुर्घटना के अलावा और क्या था?‘
‘जानबूझ कर खुद ही ओढ़ी हुई दुर्घटना थी।‘ माँजी बीच में ही बोल पड़ी।
दादा कुछ भी नहीं बोले पर अण्णा बोले, ‘मौसी तुम जरा शांत रहो ना। उनको कहने दो वें क्या कहना चाहते है।‘ ‘सच तो यह है कि मै दूसरा विवाह करने के लिए तैयार ही नहीं था पर बैंक की नौकरी कर के दो बच्चों को अकेले सम्हालना मेरे लिए बहुत मुश्किल प्रतीत हो रहा था। इस बार फिर मेरे पिताजी ने मुझ पर भावनात्मक रूप से और बच्चों का हवाला देकर विवाह करने का दबाव बनाया। एक बार फिर मै भावनाओं में बह गया और मेरी मर्जी के विरुद्ध मुझे विवाह करना पड़ा। लेकिन मेरी बदनसीबी यही पर ख़त्म नहीं हुई थी। उस लड़की का किसी कायस्थ लड़के से प्रेम था और उन्होंने विवाह होने तक यह बात सबसे छुपाए रखी। लड़की के पिता गुस्सैल थे इसलिए लड़की ने भी डर के मारे अपने पिता को यह बात आखिर तक नहीं बतलाई और ख़ामोशी से मेरे गले में वरमाला डाल बैठी। एक बात तय है कि उस लड़की ने और उस के घरवालों ने भी मुझे धोखा दिया। यह तो मेरे ही दरवाजे चल कर आए मेरे दुर्भाग्य के अलावा और क्या था? इसीलिए मैं इसे मेरे जीवन की एक दुर्घटना कहता हूं।’
‘इस दरमियान यह भी एक ग़लतफ़हमी मुझे हो गयी थी कि सुशीला अब मुझसे कभी भी नहीं मिलेगी और यह कि आप लोग मुझे उससे कभी मिलने भी नहीं देंगे। और चूँकि इस अवधि में कई दिनों तक हम लोगो का आपस में कोई संपर्क ही नही था इस कारण से मुझे यह भी गलतफहमी हुई कि आप लोगों ने शायद सुशीला की अब तक कही शादी भी कर दी होगी और सुशीला अपनी ससुराल में सुखी होगी। इसी बीच सुशीला के साथ कुछ अलग ही हुआ था और वह भयंकर और कल्पना के परे था।’ ‘मेरा और सुशीला का भी एक मित्र है रामू। हम लोग कॉलेज समय से ही मित्र है। उसीसे मुझे सुशीला के साथ जो कुछ भी हुआ उसके बारे में पता पड़ा और उसके बाद रामू के ही जरिये मैंने सुशीला को इधर की सारी खबरे पहुचाई। आपको याद होगा अण्णा, और माँजी आपको भी, कि इसीके बाद ही रामू ने अथक प्रयास करके हम सब लोगों की फिर से मुलाकात करवाई थी और उसीके बाद फिर से हमारे बीच संवाद और आना जाना शुरू हुआ। माँजी मै आपको कैसे समझाऊं कि मैंने सुशीला को धोखा नहीं दिया है। मुझे तो मेरे नसीब ने ही सबसे बड़ा धोखा दिया है।‘ दरवाजे के बाहर से साफ़ दिखाई दे रहा था कि दादा की पलके भीग सी गयी थी। उन्होंने रुमाल से अपनी आंखें पोछी। मेरे दादा मेरे सामने रोने को थे और मै कुछ भी नहीं कर सकता था। मुझे फिर काकी की याद आयी। वें मुझे रोने नहीं देती थी। मेरी पलकें भीगने से पहले ही उनका पल्लू मेरी आंखें पोछने के लिए तैयार सा रहता। वैसे काकी खुद के कारण और उनकी बेटी और दामाद की खस्ता हाल के कारण अपने जीवन में हमेशा दु:खी ही रहती पर उनको उनका दु:ख सहेज कर रखना आता था। किसी तिजोरी में कई पहरेदारों की सुरक्षा बंदोबस्त में रखा जाए ऐसे वे अपने सारे दु:ख और वेदनाएं सालों से सम्हाल कर रखे हुए थी। और आंसू? काकी की आंखों के आंसू मालूम नहीं वें कौनसे अंधे कुंए में फेंक कर आई थी? मेरे पास मेरे दादा की आंखें पोछने के लिए काकी जैसी पुण्यात्मा का पल्लू उपलब्ध नहीं था। उतनी समझ और उतना धीरज भी नहीं था नाही सहनशक्ति थी। मै अपनी विवशता से दु:खी हो गया और मेरे सामने मेरे दादा दु:खी थे, व्यथित थे। शायद अन्दर ही अंदर रो रहे थे। मुझे याद आया मेरे सामने एक बार काकी नानी को समझा रही थी, ‘आवडे, आंसू अगर आंखों से बह जाए तो वे सिर्फ पानी के अलावा कुछ भी नहीं होते और अगर उनको बहने नहीं दिया गया तो वें गंगाजल बन जाते है। यह गंगाजल हमें भावनाओं रूपी कांच की बरनी में सम्हाल कर बड़े जतन से हमेशा सम्हाल कर रखना होता है। बरनी भी नहीं फूटनी चाहिए और गंगाजल भी बहने ना पाए। कष्ट, दु:ख, वेदना, अपमान, यही तो हम औरते के खालिस शुद्ध गहने होते है।‘
मेरे मन में आया कि तुरंत मुझे पर लग जाए और पल में ही मुझे पंछी की तरह आकाश में उड़ना आ जाए। ऊंची उड़ान भर कर मै तुरंत काकी के पास पहुच जाऊं और काकी को यहाँ ले कर आऊं ताकि उनका स्नेह और वात्सल्यमयी पल्लू दादा की आंखे पोछने के भी काम आ सके। पर वैसा होना संभव नहीं था इसलिए मुझे ही फिर से रोना आ गया पर इस बार का मेरा रोना किसी की डांट से या मारने के कारण न होकर मेरा ही दु:ख, मेरी ही वेदना असहनीय होने के कारण था। आंसू आँखों से बाहर निकल न पाए इसलिए मैंने तुरंत अपनी आँखें पोछ ली। यहां काकी का पल्लू मेरी आंखें पोछने के लिए नहीं मिलेगा यह मुझे अच्छी तरह मालूम था इसलिए मै बहुत जल्द अपने ही हाथों से तुरंत अपनी आंखें पोछ कर चुपचाप बैठ गया।
मैंने अपनी आंखे पोछी यह सुरेश को पता भी नहीं पड़ा। वह खेल में ही खोया था।उसे तो यह भी पता नहीं चल पाया कि अन्दर बाहर कितना तूफ़ान आकर चला गया। वह खेल में जीतना चाहता था। मुझे पराजित करना चाहता था और इसके लिए अपनी चाल सोच रहा था। मुझे दादा और राजाभाऊ की बातचीत याद आई। दादा हमेशा ही हारते है। जुएं में भी और जिन्दगी में भी। फिर दादा जीतने की कोशिश क्यों नहीं करते?खेल हो या जिन्दगी कोई हर हमेशा हारता ही क्यों रहें? दादा की हार का कारण कहीं मै तो नहीं?अचानक ये विचार मेरे दिमाग में कौंध गया।इस कारण मै अस्वस्थ हो गया। मेरे कारण अगर दादा के कदम लड़खड़ा रहे हो और हमेशा उनको अपने कदम पीछे लेने पड रहे हो तो फिर वें मुझे ग्वालियर से यहां क्यों ले कर आये? मै वहीँ काकी के पास और नानाजी के पास मजे में था। दादा को अगर सुशीलाबाई से ब्याह करना हो तो ख़ुशी से करें पर मुझे अगर ग्वालियर छोड़ दे तो अच्छा होगा।

‘मै जीत गया …. मै जीत गया ….. तू हार गया … तू हार गया।‘ सुरेश बोला और मेरा ध्यान खेल की ओर गया। सुरेश प्रसन्नचित्त था। उसके चेहरे पर विजयी भाव थे। मैंने एक पल सुरेश की ओर देखा पर मै बोला कुछ भी नहीं। मेरे लिए खेल से भी बढ़ कर बहुत सारे प्रश्न थे जो मेरे सामने थे। सुरेश को देखकर मेरे मन में विचार आया कि मै हार गया इसी कारण सुरेश जीत सका। अब मुझे भी जीतना सीखना ही होगा। खेल में भी और जिन्दगी में भी। जिन्दगी को खेल बनाना होगा और खेल को जिन्दगी, इसलिए जिन्दगी के कौन से स्कूल में जीतना सीखा जा सकता है इसकी मुझे खोज करनी होगी। वैसे काकी के स्कूल का पढाया बहुत सारा मेरे पिटारे में था पर जीवन में आगे के सफ़र के लिए उसका कितना और कैसे उपयोग होगा इसकी मुझे अभी समझ ही नहीं थी। अब तो जैसी डगर होगी वैसे ही चलना होगा। यह नया पाठ शायद मुझे परिस्थतियों ने सिखाया था।
मैंने अन्दर कमरें में झांक कर देखा। काकी का पल्लू मेरे दादा के आंसू पोछने के लिए दादा के नसीब में भले ना हो पर अण्णा दादा के कंधें पर हाथ रख कर उन्हें सात्वना दे रहे थे। उन्हें धीरज बंधा रहे थे। अण्णा कह रहे थे,‘ पंढरीनाथजी मुझे आपकी परिस्थिति की भलीभांति जानकारी है। आपके मन में क्या चल रहा है इसका भी अंदाजा मुझे है। आप कानपूर में सुशीला के साथ अपना विवाह तय कर अपने पिताश्री का आशीर्वाद और इजाजत लेने ही ग्वालियर गए थे और पिताश्री की जोर जबरदस्ती के कारण वही अपने पिताश्री की पसंद की लड़की से विवाह कर बैठे। स्वाभाविक है कि आपके इस तरह के विवाह को सुशीला खुद के साथ धोखा समझ बैठी। प्रेमभंग होने से उसकी मानसिक स्थिति डगमगा गयी और वह अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख सकी। उसे सम्हालना मौसी के लिए भी बहुत मुश्किल हो गया था। ‘इसी दरमियान जिस स्कूल में सुशीला पढ़ाती थी उस स्कूल में एक नौकरानी थी। उस नौकरानी को सीधे नल से मुंह लगाकर पानी पीने की गंदी आदत थी। सुशीला उस नौकरानी को उसकी इस गंदी आदत के लिए हमेशा डांटती रहती थी। उस नौकरानी को इस बात के लिए सुशीला पर हमेशा गुस्सा आता था। कई बार वह सुशीला को उलटा जवाब भी दे देती। ऐसे ही एक बार झगड़ा बढ़ने पर उस नौकरानी ने सुशीला से कहां, ‘अब मै देख्रती हूं कि तुम कितनी सफाई से रहती हो?’
‘इसके बाद मालूम नहीं क्या हुआ, सुशीला उस रोज घर आई तो तेज बुखार से उसका शरीर तप रहा था। उसको तुरंत मौसी ने डॉक्टर को दिखाया। दो तीन दिन में सुशीला का बुखार तो उतर गया पर उसकी मानसिक स्थिति और भी बिगड़ गयी थी। वह साफ़सफाई पर ज्यादा ध्यान देने लगी। किसी भी वस्तु को हाथ नहीं लगाती। सब चीजें मैली हो जाएंगी इस लिए खुद होकर कोई काम भी नहीं करती और इस तरह घर के काम करने से भी कतराने लगी। दिन में तीन तीन चार चार बार सर के उपर से नहाने लगी। नहाकर बाहर आते ही अपवित्र हो गयी हूं यह कहकर फिर से नहाने जाती। इतना ही नही पर चीजों को छूने से वह अपवित्र हो जाएगी इस लिये उसने वस्तुओ को हाथ लगाना ही बंद कर दिया। एक तो आपसे विवाह ना होने से वह अवसाद में जी रही थी उपर से यह नया संकट आन पडा। मौसी ने मुझे तार देकार बंबई से बुला लिया। मै भी क्या करता ?’अण्णा बोले।
‘आप दोनों द्वारा लिये निर्णय के अनुसार सुशीला की शादी अगर आपके साथ समय रहते हो जाती तो मेरी फूल सी बच्ची की ऐसी दुर्दशा नही होती। झूठी आंस दिखाकार गए और आपका इंतजार करने में मेरी सुशीला की जिंदगी बरबाद हो गयी। खुद की इकलौती बेटी की जिंदगी को बरबाद होते देख किस मां का कलेजा मुंह को नही आयेगा? ‘मांजी रोने लगी। उन्होंने अपनी आंखें पोछी। माँजी को आंखें पोछता देख मुझे काकी की याद आ गयी। याद आया कि अपनी आवडे के लिए, मतलब मेरी नानी के लिए वे बहुत व्याकुल हो जाती थी। उनसे अपनी बेटी के अभाव और कष्ट देखे नहीं जाते थे। इतना ही नहीं काकी की आवडे से भी अपनी लाडली अक्का के, मतलब मेरी माँ के कष्ट भी देखें नहीं जाते थे। मेरी नानी मेरी माँ की तकलीफ सहन नहीं कर पायी थी यहाँ माँजी भी अपनी बेटी के दु:ख से व्याकुल थी। मतलब माँ ऐसी ही होती है क्या? पर मेरे को तो माँ का कोई अनुभव था ही नहीं और ना ही आगे अनुभव होने वाला था। परन्तु ये सुशीलाबाई मेरे दादा से ब्याह रचाकर मुझे इस तरह का कोई अनुभव दे पाएंगी इसका मुझे तो क्या दादा को भी भरोसा नहीं था। क्या किया जा सकता है? मेरे हाथ में तो कुछ भी नहीं था।
‘मौसी तुम जरा शांत हो जाओं। पंढरीनाथजी के पीछे हाथ धोकर पड़ने से क्या हासिल? इससे कोई हल निकलेगा क्या? और फिर उनका क्या कहना है, उनकी क्या समस्या है, उन्हें क्या तकलीफ है? अगर रिश्ते जोड़ना है तो यह भी हमें समझना ही होगा। ‘अण्णा बोले, ‘तो मै कह रहा था कि सब लोग सुशीला के बारे में तरह तरह की बेसिर पैर की बातें करने लगे। कोई कहता सुशीला पगला गई है, कोई कहता कि स्कूल की नौकरानी ने सुशीला के ऊपर बंगाली काला जादूटोना कर दिया है। मेरा किसी भी तरह के तंत्रमन्त्र पर विशवास नहीं था पर वास्तव में सुशीला के साथ ही ऐसा हो रहा था। कानपूर के एक प्रसिद्ध बंगाली मनोचिकित्सक को हमने सुशीला को दिखाया। उन्होंने अपने इलाज के साथ पुरानी बातें भूलने के लिए जगह बदलने का सुझाव दिया। अर्थात कानपूर छोड़ना पड़ा।’
‘हमने सुशीला से इस्तीफा दिलवाया और, मै मौसी और सुशीला को स्थायी रहने की मंशा से पथरिया लेकर आया। कानपूर के बंगाली मनोचिकित्सक का इलाज तो चल ही रहा था लेकिन पथरिया में भी उसी समय सरकारी अस्पताल की शुरुवात हो गयी थी और हमारे भाग्य से यह इत्तफाक ही था कि कानपूर के जिन बंगाली मनोचिकित्सक का इलाज चल रहा था उन्हीं के दूर के रिश्तेदार डॉक्टर मुक्ति यहां के अस्पताल में डॉक्टर बन कर आए थे। इस कारण हमें सुशीला के इलाज में उनसे बहुत मदद मिली। आगे सुशीला की तबियत थोड़ी ठीक हुई।डॉक्टर मुक्ति ने सुशीला को ठीक होने का प्रमाणपत्र दिया और इस कारण बाद में सुशीला को यहां सरकारी माध्यमिक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिल सकी और बाद में उसका तबादला पथरिया से बुरहानपुर हुआ। ‘अण्णा बोल रहे थे और अन्दर बाहर सब ख़ामोशी से सुन रहे थे।
‘पर सुशीला अभी भी विक्षिप्त सी रहती है। बारबार का नहाना कम हुआ है पर फिर भी अभी दोनों समय सर पर से नहाती है। स्कूल जाना मतलब अपवित्र होना है इस भ्रम में स्कूल से आने के बाद भी फिर से नहाती है। किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाती इसलिए नहाने का पानी और उसके कपडे मुझे ही रखने पड़ते है।‘ माँजी वेदना से बता रही थी, ‘तनखा घर लाते ही वह जमीन पर रख देती है और हमें वे सारे नोट पानी डाल कर लेने पड़ते है बाद में उसके आग्रह की खातिर सारे नोट पानी से धोने भी पड़ते है और बाद में उन्हें सुखाना पड़ता है। हमसे और सब से अछूत जैसा व्यवहार करती है। खुद को पवित्र समझ कर किसी भी चीज को नहीं छूती। घर का कोई काम ही नहीं करती। उसके इस बेसिर पैर और तर्कविहीन विश्वास की खातिर हमारी क्या किसी की भी कोई समझाइश काम नहीं करती। ‘माँ जी दु:खी स्वर में बोली। ‘मुझे रामू से सब बातें पता पड चुकी है इसीलिये तो हम सब पिछले चार साल से संपर्क में है ना? ‘दादा बोले, ‘सुशीला का मेरे साथ विवाह न हो पाने के कारण वह निराशा से अवसाद में चली गयी। इसके तुरंत बाद उसके उपर जो बडा संकट आया वह मानसिक आघात ही था। यह सब मुझे मान्य है। पर मेरी भी हालत इस दर्मियान कुछ अच्छी नहीं थी। माँ-बाप की मृत्यु के बाद दो विवाह की असफलता तो अब मेरे साथ मेरा नसीब बन कर चिपक गयी है। एक पत्नी की असमय मृत्यु और दूसरी का मेरी जिन्दगी से यूं जाना और ऊपर से दो बच्चों का भार। मै हमेशा किस निराशा में जीता आ रहां हूं यह मैं किसको और कैसे बताऊँ। माँजी आपकी मुझसे नाराजी जायज है। आपकी हालत भी मै अच्छी तरह समझता हूं। पर दो विवाह की असफलता के बाद तुरंत तीसरा विवाह? लोग क्या कहेंगे? सब मेरा मजाक उड़ाएंगे इसलिए एक और बार विवाह के लिए मुझे स्वयं में आत्मविश्वास और थोडा साहस पैदा करने के लिए थोड़े समय की आवश्यकता है। वैसे मै आपको विश्वास दिलाता हूं कि आज भी मेरा सुशीला के ऊपर मन से प्रेम है।’
‘आपकी भावनाएं जहां पहुचनी थी वहां सकुशल पहुच गयी। ‘अण्णा हंसते हुए बोले,‘आप सुशीला को अभी भी दिल से चाहते हो और उसे स्वीकार भी कर रहे हो यह बहुत ही अच्छी बात है। पर पंढरीनाथजी फिर आपकों ऐसा नहीं लगता क्या कि सुशीला को जल्द से जल्द पूर्ण रुपेण स्वस्थ होना चाहिए?‘
‘ये क्या कह रहे है अण्णा आप? ‘दादा बोले,‘सुशीला के आग्रह की खातिर ही तो मैंने बच्चों को यहां भेजा है ताकि बच्चों में उसका मन रम जाए और शीघ्र स्वास्थ लाभ के लिए अनुकूल वातावरण बन सके। सुरेश के साथ तो सुशीला हिलमिल गयी है फिर भी मेरे विचार में शादी के लिए सुशीला को थोडा और समय देना ही चाहिये। आपको क्या बताऊ अण्णा, मेरे अन्दर अब खुद ही एक हीन भावना घर कर गयी है कि सुशीला की इस हालत के लिए कही तो भी मै भी जिम्मेदार हूं। मै अपने पिता की भावनात्मक बातों के लिए बलि न चढ़ गया होता तो आज ये हालात न होते। मुझे अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए था पर मै ऐसा नही कर सका इसका मुझे हमेशा पछतावा ही रहेगा। इसलिए माँजी और अण्णा आज मै आप दोनों को वचन देता हूं कि जब तक मेरे शरीर में प्राण है तब तक मै सुशीला की चिंता करता रहूंगा। इतना ही नहीं माँजी अब आज के बाद मै आपकी भी जीवन पर्यन्त देखभाल करुंगा। आप दोनों की देखभाल यही अब मेरे जीवन का ध्येय रहेगा। आप दोनों को अब यहां से आगे किसी भी प्रकार की चिंता करने की जरुरत नहीं।मै हूं।‘ दादा बोले।
‘सुन कर अच्छा लगा।‘ माँजी बोली,‘आज तक हम माँ-बेटी को अण्णा का ही सहारा था फिर वो सुशीला की पढ़ाई हो उसकी बिमारी हो या पथरिया में खेती बाड़ी हो और वहां के लिए कोर्ट कचहरी हो। अण्णा हमेशा बम्बई से किसी देवदूत की तरह हमारी मदद को आता रहा है। हर बार बम्बई से आना इतना सरल काम नहीं है। अण्णा तुम्हारी जितनी भी तारीफ़ की जाए वह कम है और उपकार तो है ही। तुम्हारे जैसा बेटा भगवान् हर किसी को दे।‘
‘मेरी तारीफ का पहाड़ा बहुत हो गया।’ अण्णा बोले,‘मुद्दा क्या है?‘
होने दे रे।’ माँजी बोली, ‘मुद्दे को लेकर क्या बैठे हो तुम? हां तो मै कह रही थी कि कॉलेज में पढ़ते वक्त आप दोनों की नजदीकियां देख कर मैंने सुशीला को चेताया था। वैसे भी प्रेम की राह आसान नहीं होती कई विघ्न आते है। तुम दोनों की ओर देख कर तो इसकी अनुभव भी हो गयाI पर मूल मुद्दा यह है कि सिर्फ प्रेम होकर क्या होता है? हम माँ-बेटी कैसे और किसके लिए जियें? मै ये ऐसी बूढी थकीहारी निराश और विधवा और मेरे बुढापे में मेरे साथ अब तक बिनब्याही विक्षिप्त मेरी बेटी। आप ऐसे विधुर और दो बच्चों के पिता। सिर्फ एक दूसरे से प्रेम करने से क्या हासिल होगा? कानून की नजर में और समाज की द्रष्टि से रिश्तों के अधिकार कैसे जताएंगे? आप कहते हो कि आज से सुशीला की सारी जिम्मेदारी आप उठाएंगे। मतलब निश्चित रूप से आप क्या करने वाले हो? सुशीला को अकेले ही सम्हालना बहुत मुश्किल है। ऊपर से सुशीला के ऊपर मेरी और खेतीबाड़ी की भी जिम्मेदारियां चिपकी हुई है। पथरिया में हम माँ-बेटी की खेती और सब जायदाद हडपने के लिए बहुत से लोग नजरे गड़ाएं बैठे है। ऊपर से कोर्ट कचहरी ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। हम माँ-बेटी किसके दरवाजे जाएं? किससे मदद मांगे?‘ ‘अरे मौसी ये क्या कह रही हो तुम?’ अण्णा बोले, ‘सब एक ही दिन में थोड़े ही हल हो जाएगा? धीरज रखना पड़ेगा। हिम्मत भी रखनी होगी।पंढरीनाथजी जानते है सब।‘ फिर अण्णा दादा से बोले, ‘पंढरीनाथजी मुझे आपके मन में क्या चल रहा है इसका अंदाज है। सुशीला की हालत देखते और आपके ऊपर भी दो बच्चों की जिम्मेदारी देखते हुए, कुल मिलाकर हालात हम सुधार पाएंगे या स्थितियां हमारे हाथ से बाहर निकल जाएगी इसका मंथन स्वाभाविक है। निर्णय लेना तो सच में ही बहुत ही कठिन है। पर आप ऐसा सोचो कि शुरवात में आप दोनों ने एक ही राह पर हमसफ़र होकर चलने का निर्णय ले लिया था और किन्ही कारणों से कुछ समय के लिए हमसफ़र अलगथलग पड गए। अब महत्वपूर्ण यह है कि अपने अलग-थलग पड़ने के कारण दोनों जान गए है और अपने अकेलेपन का एहसास भी दोनों को हो रहा है इसीलिए अब जिन्दगी का अधूरा सफ़र दोनों हमसफ़र लगन और समपर्ण के साथ पूरा करना चाहते है। इसका तो दोनों को समाधान होना चाहिए? अब अगर उसी संकल्प के साथ एक ही राह पर दोनों की चलने की दिल से इच्छा हो परिस्थितियां कितनी भी मुश्किल हो असम्भव ऐसा कुछ भी नहीं। आखिर प्रेम की शक्ति अपार है। वही शक्ति सब परिस्थितयों पर मात करने वाली साबित होगी।‘
‘अण्णा आप सही कह रहे हो। ‘दादा बोले,’मेरे लिए सुशीला का पूर्णरूपेण स्वस्थ होना सबसे महत्वपूर्ण है और यही मेरी प्राथमिकता भी है। हमारे विवाह के बाद परिवार में और समाज में उसे आत्मनिर्भरता से रहना होगा। परिवार की सारी जिम्मेदारियां भी सम्हालनी होगी। हम दोनों ने पहले ही इस बारे में सारासार विचार कर लिया है और इसीलिए मैंने बच्चों को यहां भेजा है और सुरेश के साथ तो वह हिलमिल भी गयी है। अण्णा आप ही ने कहा था ना कि पथरिया में डॉक्टर मूर्तिका यह भी कहना था कि सुशीला को ज्यादा से ज्यादा लोगों के संपर्क में रहना चाहिए जिससे उसके जल्द सामान्य होने की संभावना बढ़ जाएगी। अब स्कूल में उसके जाने से और वहां बच्चों में रहने से और साथी शिक्षकों के साथ मिलने जुलने से सुशीला में बहुत सुधार और परिवर्तन धीरे धीरे दिखाई दे रहा है। अब अगले वर्ष हम दोनों हमारे विवाह का निर्णय लेंगे जिससे हमारी आगे की राह आसान होगी। और अण्णा एक बार फिर मै आप को वचन देता हूं कि आज से और अभी से माँजी की और सुशीला की सारी जिम्मेदारी मेरी ही होगी और इससे मै कभी भी पीछे नहीं हटूंगा।‘ ‘मतलब तब तक मेरे सर पर टांगती तलवार ही रहेगी? ‘माँजी बोली।
‘मौसी, तुमको ना हर चीज की जल्दी पड़ी रहती है। शादी जैसा महत्वपूर्ण निर्णय जल्दबाजी में अचानक कैसे लिया जा सकता है? इन दोनों को थोडा समय तो देना ही होगा। तुम चिंता मत करो सब ठीक होगा। ‘अण्णा फिर दादा से बोले, ‘पंढरीनाथजी, बच्चों को रहने दो यही एक साल।हम आपकी भी तकलीफ समझते है। उज्जैन में बच्चें दिनभर अकेले कैसे क्या रह सकते है? परन्तु अगले वर्ष बच्चों के इम्तहान ख़त्म होने के पहले आप दोनों अपना जो भी निर्णय हो निसंकोच ले लीजिए ताकि मेरी और मौसी की सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी।‘ ‘हां।‘ दादा बोले,’ हमारे पिताजी और हमारी माताजी एवं दो बड़े भाई अब इस संसार में नहीं है। हमारी दो बड़ी बहने भी अब जीवित नहीं है।मुझसे एक बड़े भाई है। वैसे वें हमारी शादी के विरुद्ध ही है। अब फिर से जाकर उनका मन बदलने का प्रयत्न करता हूं। देखें क्या कहते हैअब? बनते कोशिश सब की मर्जी से हमारा विवाह हो यही मेरी इच्छा है ताकि सुशीला को बाद में कोई तकलीफ ना हो तथा परिवार में उसे उचित मान सन्मान भी मिले।‘
‘आपका सोच बिलकुल सही हैI‘ अण्णा फिर माँजी से बोले, ‘मौसी, भोजन का क्या इंतजाम है? कितनी देर से हम सब बोले ही जा रहे है मुझे तो बहुत जोरो से भूख लगी है बच्चों को भी भूख लगी ही होगी।‘ ‘हां।’ दादा बोले, ‘मुझे भी रात को ही निकलना होगा। कल सोमवार है और बैंक भी जाना जरुरी है।‘ ‘जाती हूं रसोई में।’ माँजी बोली और बाहर निकल गयी।
‘मौसी मै भी आ रहा हूं तुम्हारी मदद के लिए जल्दी हो जाएगा।‘ कहते हुए अण्णा भी कमरे के बाहर चले गए। अब कमरे में दादा और सुशीलाबाई दोनों ही थे।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – २५ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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