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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग – १८

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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स्कूल शुरू होकर एक सप्ताह से ज्यादा हो गया था। एक दिन दियाबाती के बाद हम सब बच्चें राम मंदिर के बरामदे में झूले पर बैठकर रामरक्षास्तोत्र का पाठ कर रहे थे। पंतजी रामजी के दर्शन कर के ऊपर अपने कमरे में जा चुके थे। काकी ने मेरे लिए अब बरामदे में बैठना बंद कर दिया था। वें अधिकतर अपने कमरे में ही बैठी रामजी का जाप करती किया करती। लीला मौसी रसोईघर में शाम की रसोई बनाने में व्यस्त थी। माई भी रसोईघर में ही थी। नानाजी भी अपने कमरे में थे। रामरक्षास्तोत्र ख़त्म होने के बाद हमने समर्थ रामदास स्वामी के ‘मन के श्लोक’ कहना शुरू किया। ‘गणाधीश जो ईश…..’ मेरे मुंह से इतना ही निकला था कि इतने में हलकी सी रोशनी में एक आकृति धीरे-धीरे हमारी ओर बरामदे में आते हुए मुझे दिखाई दी। मैंने तुरंत पहचान लिया। मेरे दादा थे। मेरे पिताजी। उन्हें देखते ही मैं इतना जोश में आगया कि तुरंत झूले से उतर कर खड़ा हो गया और जोर से चिल्लाया, ‘मेरे दादा आगए … ! मेरे दादा आ गए !! फिर मैंने झुक कर उनके चरण स्पर्श किये। इस बार उन्होंने भी मुझे पहचान लिया। उनके मुंह से निकला, ‘सदा खुश रहों।’ दादा बच्चों के साथ ही झूले पर बैठ गए। पर मुझसे झूले पर नहीं बैठा गया। मैं तुरंत दौड़ कर काकी के कमरे में गया और हांफते हुए उनसे बोला, ‘काकी मेरे दादा आए है। बरामदे में झूले पर बैठे है।’ फिर मैने दौड़कर और हांफते-हांफते यह खुशखबर सब को दी। कुछ देर में ही दालान में सब लोग इक्कठे हो गए। माई, काकी, नानाजी, शरद मामा, लीला मौसी। सब मेरे दादा को घेर कर खड़े आश्चर्य के साथ देख रहे थे। दादा ने घर के सब बड़ों के चरण छुएं।
‘कैसे है दामादजी?’ नानाजी ने दादा से पूछा।
‘मैं ठीक हूं।’ दादा बोले ,फिर पूछा, ‘आप सब कैसे है?’
‘हम सब ठीक है दामादजी।’ काकी बीच में ही बोल पड़ी, ‘कितने दिनों बाद आना हुआ है दामादजी आपका? आपका बेटा राह देखते-देखते थक गया बेचारा।’ काकी को मुझे उज्जैन भेजने की बहुत जल्दी थी इसलिए उन्होंने सीधे मुद्दे को छेड़ा। पर नानाजी ने उनको रोक दिया,’ काकी, अभी ही तो दामादजी आये है। उन्हें थोडा आराम करने दो।’ फिर लीला मौसी को बोले, ‘लिले,थोडा गुड पानी ले कर आ।’ लीला मौसी तुरंत अन्दर चली गयी।
‘भैय्या, मुझे क्षमा करे। बाई के जाने के वक्त मुझे छुट्टी नहीं मिली थी इसलिए नाही आ पाया था। आशा है आपको कोई गलतफहमी नहीं होगी।’ दादा बोलेI
‘ऐसा क्यों कह रहे हो दामादजी?’ नानाजी बोले,’ आपका पोस्टकार्ड तो मिल गया था। अरे भाई, नौकरी तो नौकरी ही होती है वह भी बैंक की कठिन नौकरी। आप बिलकुल दु:खी ना हो और किसी तरह का किन्तु परन्तु भी मन में भी ना रखे।’ ‘हां। भैया इसीलिए मैंने इस बार दो दिन का अवकाश लिया है जिससे सब की मुलकात भी हो जाएगी।’ ‘बढ़ियाI अच्छा है।’ नानाजी बोले, ‘अब आए है तो भोजन कर के ही जाइएगा।’
‘नहीं।’ दादा बोले, ‘खाने के लिए तो नहीं रुक पाऊंगा। वहां छत्रीबाजार में सब इन्तजार कर रहें होंगे मेरा भोजन के लिए, पर हां थोड़ी देर रुकता हूँ। पहले पंतजी से मिल लेता हूं’
दादा पहली मंजिल पर पंतजी के कमरे में उनसे मिलने गए। माई भी उनके साथ गयी। उसके बाद दादा नानाजी के कमरे में आए। अब तक नानाजी उनके कमरे में आगए थे। मैं तो दादा के साथ ही था। कब मैं दादा से बोलूं इसके लिए मैं उतावला हो रहा था पर पहली ही मुलाकात होने से मैं संकोच भी कर रहा था और शरमा भी रहा था। इसलिए मैं नानाजी के कमरे में जाते ही नानाजी के पीछे जाकर खडा हो गया। दादा खटियां पर बैठ गए। नानाजी जमीन पर बैठ गए और मैं भी उनके बगल में बैठ गया। अब दादा मेरी ओर देख कर जोर से हंस पड़े। मैं तो और भी शरमा गया।
‘बाल्याजी देखों कैसे शरमा रहे हैं? ‘नानाजी हंसते हुए बोले। वैसे नानाजी को बहुत कम ही हंसते हुए देखा हैं। हमेशा चेहरे पर संजीदगी ओढ़े हुए। पर आज मैंने और दादा ने नानाजी को हंसते हुए देखा। उनको हंसते देख दादा भी जोर से हंस पड़े फिर बोले, ‘भैय्या, बाळ को अब उज्जैन ले जाने की सोच रहा हूं। हाल ही में अभी स्कूल शुरू हुए है वहां इसका तीसरी कक्षा में नाम भी लिखवा कर आया हूं। आपका क्या कहना है? आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा।’
‘बढियां है।’ नानाजी बोले, ‘क्यों बाल्याजी जाओगे ना उज्जैन?’
मैंने सिर्फ अपनी गर्दन हिला कर अपनी स्वीकृति दी। दादा ने मुझे अपने पास बुलाया और मेरी पीठ पर से हाथ फेरते हुए बोले, ‘मेरे साथ उज्जैन चलोगे ना?’ मैंने एक बार फिर ख़ुशी ख़ुशी अपनी गर्दन हिला दी। -‘फिर अब निकलने की तयारी करों। अपने को कल निकलना है।’ दादा बोले।
अब ये इतनी ख़ुशी का समाचार सब से पहले काकी को ही देना चाहिए उसके बाद बाड़े में सबको यह समाचार भी देना ही पड़ेगा यह सोचकर मैं वहां से छू हो गया। मेरी ख़ुशी मेरे मन में समा नहीं रही थी। मैं ख़ुशी से भर गया। वैसे उज्जैन मैंने देखा ही नहीं था और वहां की कोई कल्पना ही नहीं थी मुझे। मेरे लिए उज्जैन याने एक अपरिचित दुनिया और दादा से भी मेरी पहचान ठीक से कहां थी ? उनका तो मुझे स्वभाव तक नहीं मालूम था। पर कहते हैं ना खून को खून का आकर्षण रहता है वैसा ही कुछ हो। और फिर दादा तो मेरे पिता है। मेरे हक़ के। मैं उनके सामने अपने मन की बात कह सकता हूंI उनके सामने जिद कर सकता हूं। उनसे नाराज हो सकता हूं। उज्जैन जाने से ये सब मुझे मेरी झोली में अनायास मिलने वाले थे। यहां जिन चीजों की कमी थी वहां उसकी पूर्ति होने वाली थी। मेरी भावनाएं,संवेदनाएं मानो एक साथ उफ़ान पर आगई हो। वैसे मैंने ये भी तो सुना ही था कि वहां उज्जैन में मेरा एक सगा बड़ा भाई भी हैं। हक़ के साथ मैं उसके साथ खेल भी सकता हूं। और इन सब के ऊपर उज्जैन यानी मेरा हक़ का घर है भले ही मेरी गिनती छोटों में होती हो पर अपने पराए का भेद तो मैं समझता ही था। एक पल में मेरी दुनियां ही बदल गयी। पल भर में ही इस बाड़े के लोग मुझे पराये लगने लगे।
काकी अपने कमरें में माला लिए हुए बैठी थी, और कुछ नहीं हमेशा की तरह रामजी के साथ गपशप हो रही थी। रामजी कितने भी ऊब गए हो पर काकी उनका पिंड कहां छोड़ने वाली थी? मैं जाते ही उनसे लिपट गया। काकी ने हाथ की माला एक तरफ रखी, ‘किसी के दादा आये है इस लिए कोई बहुत ही ख़ुशी में दिखाई दे रहा है। एक लड़के के तो मजे ही मजे है रामजी।’
काकी फिर से रामजी को बीच में ले आई। पर मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं बोला, ‘काकी दादा मुझे कल उज्जैन ले कर जाने वाले हैं अपने साथ।’ ‘सच?’ काकी को भी बहुत ख़ुशी हुई। वें बोली,’ख़ुशी की तो खबर ही है। और मेरे लिए तो बहुत ही ज्यादा ख़ुशी की खबर है। रामजी ने मुझे मुक्त कर दिया। रामजी के तो उपकार ही मानना चाहिए।’ रामजी के साथ लेन-देन का हिसाब करने में काकी सदैव चोख ही रहती थी। रामजी के साथ झगड़ा हो, शिकायत हो, मनुहार हो, अपना दुखड़ा रोना हो या एहसान मानना हो काकी को रामजी के सामने सब कुछ कहने में ना तो कोई देर लगती और नाहि कोई संकोच होता। रामजी के साथ काकी कोई हिसाब बाकी नहीं रखती। काकी ने मेरी पीठ पर से हाथ फिराया और फिर दो चार समझदारी की बातें बताने लगी, ‘देखों, वहां ठीक से रहना। दामादजी को बिलकुल तकलीफ नहीं देना। वें अकेले ही रहते है। घर में कोई भी औरत नहीं रहने से उनकें ऊपर काम का बोझा बहुत होगा। ऊपर से उनकी नौकरी।इसलिए तुम अपने रोज के काम खुद ही करना। जिद नहीं करना,और मेरा नाम बदनाम हो, मुझे अच्छा नहीं लगे ऐसा काम बिलकुल नहीं करना। तुम्हारा बड़ा भाई भी वहां होगा तुम्हारे साथ। उसके साथ ठीक से रहना। उससे झगड़ना नहीं और उसकी किसी भी चीज को बिना उसके पूछे हाथ नहीं लगाना। मन लगाकर खूब अच्छे से पढ़ाई करना। जल्दी बड़े हो। रामजी हमेशा तुम्हारे साथ हैी
‘काकी की आंखें नम हो गयी,’ तेरी माँ अक्का गयी, आवडे, तेरी नानी भी मुझे छोड़ कर चली गयी पर तेरे लिए ही रामजी ने अभी तक इस संसार में मुझे जीवित रखा है। अब मैं निश्चिंत होकर अपने रामजी के पास जा सकती हूं। ‘काकी ने मेरा सर उनकी गोद में रखा और मुझे थपकियां देने लगी पर मुझे कहां नींद आने वाली थी। मैं उज्जैन जाने की कल्पना में खो गया था। काकी की तस्सली के लिए मैं थोड़ी देर वैसे ही लेटा रहा। बड़ी देर तक काकी के ममतामयी हाथ मेरी पीठ पर पड़ते रहे। थोड़ी ही देर में दादा कमरे में आए। काकी ने मुझे एक तरफ किया और तुरंत खड़ी हो गयी।
‘दामादजी आप?’
‘काकी आप आराम से बैठिए।’ इतना कह कर दादा भी वहीँ जमीन पर मेरी बगल में बैठ गए। काकी सामने बैठी। ‘काकी कुछ सामान लाया हूं बाळ के लिएI कल हमारी दोपहर तीन बजे बाद की गाडी हैं उज्जैन के लिए। इसे लेने मैं कल समय पर ही आऊंगा।’ दादा ने एक झोला काकी को दिया। काकी ने वह एक तरफ रख दिया। दादा बोले, ‘सच तो यह है काकी कि इस उम्र में सबको आपकी ही सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए पर बाळ को आपको ही सम्हालना पड रहा है। आपके एहसान मैं कभी भी नहीं भूल सकता और आपके एहसान कैसे उतारू यह प्रश्न भी मुझे हमेशा सताता रहेगा। आप कुछ दिन उज्जैन आकर हमारे यहां रहिए। वैसे भी दोनों बच्चें अकेले ही रहेंगे आप कुछ दिन रहेंगी तो अच्छा लगेगा आपको।’
‘ये क्या कह रहे हैं दामादजी आप? कैसे तो उपकार और कैसे उपकार की वापसी। अभी मैं बाळ को यहीं बता रही थी वहीँ आपको भी कहती हूं, ‘मेरे पति मुझे छोड़कर गए, आवडे गयी, अक्का गयी पर मैं अभागन यहीं रह गयी। शायद रामजी ने मुझे आपके बेटे को सम्हालने के लिए ही जीवित रखा हो। और अब आप इसे ले जाकर मेरी राह ही तो आसान कर रहे हो ना? फिर तो मुझे ही आपके उपकार मानना चाहिए। आपका बड्डप्पन कि आप मुझे उज्जैन आने के लिए कह रहे है। पर सच बताऊं अब मेरे रामजी के सामने मैं आखरी सांस लूं यही मेरी इच्छा है।’ वातावरण कुछ गंभीर हो गया। काकी खामोश हो गयी। थोड़ी देर दादा भी कुछ नहीं बोले। फिर चलने के लिए उठ खड़े हुए और बोले, ‘उज्जैन आती तो महाकालेश्वर के दर्शन भी हो जाते।’
‘अब मुझे किसी मोह में मत डालिए दामादजी। ‘काकी बोली,’ दामाद के भी दामाद के यहां रहने के दिन रामजी किसी को भी नहीं दिखाए। वैसे भी अब मेरे ऐसे कितने दिन बचे है? मैं तो रामजी के बुलावे का इन्तजार कर रही हूं। और कुछ भी नहीं सोचती।’ काकी बोली। दादा कुछ भी नहीं बोले उन्होंने काकी के चरण छुए और निकल गए
एक जरुर हुआ दादा के आने से दादी ने जो मुझे और गोपाल को बाल गोपाल कहा था उसी तरह से दादा ने मुझे फिर से बाळ संबोधन देकर बाल्याजी का बाळ बना दिया।
दादा के जाने के बाद मैंने दादा का लाया हुआ झोला देखा। झोले में मेरे लिए दो जोड़ी कपडे, बाटा कम्पनी के मेरे नाप के जूते, नए मोज़े, दो नयी बनियान इत्यादि थे। काकी ने बड़े चाव से सब चीजे देखी। बाद में मैं सब चीजे नानाजी को दिखाने के लिए झोला उनके कमरे में ले गया। मुझे वे सब नयी सामग्री पूरे बाड़े में सब को दिखानी थी। कल का सवेरा मेरी जिन्दगी में कुछ अलग ही लेकर आने वाला था। मेरी जिन्दगी एक नया सफ़र शरू करने वाली थी।
दूसरे दिन मैं स्कूल में नहीं गया। स्कूल छोड़ने के सब कागज़ नानाजी लेकर आने वाले थे। पूरे बाड़े में सब मेरे दादा का इंतजार बड़ी बेसब्री से कर रहे थे। पूरे बाड़े में मेरे दादा की और मेरे उज्जैन जाने की ही चर्चा सुबह से हो रही थी। वैसे किसी की दिनचर्या में कुछ भी नया नहीं था सिवाय मेरे। काकी की दिनचर्या में कोई फर्क वें भले ही सब को दिखा नहीं रही थी लेकिन सबको वो महसूस हो रहा था। सुबह से ही काकी अपने कमरे में बैठी माला हाथ में लिए रामजी का जाप कर रही थी। तय समय पर मेरे दादा आए। लीला मौसी ने मुझे नए कपडे पहना कर तैयार कर दिया था। नए कपडे और नए जूते, जुर्राब पहन कर मैं फूला नहीं समा रहा था। बाड़े भर के सब लोग बरामदे में इक्कठे हो गए थे। मैं काकी को नमस्कार करने उनके कमरे में गया। काकी मेरा हाथ पकड कर मुझे लेकर बरामदे में आई। उन्होंने मुझसे रामजी को साष्टांग दंडवत करवाया। उसके बाद सब बड़ों के चरण छूकर आशीर्वाद लेने को कहां। मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। पंतजी ने मेरे हाथ पर जार्ज पंचम का चांदी का एक रुपये का सिक्का रखा। नानाजी ने मेरे हाथ में रेवड़ी और गजक की पुड़ियां रखी। वैसे ग्वालियर की गजक खूब प्रसिद्ध हैं और मुझे भी पसंद है। हम लोग बरामदे से बाहर आने के लिए निकले। सब मुझे बिदा करने बाहर तक आए। अचानक मुझे मालूम नहीं क्या सूझी मैंने काकी से कहा, ‘काकी, अब तुम्हारी ‘डयूटी ‘ ख़त्म’I डयूटी ये अंग्रेजी शब्द मैंने किसी से सुना था। वैसे अंग्रेजी स्कूलों में छठी कक्षा से पढाई जाती इसलिए मेरे मुंह से डयूटी शब्द सुनकर सब को हैरानी तो हुई पर सब जोर से हंस पड़े। माई बोली, ‘देखा, बाप को देखते ही कितनी जल्दी बदल गया। दामाद का लड़का हरामखोर पक्का। क्यों रे डयूटी मतलब क्या यह समझाता भी है क्या तू?’
माई को मैंने कोई जवाब नहीं दिया और काकी ने भी मुझे कुछ नहीं कहा था। वें मेरा हाथ पकड़ कर चल रही थी। कुछ पल के बाद उन्होंने फिर रात का पहाड़ा पढना शुरू कर दिया,’ नयी जगह है सम्हल कर रहना। तेरा बड़ा भाई सुरेश वहां है उसके साथ बिलकुल झगडा नहीं करना। मैंने जो जो बातें बतायी है याद रखना और उसी के अनुसार रहना। थोड़ी बहुत तकलीफ हो तो सहन कर लेना ज्यादा चिल्लाचोट या हल्लागुल्ला नहीं करना। तुम्हारे दादा अकेले है उन्हें कोई तकलीफ नहीं देना। बने तब तक अपने सारे काम अपने ही हाथों से करना। बार-बार बता चुकी हूं फिर से कहती हूं, पढ़ाई में कोई कसर बाकी न रहे। पढाई कर जल्द बड़े हो जाओ। समझदार हो जाओ, और हां दियाबाती के समय सभी स्त्रोत का पाठ बिना नागा करना। ये सिर्फ स्त्रोत न होकर संकट के समय हमें धीरज बंधाते है। संकटों से सामाना करने का साहस और बल देते है। बुद्धि देते है। ज्ञान देते है। इसलिए हमारे जीवन में स्त्रोत का बहुत महत्व हैI मैंने बतायी बातें भूल मत जाना ठीक से याद रखना। मेरी डयूटी भले ही ख़त्म हो गयी हो, पर मेरे मन में हमेशा तुम्हारी ही चिंता रहेगी। ठीक से जाना।रामजी तुम्हें लंबी यशस्वी उम्र दें और तुम्हारा कल्याण करे।’
काकी ने फूफाजी द्वारा दिया गया जार्ज पंचम का चांदी का सिक्का मेरे हाथ पर रख दिया। वैसे काकी की हर बात का अंत हमेशा रामजी पर ही होता, पर इस वक्त उनकी आँखें नम हो गयी। उन नम आखों में उनके पति, उनकी पुत्री और उनकी नाती के जाने की वेदनाएं थी। उससे बढ़कर उनके आश्रित होने की वेदना ज्यादा थी। आज मुझे जाता देख शायद उनकी यादें ताजा हो गयी हो। नानाजी हमें छोड़ने गली के बाहर सड़क तक आये। सब से बिदाई लेकर हम तांगे में बैठ कर स्टेशन पर आए। नया शहर, नया स्कूल, नया घर, नये रिश्ते, नए मित्र, इन सब की सुखद कल्पना में मैं खो गया था। तय समय पर हमारी गाडी ग्वालियर स्टेशन से उज्जैन के लिए रवाना हुई।

उज्जैन में महाकाल मंदिर के सामने कोट मोहल्ले नाम की गली में गली की शुरवात से आखिरी तक मेरे ताऊजी का मकान था। ताऊजी तो मेरे जन्म के पहले ही गुजर गए थे और उन्हीं की याद में मेरा नाम उनके नाम पर विश्वनाथ रखा गया था। शायद उज्जैन के इस घर से मेरा सबसे नजदीक यहीं भावनात्मक रिश्ता था। ताऊजी के बच्चें और ताईजी सभी नोकरी के कारण इंदौर में रहते। इस घर में पहली मंजिल पर तीन कमरों में दादा की उजडी हुई गृहस्थी थी। बाकी मकान में ऊपर नीचे कुल मिलाकर चार किरायेदार थे। दादा भी एक किरायेदार की हैसियत से ही रहते थे और बिना नागा नियम से किराया देते थे। इसके अलावा किरायेदारों से किराया वसूल करना नल बिजली और अन्य सब खर्चों का हिसाब रखना ये सब भी उन्हीं की जिम्मेदारी थी।
उज्जैन स्टेशन पर सुबह उतरते ही मुझे इस शहर के तांगों ने खूब आकर्षित किया। लकड़ी का चौकोनी रंगबिरंगी खूबसूरत ढांचा। बैठने के लिए साफ़ सुथरे सफ़ेद गद्दे और तो और पीठ टेकने के लिए तकिया भी। इतनी खूबसूरत बैठक व्यवस्था ग्वालियर के तांगों में नहीं है। वहां की अपेक्षा यहां के तांगें अलग से लगे और किसी को भी आकर्षित भी करने वाले लगे। सब इन्हें मालवा का गौरव भी कहते। घर में प्रवेश करते ही मुझे मेरा बड़ा भाई सुरेश दिखा। मुझसे तीन वर्ष बड़ा और मुझसे थोडा ऊंचा भी। वह स्कूल जाने की जल्दी में था। दादा ने सामान नीचे रखा और सुरेश से बोले, ‘यह बाळ है तुम्हारा छोटा भाई। कल से इसको भी स्कूल ले कर जाना। शाम को इसे भी खेलने ले कर जाना, और झगड़ा बिलकुल नहीं करना तुम्हारा छोटा भाई है यह हमेशा याद रखना।’
‘दादा मुझे सब मालूम है आप बिलकुल चिंता मत करो।’ सुरेश ने कहा और फिर मेरी तरफ देख कर हंस दिया और बोला, ‘शाम को मिलते है।’ सुरेश के स्कूल जाते ही दो स्त्रियां अन्दर के कमरों से बाहर आई। उनमें से एक थोड़ी ज्यादा उम्र की थी और दूसरी कम उम्र की। ज्यादा उम्र की भले ही नौ गजा धोती पहने थी पर कुछ ज्यादा ही ठिंगनी थी पर खूब गोरी थी। दूसरी कम उम्र की स्त्री साधारण कदकाठी की थी पर दिखने में बेहद सुंदर थी। दोनों इतनी सुंदर थी मानो किसी राजघराने से आई हो। मुझे देख कर दोनों हंस दी। ज्यादा उम्र की स्त्री कुछ नहीं बोली पर छोटी जरुर बोली, ‘आगए क्या बाळराजे!’ उसके बाद वो बड़ी स्त्री से बोली, ‘माँ, भाई के लिए चाय बनाओ ना? ‘ अब इस संभाषण से मुझे पता पड गया कि दोनों माँ बेटी है। पर दादा से इनका क्या संबंध है यह अभी मुझे जानना बाकी था।
‘मैं चाय बनाती हूं आप जल्दी तैयार हो जाओं। भोजन भी तैयार है। आपको बेंक भी जाना होगा ना?’ माँजी बोलीI ‘हां। देर हो गयी है थोड़ी पर जाना ही पड़ेगा।’ फिर दादा मुझसे बोले, ‘बाळ ये नानी है। इन्हें सब माँजी कहते है।’ फिर माँजी की बेटी की ओर देख कर बोले, ‘और ये ताईI इन्हें सब ताई कहते है। दोनों के चरण छूकर आशीर्वाद लो।’ मैंने पहले माँजी के चरण छुए। उन्होंने कहा, ‘सदा खुश रहोI’ फिर मैं ताई के चरण छूने को हुआ पर वें दो कदम पीछे हट गयी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। माँजी और दादा जोर से हंस पड़े।’ ना… ना…उससे थोडा दूर ही रहना हमेशा।’ माँजी के मुंह से निकला। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया पर उतने में ताई के मुंह से निकला, ‘सदा खुश रहो।’
दादा मुझे पीछे नहाने के कमरें में ले गएI उन्होंने मेरे लिए बाल्टी में पानी भर दिया। बिटको छाप काले दन्त मंजन की छोटी सी शीशी मेरे सामने रखी और मुझसे बोले,’ अब रोज दांत ठीक से साफ़ करना। नहाने के लिए लाइफबॉय साबून की बट्टी यहां रखी है। रोज बदन में साबून लगा कर मलमल कर नहाना और हां संडास नीचे है। ठीक से साफ़ सुथरे रहना। अब तुम बड़े हो गए हो। मैं नहालाऊं क्या तुम्हें?’ मैं कुछ भी नहीं बोला पर थोड़ी देर के बाद दादा खुद आए और मुझे नहलाने लगे। मुझे बड़ा अच्छा लगा। बदन पोंछने के लिए मुझे नया तौलिया दिया। खुद अपने हाथों से मेरे गीले बाल पोंछे। खुद मेरे बालों में तेल लगाकर कंघी कर दी। मैं नए कपडे पहन कर तैयार हो गया। फिर दादा ने दो पटे बिछाए, और माँजी के सामने हम खाना खाने बैठ गए। माँजी हमें गरम-गरम चपातियां बनाकर दे रही थी। खाना सादा ही था दाल चावल रोटी और सब्जी पर माँजी के हाथों में स्वाद था। मुझे बहुत अच्छा लगा। उस दिन पहली बार भरपेट खाने का आनंद भी आया और पहली बार समझ में आया कि पेट भरने से भी संतुष्टि मिल सकती है। स्वाद स्वाद का अंतर भी मुझे पहली बार समझ में आया। सफ़र की थकान थी इसलिए दादा ने मेरे लिए कमरे में एक दरी बिछा दी। मैं बिलकुल बेफ्रिक्र हो दरी पर लेट गया और लेटते ही मुझे नींद आगयी। स्कूल छूटने के बाद सुरेश भी घर आया और देर से बैंक में जाने के बावजूद दादा भी जल्दी ही घर आगये। दादा के घर आने के बाद ही मुझे पता पडा कि माँजी और ताई आज ही देर रात की गाडी से वापस जाने वाली है। सुरेश और मैं शाम को थोड़ी देर नीचे आंगन में सब बच्चों के साथ खेलते रहे। सुरेश ने सब बच्चों से मेरा परिचय करवाया। रात के लिए रसोई भी माँजी ने ही बनायी और हमें फिर से सुबह जैसा ही स्वादिष्ट भोजन करने का आनंद मिला। बाद में माँजी ने अपने सामान को समेटा। उन दोनों की गाडी देर रात की थी इसलिए हमारे सोने के बाद दादा बाहर से ताला लगाकर उन्हें छोड़ने स्टेशन पर गए। दादा कब गए और कब वापस आये और कब सो गए ये हम दोनों को पता ही नहीं चला।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – १९ में

 


परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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