दीवारें
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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दीवारें सब सुनती हैं,
सहती है आत्मसात करती हैं
खिलखिलाहट और
दर्द की राज़दार होती हैं
घर की दरकती दीवारें,
रिश्तों के टूटन का
आभास कराती हैं
कभी बुने थे हजारों
सपने कई आकांक्षाये
कुछ कढ़ गए हैं कहानी में
कशीदाकारी की तरह
पुरखों की यादे समेटे
स्वयं में ये दीवारें हमसे
तुमसे कुछ कहना चाहती हैं
समय मिले तो जरूर
आकर मिलना,
इन दीवारों से
जिसकी नींव चुनी थी
पूर्वजों ने अपने
खून पसीने से
संदेश सुनने को
तरस रही हैं
आज ये दीवारें
झुक चुकी हैं,
फिर भी टूटी नहीं हैं,
खड़ी हैं गर्व से
सिर उठाए
अपने दम पर
हैं इंतजार में कि
गूंजेगी खिलखिलाहट
और संगीत के
स्वर फिर एक बार
किलकारियों से सुखद
अनुभूति कराएंगी
नई फसले फिर से
आंगन रोशनी से
जगमगा उठेंगे
इस कल्पना ने नए
प्राण फूंक दिए हैं
मानो इन...