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पद्य

मैं खुद्दार हूं
कविता

मैं खुद्दार हूं

आशीष द्विवेदी समदरिया शहडोल (मध्यप्रदेश) ******************** जीवन है संघर्ष है ये लड़ रहा, जूझ रहा क्योंकि खुद्दार हूं मैं मैं खुद्दार हूं, मैं लड़ रहा, नहीं मैं भयभीत हूं, मैं धूप में, मैं छांव में ढल रहा पहर भी हो खोई नहीं पहचान अपनी क्योंकि खुद्दार हूं मैं मैं लड़ रहा, अपने आप से मैं जितता, अब खुद से हूं मैं खुद्दार हूं, मैं अपनों से दूर भी हूं मगर हारा नहीं हूं मैं, मैं छोड़ा नहीं हूं अपनी खुद्दारी मैं हार भी नहीं माना हूं, अंत तक लड़ूंगा मैं, छोड़ा नहीं अभी जिंदगी को, मैं खोया नहीं हूं, पहचान अपनी दिन हो, रात हो, मैं जिंदगी छोड़ नहीं, मैं खुद्दार हूं, मैं अपनी खुद्दारी छोड़ नहीं हूं, जिंदगी की कदर करना छोड़ नहीं हूं।। परिचय :-  आशीष द्विवेदी समदरिया निवासी : शहडोल (मध्यप्रदेश) व्यवसाय : बैंकर सम्प्रति : लगभग १० किताबें प्रकाशित) घोष...
पथ तुम्हारा प्रशस्त है
कविता

पथ तुम्हारा प्रशस्त है

डॉ. निरुपमा नागर इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** श्रम पथ पर चलने वाले स्वेद बिंदु से धरा चमकाते हो रक्त बिंदु तुम्हारी नव निर्माण का आव्हान करे खेत, खलिहान, सड़क, कल कारखानों का संधान करे सीने में धधकती ज्वाला लिए जहां भी धरते तुम पग बन जाता है वहीं अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ हार न तुमने कभी मानी चले जब-जब रोज़ी रोटी की शान बनी श्रम वीर बन तुम मुसकाए निज गौरव को भी समेट लाए पथ तुम्हारा प्रशस्त है श्रम की भागीदारी का शोर है रज को जब तुम स्वर्ण बनाते हो क्यूं दामन अपना बिछाते हो श्रम पथ पर चलने वाले स्वेद बिंदु से धरा तुम चमकाते हो ।। परिचय :- डॉ. निरुपमा नागर निवास : इंदौर (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने प...
ज़िंदा ज़ख़्म
कविता

ज़िंदा ज़ख़्म

डॉ. वासिफ़ काज़ी इंदौर (मध्य प्रदेश) ********************** भूलकर भी कैसे भूलाऊँ तुमको। ज़ख़्म ये... कैसे दिखाऊँ तुमको।। रूठकर बैठे हो.. मेरी जाँ मुझसे। तुम बताओ कैसे मनाऊँ तुमको।। मेरी रूह में....... घर कर गये हो । वजूद से अपने कैसे हटाऊँ तुमको।। बहुत ऐहतियात से तोड़ा दिल को मेरे। अब कौन से खिलौने से रिझाऊँ तुमको।। करके बेवफ़ाई इश्क़ में सताया "काज़ी"। अब कौन से रिश्ते से....... सताऊँ तुमको।। परिचय :- डॉ. वासिफ़ काज़ी "शायर" निवासी : इंदौर (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित कर...
विश्वास और आस्था
कविता

विश्वास और आस्था

संजय जैन मुंबई (महाराष्ट्र) ******************** अब न गमों से हमें डर लगता है। न खुशी का मुझे कोई एहसास होता है। क्योंकिं मेरा दिल तो अब अब गुरुभक्ति में रहता है। इसलिए मैं इन सबसे अब दूर रहता हूँ।। जब वो ही मेरे साथ है तो डर किस बात का है। मुझे पूरा है भरोसा अपने गुरुवर पर। जो पग-पग पर साथ है मेरी रक्षा के लिए। तो क्यों रहूँ मैं उदास अपनी इस जिंदगी में।। भक्ति में बहुत शक्ति होती है जो अपना असर दिखती है। और मरने वाले इंसान की सोच को जिंदा रखती है। तभी तो मृत्य इंसान को प्रभु से जीवित करवा लेती है। और सावित्री और सत्यभान की याद दिलाती है।। रखो गुरु पर तुम विश्वास तेरा मालिक देगा साथ। बस अपनी आस्था को कम नहीं होने देना। तेरा प्रभु तुझे नहीं करेगा जीवन में कभी भी निराश। बस सच्चे मन से तुम करो सदा उन्हें याद।। परिचय :- बीना (मध्यप्रदेश)...
मेरे शहर में
कविता

मेरे शहर में

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** आओ! कभी मेरे शहर में तुम को गैरों को अपना बनाकर दिल लगाना सिखाए। आओ! कभी मेरे शहर में तुमको हर एक शख्स़ से मोहब्बत करना सिखाए। आओ! कभी मेरे शहर में तुम को नफरतों के बीच में पलता इश्क दिखाएं। आओ! कभी मेरे शहर में तुम को विषाद में भी खिलते हुए चेहरे दिखाएं। आओ! कभी मेरे शहर में तुम को महकते पहाड़ो के बीच पंछियों की मधुर वाणी सुनाएं। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा ...
कविता

सपने संगम जैसे

आनंद कुमार पांडेय बलिया (उत्तर प्रदेश) ******************** सपने संगम जैसे लगते, दूर हमारे दुखड़े भगते। छु हीं लेंगे अपनी मंजिल, विघ्नों से ना पीछे हटते।। सपने संगम जैसे लगते, दूर हमारे दुखड़े भगते।। जीवन के हर विकट समय को, हंसते-हंसते दूर भगाना। हम भी हैं इक अद्भूत मानव, सपना आया एक सुहाना।। हम हैं निडर पथिक उस पथ के, पार करेंगे हम भी डटके। सपने संगम जैसे लगते, दूर हमारे दुखड़े भगते।। कभी पंख लग जाते हमको, पक्षी बन उड़ जाते हैं। आसमान के खुले सफर में, उड़ने में सुख पाते हैं।। इन विचित्र सपनो की दुनिया, में हम कभी नहीं हैं थकते। सपने संगम जैसे लगते, दूर हमारे दुखड़े भगते।। वो बचपन के सपने भी तो, आ जाते हैं कभी-कभी। खेल-खेल में रोज झगड़ना, फिर मिल जाना अपना भी।। सपनो के इस सुंदर वन में, मन आनंद के रोज भटकते। सपने संगम जैसे लगते, दूर हमारे दुखड़े भगते।...
मैं भोली-भाली चिड़िया
कविता

मैं भोली-भाली चिड़िया

अशोक पटेल "आशु" धमतरी (छत्तीसगढ़) ******************** मैं घर आँगन की पहचान हूँ मैं पेड़-पौधों की मुस्कान हूँ। मैं भोर का सन्देशा लाती हूँ मैं सारे जगत को जगाती हूँ। मैं कलरव के गीत सुनाती हूँ मैं रवि का स्वागत करती हूँ। मैं भोली-भाली चिड़िया हूँ मैं जागरण मैं ही निंदिया हूँ। मैं नील-गगन का श्रृंगार हूँ मैं बादलों का पुष्प-हार हूँ। मैं फुलवारी की सँगिनी हूँ मैं फूलों की मन मोहिनी हूँ। पर!मैं व्यथित परेशान हूँ मैं लोगों से बड़ी हैरान हूँ। मैं बहुत प्यासी और भूखी हूँ इसलिए तो मैं बहुत दुखी हूँ। मैं चिड़िया पानी का प्यासी हूँ मैं दाने के लिए बड़ी उदासी हूँ। परिचय :- अशोक पटेल "आशु" निवासी : मेघा-धमतरी (छत्तीसगढ़) सम्प्रति : हिंदी- व्याख्याता घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कवि...
ट्रैक्टर ट्रॉली का क्रिकेट
कविता

ट्रैक्टर ट्रॉली का क्रिकेट

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** शारदा ट्रैक्टर की ट्रॉली सड़क पर चल रही, सूर्य अस्त होने को है और फ्लाई ओवर का नजारा, गाडियां तो चींटी कछुए की चाल चल रहीं पुल पर सारी गाडियां जाम में फंस रहीं। ट्रॉली के पीछे मेरी कार भी रेंगती रही, ट्रॉली में दो मजदूरों के अलावा एक सुंदर सुडौल लगभग ११ वर्षीय बालक, ट्रॉली को ही क्रिकेट का पिच बना रहा, और अंतराष्ट्रीय खिलाड़ियों सा बल्ला घुमा रहा। जैसे हर बाल पर छक्का चौका जड़ दिया, दोनों हाथ ऊपर हवा में लहरा रहा, मस्त उत्साह में झूम रहा। एक किसान मालिक का बेटा है वो, या ट्रैक्टर मालिक का। हो सकता है मजदूर का ही बेटा हो। जो भी हो, क्रिकेट खेल के खिलाड़ी का अरमान बहुत प्रखर है। सूर्य की बिखरती सिमटती किरणों की तरह, उस बालक का भविष्य मानो गर्त में कैद है। महान बन जाने पर, दुनिया में नाम का यशोगान हो जाने पर, शास्त्री...
मासूम कली
कविता

मासूम कली

कीर्ति मेहता "कोमल" इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** एक कली मतवाली थी सीधी भोली-भाली थी हँसती खिलखिलाती सूरज की वो लाली थी देख रूपसी मुखड़ा उसका भँवरा एक खींचा आया भोली सी उस कली को उसने, धीरे से फिर सहलाया चिंहुक उठी मासूम कलिका भँवरे ने फिर बहलाया भँवरा मदमस्त हुआ, फिर अपने पे इतराया रस पीकर अधखिली कली का भँवरा जैसे बौराया कुचल उसने किसलय कुसुमित उड़ा गगन में अलसाया धरा पड़ी अर्दित बोंडी वो बेसुध संज्ञाशून्य हुई बागबान की दृष्टि में वो, अनुपयोगी धूल हुई जैसे निर्मोही माली की बेगानी इक भूल हुई आह! मनुज बोलो ... इसमें मेरा दोष है क्या मैं तो स्वयम अशक्त रूप थी अब कैसे मैं व्यर्थ हुई??? अब कैसे मैं व्यर्थ हुई??? परिचय :- कीर्ति मेहता "कोमल" निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बीए संस्कृत, एम ए हिंदी साहित्य लेखन विधा : गद्य और पद्य की स...
आओ हम कुछ और बात करें
कविता

आओ हम कुछ और बात करें

डॉ. सुलोचना शर्मा बूंदी (राजस्थान) ******************** इस निराशा, उबाऊ, एकाकीपन से बाहर निकल.. ‌आओ हम कुछ और बात करें... ‌उगते सूरज को देखें और भूल जाएं निराशा की उस कालिमा को ‌जिसने लील दिया है हमारी खुशियों को... ‌और खो जाएं उन असीम ऊर्जावान रंगों में... ‌हम ओजस्वी अरुणोदय की बात करें! आओ हम कुछ और बात करें!! ‌ ‌झांकें खिड़की से बाहर.. तिनका-तिनका कर एकत्र, ‌नाजुक सी डाल पर हर बार पुनः - पुनः घरौंदा बुनती.. ‌उस छोटी नन्हीं सी चिड़िया की बात करें... ‌आओ हम कुछ और बात करें!! ‌आंगन से डाली तक फुदक.. ‌सख्त अखरोट तोड़, अनंत उत्साह से अचंभित करती.. ‌बताती अपने बुलंद इरादे.... ‌उस सजग नाजुक सी गिलहरी की बात करें... ‌आओ हम कुछ और बात करें!! ‌ले क्षमता से अधिक भार... ‌सतत चढ़ती और उतरती.. ‌फिर फिर अपनों को राह दिखाती कर्म मार्ग पर बढ़ती, अपने शत्रुओं को ढकेलती ...
मैं जीता जागता  मजदूर हूँ
कविता

मैं जीता जागता मजदूर हूँ

धर्मेन्द्र कुमार श्रवण साहू बालोद (छत्तीसगढ़) ******************** मैं काम से चूर हूँ इसलिए मजबूर हूँ मैं बहुत दूर नहीं इसलिए मजदूर हूँ मैं आपके पास हूँ तभी तो सबके साथ हूँ मेरे द्वारा प्रयास ही सबके लिये आस हूँ मैं श्रम का नूर हूँ इसलिए मजबूर हूँ मैं बहुत दूर नहीं इसलिए मजदूर हूँ मेरे पास कान हैं रोज खोलता दुकान हूँ मेरे पास हाथ हैं मिस्त्री बनाता मकान हूँ मैं तो कोहिनूर हूँ इसलिए मजबूर हूँ मैं बहुत दूर नहीं इसलिए मजदूर हूँ मैं हर रोज करम करता तब परिवार चलता है मैं लगन से मेहनत करता हूँ पूरे संसार चलता है मैं महज दूर नहीं इसलिए मजबूर हूँ मैं बहुत दूर नहीं इसलिए मजदूर हूँ पंचतत्व ढांचा से बना ये हाड़ है इसलिए पहाड़ हूँ जंगल में मंगल मनाता है इसलिए शेर का दहाड़ हूँ मैं श्रम से चूर हूँ इसलिए मजबूर हूँ मैं बहुत दूर नहीं इसलिए मजदूर हूँ जल जंगल जमीन...
अमलतास
कविता

अमलतास

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** अमलतास की लाली छीन लिया फूलों का रस सारा विभिन्न तलुओं से लगता है यह तरु सबसे न्यारा। इतिहास की मिश्रित भाषा। गाता और सिखाता धरती के आंगन में इतराते मुस्काता। शाखा-शाखा इठ लाई है मुस्काई है कलियां रति आज जागा है वन में। पथ पगडंडियां शर्म से हो गई लाल। पथ कहता पगडंडी से आएंगी अब हम पर किरणें रवि का संदेश लेकर। तब तक ओस बिंदु को थामे रखना प्यास बुझेगी किरणों की मन में तृप्ति लेकर। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ीआप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती र...
मजदूर
कविता

मजदूर

राम रतन श्रीवास बिलासपुर (छत्तीसगढ़) ******************** हे मजदूर मैं तुझ पर क्या क्या लिखूं? मानव विकास की हर ओ गाथा लिखूं। या मजबूरी भरी व्यथा की कथा लिखूं।। हर तड़पती पेट की ओ ज्वाला लिखूं। या जीवन संघर्ष की ओ दास्तां लिखूं।। हे मजदूर मैं तुझ पर क्या क्या लिखूं? चिलचिलाती धूप देह से गंगा जैसी धार लिखूं। या कड़कड़ाती ठंड ललाट की ओस बूंद लिखूं।। हर उम्र मजदूरी और मजबूरी के ओ साख लिखूं । या किसी मजदूर शासक तसल्ली की बात लिखूं।। हे मजदूर मैं तुझ पर क्या क्या लिखूं? मजदूर के गगनचुंबी इमारत में योगदान लिखूं। या परिवार भरण पोषण में सहयोग लिखूं।। हर गरीबी शिक्षा में मजदूर के आधार लिखूं। या नसीब में मजदूरी नियति को साफ लिखूं।। हे मजदूर मैं तुझ पर क्या क्या लिखूं? हर असहाय जनों के तुम्हारा वरदान लिखूं। या बिन योग्यता के तेरी हर पहचान लिखूं।। हर ओ शक्श के बेरो...
रखना चाहिए जीव दया
कविता

रखना चाहिए जीव दया

प्रतिभा दुबे ग्वालियर (मध्य प्रदेश) ******************** बेजुबां है ये पशु पक्षी सभी विचारे बस प्रेम ही आपसे चाहते है सभी, जो कह नही सकते है दुख अपना! उनपर सदा रखनी चाहिए जीव दया।। एक भाग अन्न का इनके लिए भी रख दो बेजुबान है इन्हें भी कभी भोजन करा दो आ जाए द्वार पे तुम्हारे प्रेम से यदि पशु, कभी इनको भी तुम पानी पिला दो।। क्यों मारो पीटो इनको बेकार, करते सभी से पशु प्रेम प्यार ये, इनकी भी है एक प्रेम की भाषा! पहचानो तुम करके इनपर जीव दया।। आबादी बढ़ रही हमारी है जब से छीन लिया है हमने इनका जंगल, सही मायने में वही था घर इनका, प्रकृति मां भरती थी भोजन से पेट इनका।। आज घर घर आते है आस यही लेकर कोई तो होगा भोजन देने वाला इनको! आज कचरा खाने पर विवश हुए पशु, भोजन देकर कोई तो रखेगा जीव दया।। हमें समझना होगा अब इनको क्यों व्याकुल है हर पशु इतना! न...
मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को …
कविता

मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को …

ललिता शर्मा ‘नयास्था’ भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** मैं क्या पाठ पढ़ाऊँ उन बच्चों को, जिनको आज़ादी का एहसास नहीं। मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब लगते इनको ख़ास नहीं॥ कोख़ में पलते बच्चे कहते थे, माँ मुझको धरती पर क़ुर्बान करो। पुष्प सरीखा बलिवेदी पर चढ़ जाऊँ तो, गर्भ पे अपने अभिमान करो॥ अब भ्रूण को मिलता वो रसपान कहाँ, आँवल में भी वो त्रास नहीं। मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब लगते इनको ख़ास नहीं॥ जो थे मात-पिता के राज दुलारे, वो घर की चौखट भूल गये। पकी हुई फसलों-से उनके बच्चे, फाँसी के फंदे झूल गये॥ नवयुग की इस पीढ़ी को देखो, रत्ती भर मन में इनके वो उल्लास नहीं॥ मातृभूम हेतु मर मिटने वाले, अब इनको लगते ख़ास नहीं॥ ये दक्खिन वाली चलते हैं चाल, परकटे-से बिखरे-बिखरे बाल। अब बिगड़ गया है माँ का लाल, और सिमट गया है इनका जीवन-काल॥ रक्त सनी उन तारीख़...
तलबगार हम भी थे
ग़ज़ल

तलबगार हम भी थे

सीताराम पवार धवली, बड़वानी (मध्य प्रदेश) ******************** नशा बनकर होठो पर पैमानों की शराबों में मिलेंगे दुआ बन कर आपको आपकी फरियादो में मिलेंगे प्यार का खत बनकर आपको किताबों में मिलेंगे करोंगे जब याद कभी तुम हमको अपने दिल से खुदा कसम तन्हाई में आपको ख्वाबों में मिलेंगे। इश्क है तो इश्क का इजहार करना भी जरूरी है। कोशिश तो करो हम आपको उन इरादों में मिलेंगे। सुना है इश्क का अक्सर नशा सर चढ़कर बोलता है नशा बनकर होठो पर पैमानों की शराबों में मिलेंगे। जब कभी देखोगे तुम अपने आपको आईने में हम आपको आपके चढ़ते हुए शबाबो में मिलेंगे। तुमने भी पूछा था कि क्या हमको तुमसे इश्क है तुम भी हमारा खत पढ़ लेना उत्तर खत के जवाबों में मिलेंगे। कभी तुम्हारी खूबसूरती के तलबगार हम भी थे। कभी अपने चेहरे से लगाओ हम रेशमी नक़ाबो में मिलेंगे। परि...
दर्द सहना, दर्द लिखना मेरी पहचान रहने दो …
ग़ज़ल

दर्द सहना, दर्द लिखना मेरी पहचान रहने दो …

शाहरुख मोईन अररिया बिहार ******************** दिल में खौफ ए ख़ुदा मंदिर में भगवान रहने दो, करम इतना तो हो हमारे सब अरमान रहने दो। रोटी की कीमत, भूख की तलब पूछिए गरीब से, बेघर खुश हूं ऊंचे महलों के तो दरबान रहने दो। ठोकड़ों में जी रहे लिवास दवा न दुआ मिलती है, खुली किताब हूं मेरे सर पे आसमान रहने दो। लफ्जों का कोई ख़ास नायाब कारीगर नहीं हूं मैं, दर्द सहना दर्द लिखना मेरी ये पहचान रहने दो। परिचय :- शाहरुख मोईन निवासी : अररिया बिहार घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने ह...
यूं ही बस
कविता

यूं ही बस

आलोक रंजन त्रिपाठी "इंदौरवी" इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** जब भी तुम रूठ कर न बोलोगे जानता हूं कि छुपके रो लोगे इश्क का दर्द जानता हूं मैं ये भी मुमकिन नहीं कि सो लोगे ज़िंदगी का वज़न जियादा है कैसे तन्हाइयों में ढो लोगे ग़म बहुत वैसे हैं तुम्हें हासिल खुद को इस गम में भी डुबो लोगे वक्त का इंतज़ार है मुझको साथ मेरे कभी तो हो लोगे है यकीन मुझको अपने रिश्तों में ख़ूब बारीकियों से तोलोगे याद आएगी तुमको जब मेरी अपने दामन को भी भिगो लोगे परिचय :- आलोक रंजन त्रिपाठी "इंदौरवी" निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एमए (हिंदी साहित्य) लेखन : गीत, गजल, मुक्तक, कहानी, तुम मेरे गीतों में आते प्रकाशन के अधीन, तीन साझा संग्रह में रचनाएं प्रकाशित, १० से ज्यादा कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, ५० से ज्यादा गीत के चल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाश...
राम जब वन को जाते हैं
भजन, स्तुति

राम जब वन को जाते हैं

विजय वर्धन भागलपुर (बिहार) ******************** प्रेमी प्रजा की आँखों से आंसू बह जाते हैं ह्रदय ह्रदय में बसे राम जब वन को जाते हैं मात कौशल्या देख दृश्य यह करुण पुकार करें ह्रदय फटा जाता है उनका कौन् उपाय करें कोई नहीं जो उनके दुःख को दूर भागते हैं यह क्या सीता माई भी प्रभु राम के संग चली लक्ष्मण भी संग साथ चले यह कैसी विकट घड़ी देने को सांत्वाना नहीं कोई भी आते हैं कैकेइ, मंथरा हो रहीं पुलकित तन मन से भरत राज कर लेंगे दूर हुई बाधा हमसे मुर्छित दशरथ से भी उनके दिल न् लजाते हैं परिचय :-  विजय वर्धन पिता जी : स्व. हरिनंदन प्रसाद माता जी : स्व. सरोजिनी देवी निवासी : लहेरी टोला भागलपुर (बिहार) शिक्षा : एम.एससी.बी.एड. सम्प्रति : एस. बी. आई. से अवकाश प्राप्त प्रकाशन : मेरा भारत कहाँ खो गया (कविता संग्रह), विभिन्न पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। घोषणा पत्र : मैं य...
भारत देश की शान
कविता

भारत देश की शान

आयुषी दाधीच भीलवाड़ा (राजस्थान) ******************** भारत का हर कोना-कोना, भारत के वीर पुरुषो की शान है, देखो ये भारत देश... हमारी पहचान है... देखो ये भारत देश हमारी पहचान है। उत्तर मे कश्मीर है जिसके, हिमालय जिसकी पहचान है, जहाँ रचे गए पंचतंत्र और नाट्यशास्त्र, ऋषियो की है वो तपस्थली, ऐसा ये सुन्दर कश्मीर, भारत देश की शान है। भारत के इस स्वर्ग मे कैसा वो अत्याचार था, कश्मीर का हिन्दू- मुस्लिम युद्ध देख, सबकी आंखे नम हुई, वो लहुलुहान दृश्य देख, सबका ह्दय रो पड़ा, चारो ओर एक ही गुंज 'आजादी, आजादी '। भारत का हर कोना -कोना, भारत के वीर पुरुषो की शान है, ये कश्मीर भारत देश की शान है, देखो ये भारत देश... हमारी पहचान है... परिचय :-  आयुषी दाधीच शिक्षा : बी.एड, एम.ए. हिन्दी निवास : भीलवाड़ा (राजस्थान) उद्घोषणा : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्...
हां मैं पुरुष हूं …
कविता

हां मैं पुरुष हूं …

संजय कुमार नेमा भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** हां मैं पुरुष हूं ।। विधाता की रचना हूं। मैंब्रह्मा हूं, विष्णु हूं, महेश हूं। मै एक पुरुष हूं।।‌‌ नारी का अभिमान हूं, नारी का सौभाग्य हूं। हां में एक पुरुष हूं।।‌‌ मन की बात मन में रखकर ऊपर से हरदम, खुशमिजाज दिखने वाला परिवार की जिम्मेदारी निभाने वाला। हां मैं पुरुष हूं।।‌‌ पिता का स्वाभिमान हूं, मां के आंचल का अभिमान हूं। बचपन से घर की जिम्मेदारी लेने वाला पिता के सपनों को साकार करने वाला। हां मैं एक पुरुष हूं मैं।।‌‌ जीवन में आतेही, आपेक्षाओं से लगता है यह जीवन। बहन की शादी के सपनों का आधार हूं। हां मैं एक पुरुष हूं।।‌‌ थक कर कभी हारा नहीं, निरंतर मुझको चलना है हरदम।। आशाओं की मीनार हूं। परिवार का आधार स्तंभ हूं।। हां मैं एक पुरुष हूं।।‌ रो में सकता नहीं, डर अपना बतला सकता नहीं। ...
ऐ दुनिया वालो
कविता

ऐ दुनिया वालो

प्रभात कुमार "प्रभात" हापुड़ (उत्तर प्रदेश) ******************** ना खुरचो परत मेरे जख्मों से ऐ दुनिया वालो। ब-मुश्किल फरेरा किया है मैंने गमों के जख्मों को, ये गहरे घाव न बन जाएंँ तुम्हारी बेरूखी से, ऐ दुनिया वालो। बार बार गिरा हूँ लड़खड़ाया हूँ, मगर चौखट पर आकर उसकी फिर संभला हूँ, ऐ दुनिया वालो। मुझे सहारा दे देना मैं रुह को अपनी रब से मिलाने आया हूँ ऐ दुनिया वालो। परिचय :-  प्रभात कुमार "प्रभात" निवासी : हापुड़, (उत्तर प्रदेश) भारत शिक्षा : एम.काम., एम.ए. राजनीति शास्त्र बी.एड. सम्प्रति : वाणिज्य प्रवक्ता टैगोर शिक्षा सदन इंटर कालेज हापुड़ विशेष रुचि : कविता, गीत व लघुकथा (सृजन) लेखन, समय-समय पर समाचारपत्र एवं पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन। घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कव...
इश्क बेहिसाब
कविता

इश्क बेहिसाब

आशीष तिवारी "निर्मल" रीवा मध्यप्रदेश ******************** सारे काम वो लाजवाब कर बैठी इश्क हमसे वो बेहिसाब कर बैठी । सब देखते रहे मुुझे अखबार की तरह वो मेरे चेहरे को किताब कर बैठी। ना पीना कभी भी यह देके कसम खुद की आँखों को शराब कर बैठी। वफाओं का मिला यह सिला उसे कई रातों की नींद खराब कर बैठी। लिपट कर खूब रोए हम दोनों ही वो अपनी वफा का हिसाब कर बैठी। परिचय :- आशीष तिवारी निर्मल का जन्म मध्य प्रदेश के रीवा जिले के लालगांव कस्बे में सितंबर १९९० में हुआ। बचपन से ही ठहाके लगवा देने की सरल शैली व हिंदी और लोकभाषा बघेली पर लेखन करने की प्रबल इच्छाशक्ति ने आपको अल्प समय में ही कवि सम्मेलन मंच, आकाशवाणी, पत्र-पत्रिका व दूरदर्शन तक पहुँचा दीया। कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित युवा कवि आशीष तिवारी निर्मल वर्तमान समय में कवि सम्मेलन मंचों व लेखन में बेहद सक्रिय हैं, अप...
येसो के गरमी बिक्कट हे
आंचलिक बोली

येसो के गरमी बिक्कट हे

परमानंद सिवना "परमा" बलौद (छत्तीसगढ) ******************** छत्तीसगढ़ी बबा दाई हलाकान हे, येसो के गरमी मा परेशान हे, दिन अउ रात पटका (गमछा) मा दुखत बइठे, गांव मा बर-पीपर के सुघ्घर छांव हे.! गरमी अउ महंगाई सन्गरा आगे लोगन के मुठी पीरा गे, गरमी कर देहे बुरा हाल हे सर्दी बुखार आहु काल हे.! गरमी के महीना मा भोजन ले ज्यादा जल ही जीवन ये, बेजुबान जानवर अउ चिरई-चुरगुन राहगीर ला पानी ही सहारा ये.! शहर ले अच्छा मोर गांव हे, ऐसी-कुलर ले बढीया रुक छईया के सुघ्घर छांव हे, गांव के ढीहडेवाहिरन ला परमा के प्रमाण हे.!! परिचय :- परमानंद सिवना "परमा" निवासी - मडियाकट्टा डौन्डी लोहारा जिला- बालोद (छत्तीसगढ़) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आद...
मनहर के आने का संदेश पाने पर मनहरी की मनोदशा
आंचलिक बोली, छंद, सवैया

मनहर के आने का संदेश पाने पर मनहरी की मनोदशा

ज्ञानेन्द्र पाण्डेय "अवधी-मधुरस" अमेठी (उत्तर प्रदेश) ******************** सुंदरी सवैया छंद (अवधि भाषा) मुसकातु अहै उ कपाटु धरे मनवा हुलरै पियवा अजु आवै । भिनही कगवा मुँडरा चढ़िके कहवाँ-कहवाँ भलुके दुलरावै । ननदा बिहँसै जरि जायि हिया सनकी-मनकी करि खूबि खिझावै । ढुरकैं जबहीं सुरजू तबहीं फँसि जायि परानु कछू नहिं भावै ।।१।। परछायि दिखै दुअरा दुलरा दुलही जियरा खुलिके हरसावै । कबहूँ अँगना महिं नाचि करै कबहूँ ननदा बहियाँ लिपिटावै । चुपके-चुपके नियरानि जबै अँखियाँ लड़ितै घुँघटा लटकावै । कहिजा मँखना अँगना तड़पै कबुलौं दहकै कसिके समुझावै ।।२।। तुहिंसे लड़ना सजना जमुके बतिया दुइठूं करना तुम नाहीं । इसकी उसकी परके घरकी नथिया-नकिया धरना तुम नाहीं । फिरकी फिरकी अपनी-अपनी भलुके भरिके फँसना तुम नाहीं । रचिके बचिके चँदना बहकौ कपरा सबुके सजना तुम नाहीं ।।३।। पतझारि दिखै जिनिगी...