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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : भाग ३०

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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दिन कैसे जल्दी जल्दी गुजरते रहते हैं इसका हम अंदाज भी नहीं लगा सकते। मैं फिर से जनकगंज में सरकारी प्राथमिक विद्यालय में जाने लगा था। मेरी तीसरी कक्षा की परीक्षाएं ख़त्म हो गयी थी और विशेष यह था कि इतना भटकने के बाद भी मैं प्रथम श्रेणी में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हुआ था। काकी ने तो पूरे बाड़े में ही पेढ़े बांटे थे। नानाजी ने भी दादा को चिट्ठी लिखकर मेरे पास होने की खबर कर दी थी। दादा का भी नानाजी को जवाब आ गया था जिसके अनुसार हमें ये भी पता पड़ा कि माँजी और सुशीला बाई सिवनी में थी। सुशीलाबाई ने भी अपना त्यागपत्र भेज दिया था पर उस पर फैसला जुलाई महीने में स्कूल खुलने के बाद ही होने वाला था। दादा का जरूर भोपाल तबादले का आदेश अभी तक उन्हें नहीं मिला था। कुल मिलाकर इन सब अनिश्चतितताओं के कारण दादा के विवाह की तिथि अभी तय नहीं हो सकी थी।
मेरे स्कूल जरूर जुलाई महीने में शुरू हो गए थे। चौथी कक्षा की पढ़ाई भी शुरू हो गयी थी। नानाजी की, काकी की और मेरी दिनचर्या भी नियमित थी। उस दिन रविवार का अवकाश था और दिनभर से हम सब बाड़े के बच्चे बरामदे में ही खेल रहे थे। हममें से एक के पास व्यापार का खेल था और वहीं खेल होने के कारण शोरगुल ज्यादा नहीं था। व्यापार का खेल दोपहर बाद ख़त्म हुआ और शाम को फिर से राम मंदिर बरामदे में सब वापस मिलने का कह कर अपने अपने घर गए। वैसे अब मैं थोड़ा बड़ा हो गया था इसलिए काकी ने मेरी ओर ध्यान देना भी थोड़ा कम कर दिया था। उस दिन सुबह से ही काकी की तबियत कुछ ठीक नहीं थी। उम्र की कमजोरी अलग थी। शाम को बरामदे में जाने के पहले काकी से मैं बरामदे में आने का कह कर भी आया था। झूले पर बैठे सब बच्चे रामरक्षा का पाठ कर चुके थे और अब जैसे सब में कविताएं सुनाने का जोश आ गया था। बादल तो वैसे सुबह से ही छाए हुए थे पर अब अचानक बिजली कड़कने लगी। हमने आंगन में से देखा आकाश में इंद्रधनुष दिखाई दे रहा था। हमें बड़ा आनंद आ रहा था। अचानक मैंने देखा काकी लीला मौसी के कंधे पर हाथ रख कर धीरे धीरे आंगन में आ रही थी। बरामदे में आकर वे तख़्त पर बैठ गयी और लीला मौसी को बोली, ‘लीला, मुझे थोड़ा पानी ला कर दे और दामादजी को बुला ला।’ लीला मौसी ने काकी को पानी ला कर दिया। पानी पीने के बाद काकी ने मुझे अपने पास बुलाय। मेरे साथ सब बच्चें भी अब काकी के पास आ गए। मैं काकी के पास तख़्त पर बैठ गया। काकी से बैठा नहीं जा रहा था। उन्हें खासी आयी। उनकी खांसी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी ही देर में नानाजी भी आगए।
अब तेज आंधी और हवा शुरू हो गयी थी। तेज बारिश के भी आसार नजर आ रहे थे। काकी नानाजी से बोली, ‘दामादजी ऐसा लगता है कि अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा है। रामजी मुझे किसी भी वक्त बुलावा भेज सकते है। आपके बाल्याजी का आप ध्यान रखे। नहीं, वैसे आपने उसे सम्हालने का मुझे वचन दिया ही है पर फिर भी एक बार और आपके ध्यान में लाना चाहती हूं।
“काकी, आप अंदर जाकर आराम करे। किसी भी तरह की चिंता बिलकुल न करें। मैं तुरंत डॉक्टर को बुला कर लाता हूं। ‘काकी की हालत देख कर नानाजी ने कहां।
‘अब डॉक्टर की जरुरत नहीं है। मुझे तो आपके आभार ही मानना है। इतने वर्ष मुझे आपने सम्हाला। आवडे के होते हुए भी और उसके इस संसार को छोड़ कर जाने के बाद भी। सच तो यह है कि बेटी की मृत्यु के बाद उसकी ससुराल में रहने की जरुरत ही क्या थी? पर आपने मुझे आश्रय दिया। अपने जने बच्चें आजकल नहीं पूछते पर आपने हमेशा मेरी अपनत्व से देखभाल की। ऐसे उदाहरण कहीं भी देखने को नहीं मिलेंगे।’ बोलते-बोलते काकी की सांस फूल गयी। नानाजी लीला मौसी को बोले, तू यही ठहर, मैं डॉक्टर को बुलाकर लाता हूं।’
अब बारिश शुरू हो चुकी थी। नानाजी डॉक्टर को बुलाने निकल गए। मै और लीला मौसी काकी के पास ही बैठे रहे। काकी मुझे बोली, अब मैं क्या कह रही हूं वह ध्यान से सुनों। अपनी नयी माँ को तुम बिलकुल भी तकलीफ नहीं देना।’ मुझे यह समझ में ही नहीं आया कि काकी को सुशीलाबाई की इतनी चिंता क्यों कर है? मैंने सिर्फ अपनी गर्दन हिला दी। बारिश अब थोड़ी थम सी गयी थी। बारिश थमते ही सब बच्चें अपने अपने घर चले गए। हवा में थोड़ी ठंडक बढ़ गयी थी यह देख कर लीला मौसी काकी से बोली, ‘काकी ठंडी हवा चल रही है। तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है। ऐसे में खुले में रहना ठीक नहीं है। तुम्हे कमरे में छोड़ देती हूं।’
‘अरी रहने दे मुझे तख़्त पर। मेरा जो कुछ भी होना है अब मेरे रामजी के सामने ही होने दे। ‘फिर काकी मुझसे बोली, ‘बेटा मेरे कमरे से मुझे मेरी माला ला दे।’ मैं दौड़ कर काकी के कमरे में माला लेने गया। बिजली भी चली गयी थी और अँधेरे के कारण मुझे माला ढूंढने में थोड़ा समय लगा। अब तक बारिश ने फिर से जोर पकड़ लिया था। आंगन में तालाब सा बन गया था। मैंने कुछ देर बारिश कम होने का इन्तजार किया। पर बारिश कम नहीं हुई। आखिर वैसे ही भिगते हुए मैं राममंदिर के बरामदे में आया। काकी तख़्त पर शांत सोई हुई थी। पंतजी, नानाजी, माई , डॉक्टर और लीला मौसी काकी को चारों ओर से घेर कर खड़े थे। डॉक्टर नानाजी से कह रहे थे, ‘बड़ी देर कर दी आपने मुझे बुलाने में…….. ।’
मेरी ओर किसी का ही ध्यान नहीं था। माला लिए थोड़ी देर वैसे ही मैं भीगा हुआ खड़ा रहा। अचानक लीला मौसी का ध्यान मेरी ओर गया। मैंने देखा उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे। लीला मौसी ने मुझे अपने सीने से लगा लिया और बोली, ‘काकी हम सब को छोड़ गयी रे!’ एक पल के लिए मैं स्तब्ध रह गया। अभी तक काकी के बिना मैं अपने अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकता था और अभी अभी अचानक मुझे उसके न होने के एहसास ने मेरे मन में एक डर सा समा दिया था। हालांकि अब मैं बड़ा हो गया था और मृत्यु का अर्थ समझता था। मेरी माँ, मेरी माँ की माँ, और अब मेरी माँ की माँ की माँ ये सब इस दुनियां में नहीं थे। और सब बताते है कि मरना मतलब इस दुनियां से जाना। पर सब जाते कहाँ है? मेरे सामने यह सवाल था ही जिसका जवाब मुझे अभी तक किसी से भी नहीं मिल पाया था। पर काकी के जाने से भविष्य में मेरे जीवन में कोई फर्क पड़ने वाला है क्या यह निश्चित रूप से मुझे आज समझ में नहीं आ रहा था। पर इस बार काकी के न होने के एहसास की पीड़ा के कारण मुझे जोर से रोना आ गया। इस बार नानाजी ने मुझे अपने पास लिया। अपने सीने लगाया। उन्होंने अपनी धोती से मेरे आंसू पोछे। ना जाने इस दु:ख भरे माहौल में अचानक नानाजी के मुंह से यह बोल कैसे बाहर निकल पड़े, मत रो। मैं हूं ना!’ मेरे आंसू पोछने के लिए काकी का आंचल मैं हमेशा के लिए खो बैठा था। पर नानाजी के,’ मैं हूं ना’ ये बोल मुझे बहुत कुछ कह गए।
काकी को तुरंत ही ले जाने के लिए भागदौड़ शुरू हो गयी थी। उनका एक ही भतीजा था। किरायेदार खोले को उसे तुरंत खबर करने को रवाना किया गया। मुझे छोड़ दिया जाय तो वैसे काकी के लिए ज्यादा रोने वाला भी कोई नहीं था। और मैं भी कितनी देर रो सकता था?

काकी के जाने से मेरे जीवन में रिक्तता सी आ गयी थी। काकी के कारण ही मुझे महत्व भी मिला था। उन्ही के कारण थोड़ा बहुत ही क्यों ना हो सब मेरा ख़याल करते थे। अब मुझे अपनी उपेक्षा होने का एक डर सा सताने लगा। मन में एक असुरक्षा की भावना मन में समा गयी।
वैसे तो पिछले कई दिनों से नानाजी के कमरें में ही मैं डेरा जमाए हुए था। नानाजी सुबह जल्द ही स्कूल चले जाते और मेरा स्कूल दोपहर का था। नानाजी दोपहर तीन बजे के बाद विद्यार्थियों को पढ़ाने निकल जाते और दियाबाती के बाद ही आते। हमारी भेंट रात के खाने पर ही होती। पंतजी के बीमार रहने से माई का ज्यादातर समय उनकी देखभाल में ही जाता, इसलिए रसोई का सारा काम अब लीला मौसी पर आन पड़ा था। नानाजी के ऊपर भी अब सारे घर की जिम्मेदारी आन पड़ी थी।
मैं भी बड़ा होने लगा था। मेरी भी जरूरतें जन्म लेने लगी थी। रुपयों की जरुरत और महत्त्व समझने समझने लगा था। सोनू से मेरी मित्रता बढ़ गयी थी। सिर्फ रुपयों से ही सब चीजें मिल सकती है यह मुझे समझ में आ गया था। मेरे मित्र सोनू को खुले हाथ से खर्च करता देख रुपयों की मेरी इच्छा भी बलवती होती जा रही थी। पर मेरे पास कोई साधन नहीं था। मुझे कौन रुपये देता? नानाजी तो मेरे लाड निश्चित ही पूरे करने वाले नहीं थे। काकी के गुजर जाने के बाद मेरे मन में जो रिक्तता उत्पन्न हुई थी वह किरायेदार भाभी ने पूरी करने की फिरसे कोशिश शुरू की। इसमें उनका अपना क्या स्वार्थ था वे ही जाने? वें मुझसे आत्मीयता से बातें करने लगी। मेरी चिंता करने लगी। मुझसे सहानुभति प्रगट करने लगी। सबके सामनें मैं बिन माँ का हूं इसका बार-बार उल्लेख करती और मेरी खूब तारीफ़ भी करती। इस तरह मैं अपनी रोजमर्रा की छोटीबड़ी जरूरतों के लिए उनकी और आकर्षित होता चला गया। उनके मेरे प्रति व्यवहार से वें मुझे बहुत नजदीक की लगने लगी। कभी कभार वें मुझे खाने के लिए भी देने लगी और कभी कभार एक दो पैसे भी देने लगी। इन पैसे से मैं बाहर कुछ लेकर खाने लगा। इन सब का असर यह हुआ कि उन्होंने मुझसे उनके छोटेबड़े काम फिर से लेने भी शुरू कर दिए। रविवार के दिन नानाजी मेरी पूछताछ कर लेते या मेरी पढ़ाई के बारे में पूछतें।
मेरे शरदमामा को मेरा यहाँ रहना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था। उसकी लड़कपन की उम्र भी थी। उसके विचार में मैं उनके परिवार पर एक अनचाहा बोझ बन गया था और नानाजी को तुरंत मेरी रवानगी वापस मेरे पिता के यहां कर देनी चाहिए थी। पर नानाजी के सामने उसकी एक भी नहीं चलती और इस कारण वह मुझसे नफरत करने लगा। मुझे छोटा समझ कर नानाजी अगर उसे मेरे लिए कोई काम कहते तो वह करता ही नहीं बल्कि मुझे सताने का और परेशान करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता। मेरी स्थिति ऐसी थी कि मैं शरद मामा की शिकायत किसी से भी नहीं कर सकता था। नौवीं कक्षा में दो बार फेल हो चुका शरद मामा दसवीं की परीक्षा में भी दो बार फेल होने के बाद अब तीसरी बार दसवीं की परीक्षा देने वाला था। दिन भर अपने बदनाम शरारती दोस्तों के साथ शरारत के शरद मामा के किस्से घर में रोज सुनाई देतें इसीलिए नानाजी उससे बहुत नाराज रहते।
शरद मामा को किरायेदार भाभी के कहने पर मेरा काम करना कतई पसंद नहीं था। इस कारण वह मुझें हमेशा डांटता भी रहता। पर किराएदार भाभी मेरी जरूरतें पूरी करती थी और सबसे महत्वपूर्ण यह था कि उनका मुझे एक आधार महसूस होने लगा था इसलिए मैं शरदमामा का कहां अनसुना करता। फिर वो ज्यादा ही मुझे सताता और मुझे बुरा भला भी कहने लगा। अगर उस के काम में कोई चूक हो तो मुझे मार भी खानी पड़ती। पर किसे बताता?

काकी के मुंह से मैं हमेशा सुना करता था, ‘संगति संगते दोषयति’ संगत का असर ही कुछ प्रभावी होता है। सोनू की संगत में रहते मेरी भी आदतें खराब होती गयी। सिगरेट बीड़ी तो मैं उज्जैन में दो चार बार पी ही चुका था। यहां किराएदार भाभी कभी कभार मुझे एक दो पैसे देने भी लगी थी और लालच में मैं उनके बताए सारे काम जल्द से जल्द पूरे करता। अब जीवन में इस उम्र का एक ही ध्येय रह गया था सोनू के साथ रहना। ज्यादा से ज्यादा मजे करना। घर में बिना बताए सोनू के साथ एक दो बार मैं सिनेमा भी देख आया।
नानाजी को तो मेरी ओर देखने की फुर्सत ही नहीं मिलती। एक ही खटिया पर हम सोते। मै जल्दी सो जाता और नानाजी सोने के पहिले रोज रामरक्षा स्त्रोत का पाठ करते। कभी कभी मुझे नींद नहीं आती तो मुझे भी सुनाई देता। वैसे मुझे तो रामरक्षा स्त्रोत याद ही था। पर इधर आजकल मुझे सिनेमा के गानों ने घेर रखा था। मैं कोई तानसेन तो नहीं था पर मुंह से दो चार गाने अनायास बाहर निकल ही आते थे। एक बार इसी कारण मुझे नानाजी की मार भी खानी पड़ी। रात में सोने के पहिले नानाजी का जोर से रामरक्षा स्त्रोत कहना जारी था। संस्कृत में चार चौपाईयां और पूरे पैतीस श्लोक कहने में पंद्रह मिनिट से ज्यादा ही लगते। नानाजी को अगर बीच में खांसी आ गयी तो समझ लो थोड़ा और समय लगना तय है। उस दिन भी ऐसे ही हुआ था। नानाजी को बार बार खांसी आ रही थी और उनके रामरक्षा स्त्रोत के कहने में बार-बार रूकावट आ रही थी। उसी समय न जाने मुझे क्या हुआ मैं अपनी सनक में ‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुप्पट्टा मल मल का’ इस गाने का मुखड़ा जोर जोर से गाने लगा।
एक तो खांसी और दूसरा मेरा जोर से गाना। नानाजी को बहुत गुस्सा आया। नानाजी का जितना गुस्सा खराब उतनी ही भयंकर मार भी खराब। उन्होंने सीधे मेरा हाथ पकड़ा और मुझे खड़ा किया और मेरे गाल पर दो चांटे जड़ दिए और बोले, मैं रामरक्षा कह रहा हूं और तुम किसी गंदे सिनेमा का गंदा गाना जोर जोर से गए रहे हो। शर्म नहीं आती तुमको? इस उम्र में कहां से सीखा यह गंदा गाना?’ बहुत दिनों बाद नानाजी ने मुझे मारा था। पर क्या आश्चर्य मुझे चोट जरूर लगी पर मुझे रोना नहीं आया। पहली बार मुझे नानाजी पर बहुत गुस्सा आया। मैंने नानाजी की ओर देखा। उनका रामरक्षा स्त्रोत कहना खंडित हो गया था और वे भी अपना आपा खो चुके थे। मुझे अपनी ओर देख उन्हें और ही गुस्सा आ गया। अब उन्होंने मेरी पीठ पर धौल जमाने शरु कर दिए। मेरी जोर से चिल्लाने की इच्छा हो रही थी। जोर से चिल्लाकर मैं नानाजी को यह बताना चाहता था कि अब मैं बड़ा हो गया हूं और मैं भी प्रतिकार कर सकता हूं। नानाजी का तो मारने का तरीका ही यह था कि वे बेदम मारते ही जाते थे। थोड़ी देर बाद नानाजी शांत हो गए। मैं भी खाट पर लेट गया। नानाजी ने फिर से पूरी रामरक्षा का पाठ किया।
नानाजी सो गए पर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मेरे मन में एक आक्रोश था। नानाजी ने मन की सारी चिड़चिडाहट और सब के हिस्से का गुस्सा मेरे ऊपर निकाला। पर मैं अपना गुस्सा किसके ऊपर निकालता? नानाजी की रामरक्षा पाठ में विघ्न हुआ इसलिए उन्होंने मुझे बेदम मारा पर इन्ही नानाजी के रामजी ने नानाजी की पूरी जिंदगी ही खंडित कर रखी है उसका क्या? और मेरा क्या? मेरी भी तो जिंदगी अधूरी ही है। इन रामजी का झमेला तो समझ के परे हो गया है। इन्हीं रामजी के लिए नानाजी ने मुझे बेदम मारा? इसका क्या मतलब है? मेरी इच्छा हुई नानाजी से पूछूं कि जिन रामजी ने आपकी जिंदगी बर्बाद कर दी उसके लिए इतनी भक्ति? एक भोले भाले गणित के मास्टर के लिए उसकी जिंदगी का गणित ही रामजी इतना कठिन कर के छोड़े कि तमाम उम्र वह उसे हल ही ना कर पाए? यह तो आश्चर्य जनक ही कहलाएगा। वैसे भी इस घर के मंदिर में रखे हुए पत्थरों के कारण हाडमांस के जीवित आदमियों की कोई कीमत ही नहीं रह गयी थी। सब का भावविश्व पत्थरों में सिमट कर मानो जड़वत हो गया हो। ना हिलने वाले, ना डुलने वाले, ना चलने वाले, और ना ही सरकने वाले। स्थितप्रज्ञ। मुझे इन सब के रामजी पर बड़ा गुस्सा आ रहा था। न दिखने वाला ईश्वर बड़ा या सामने दिखाई दे रहा है उस इंसान का अस्तित्व बड़ा? कब इस घर के सब लोगों को यह समझ में आएगा? पर मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था और मैं कुछ कर भी नहीं सकता था। मुझे इन सब परिस्थितयों पर सिर्फ क्रोध आ रहा था और अपना गुस्सा भी मुझे वही दबाना भी था।
मैं इस घर के आराध्य रामजी से कितना गुस्सा था इसकी भनक तक किसी को नहीं थी। और मजा देखिएं इन्ही काकी के और नानाजी के रामजी की दूसरे दिन सुबह ही मुझे नहा धोकर रेशमी वस्त्रों में विधिवत पूजा ही करनी पड़ी। मेरा उपनयन संस्कार होने के कारण और मेरा स्कूल भी दोपहर का होने के कारण मुझे यह काम दिया गया। हुआ ये कि, सूर्योदय होते ही सुबह सुबह सबको दर्शन देने वाले और पूरी श्रद्धा भक्ति से रामजी की पूजा रोज करने वाले किराएदार खोले उस दिन किसी को दिखे ही नहीं थे। सुबह सुबह उठ कर जो भी रामजी के दर्शन करने मंदिर में जाता वो रामजी को बिना स्नान किए देख कर दर्शन करने और वक्रतुण्ड कहने में अटक रहा था। किराएदार खोले एक दिन पहले ही माई को एक दिन के लिए बाहर जाने का बोल कर गए थे पर माई यह बात भूल गयी। नानाजी का स्कूल सुबह होने से वे भी निकल गए थे। जाते जाते वे लीला मौसी को बोल गए थे की आज मंदिर में पूजा मुझसे करवाले।
लीला मौसी ने मुझे सुबह सुबह ही जगाया।
‘उठो जल्दी।’ मेरी पीठ पर जोर से धौल जमाते हुए वह बोली। मैं घबरा कर उठ बैठा। रात में सोने के पहले नानाजी के हाथों से मेरा उद्धार हो चुका था अब यह लीला मौसी। आज फिर शुरुवात मार खाने से? इसका क्या मतलब?
‘कितना जोर से मार दिया? क्या हुआ?’ मुझे भी गुस्सा आ गया।
‘चलो उठो। नहा लो जल्दी। आज तुम्हें करनी है पूजा।’ लीला मौसी बोली।
मुझे?’ मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।
‘हाँ तुम्हे। जल्दी नीचे आओ और जल्दी नहा लो।’
चाय नहीं, दूध नहीं या नाश्ता नहीं। ये सब इस घर के नियमों में ही नहीं थे। आंगन में ही नल के नीचे लीला मौसी ने मेरे सर पर से दो बाल्टी पानी डाल दिया। जैसे तैसे नहा कर भीगे बदन से ही मंदिर में आया। मेरे सामने सबसे बड़ा संकट रेशमी धोती पहनने का था। वो मुझसे पहनते भी नहीं बन रही थी और सम्हाले सम्हल भी नहीं रही थी। उतने में माई मंदिर में आयी।
‘हो गया क्या नहाना?’ माई ने पूछा।
मैंने सिर्फ गर्दन हिला दी। माई का तो मुझे हमेशा से ही डर लगता रहा।वे नानाजी को ‘सोन्या’ नाम से बुलाती और आज भी उन्हें डांटती थी। आखिर नानाजी की माँ थी। उनके सामने मेरी क्या बिसात? मेरे बाल गीले थे। बदन भी ठीक से पोछा नहीं था। तौलिये से बदन पोछने का यहां कोई रिवाज ही नहीं था। वो उज्जैन में था या बुरहानपुर में। माई को मेरी रेशमी धोती पहनने की दिक्कत शायद समझ में आ गयी। जैसे तैसे उन्होंने आधी मुझे लपेट दी और आधी मेरे कंधे पर डाल दी। ‘धीरे धीरे सब जमेगा। अब बैठो पटे पर ‘माई बोली।
राम मंदिर में ओटला थोड़ा ऊंचा था। जैसे तैसे खुद को और रेशमी धोती को सम्हालता मैं पटे पर बैठ गया। मेरे सामने अब गेरुए रंग से पुते पत्थर के बजरंग बली की दो की फीट ऊंची मूर्ति रखी थी। हम दोनों के बीच में तीन फीट खुली जगह थी। ऊपर तीन तीन फीट की चार सीढ़ियां बनी थी। सबसे ऊपर की सीढ़ी पर राम लक्ष्मण और सीता की दो दो फीट की जयपुरी संगमरमरकी खड़ी मूर्तियां थी। लाल सुनहरी पोषाख में ये मूर्तियां आकर्षक लगती थी। बीच की सीढ़ियों पर इस कुनबे के पीढ़िजात पर मेरे लिए अनजाने, अनेक देवी देवता विराजमान थे। चांदी के पत्रे के अनेक अलग अलग टांक थे। कई नदियों से कई लोगों द्वारा इक्कठे किए हुए बहुत सारे गोल-गोल चिकने पत्थर महादेव के प्रतिक के रूप में विराजमान थे। कुछ छोटे-छोटे पीतल के पलनों में, इस घराने की बहुओं के द्वारा बिदाई के समय अपने मायके से लाए हुए कृष्ण भगवान विराजमान थे। इसके अलावा चारों ओर कई देवी देवता और कुछ पुरखें तस्वीरों में दीवारों पर टंगे थे। इन सब की मुझे श्रद्धा भक्ति पूर्वक मनोभाव से नहलाकर, पोछ कर, चन्दन तिलक लगाकर, पुष्प अर्पित कर विधी पूर्वक पूजा करनी थी। और इसके बाद आरती और भोग अलग। किराएदार खोले को पूजा करने में तीन घंटे से ज्यादा लगते। पूरी श्रद्धा के साथ वे रोज पूजा करते। बस उनके मकान का भाड़ा पूजा के मेहनताने के रूप में मान लिया जाता।
लीला मौसी ने मेरे लिए पूजा की तैयारी पाहले से ही कर रखी थी। आखिर माई से तो वो भी डरती ही थी। दादी का खौफ आज भी कायम था। पर वो रामजी की पूजा नहीं कर सकती थी। मुझे तो हैरानी होती है कि इस घर में स्त्रियों को पूजा करने की इजाजत ही नहीं थी। उनके रामजी को पूजा की तैयारी और स्त्रियों द्वारा भोग के लिए बनाई रसोई चलती पर वो भगवान् को नहला नहीं सकती थी, पूजा और आरती भी नहीं कर सकती थी। आश्चर्य है काकी ने भी इस बारे में कभी नहीं सोचा और नाही माई ने कभी इस बारे में सोचा? और मेरे सोचने का महत्व ही क्या था?
अब सबसे ज्यादा परेशानी मुझे चंदन घिसने में आ रही थी। सारी तैयारी थी सिर्फ तैयार चन्दन ही नहीं था। बगल में पत्थर का चकला रखा था और चन्दन का खोड़ (लकड़ी) भी रखा था। पानी से भरा ताम्बे का लोटा भी रखा था। मेरे सर के ऊपर खूंटी पर कपडा भी लटका था। माई आज मुझसे व्यवस्थित विधिवत पूजा करवाने की मानों ठान कर ही आयी थी। वे जमीन पर पटा बिछाकर बैठ गयी।
‘राम !राम!! राम ! रोज देर से उठना, रोज नहाना नहीं, संध्या भी नहीं। ऐसा कैसा तू जनेऊधारी ब्राह्मण बटुक ? दिन भर मटरगश्ती करते रहते हो? मैंने ही कहाँ सोन्या से कि तुम्हें अब विधिवत पूजा करना सिखाना चाहिए।’ माई बोली।
मैं कुछ भी नहीं बोला। पर मुझे पूजा करने की कतई इच्छा ही नहीं थी। जिस रामजी ने मेरी माँ को, मेरी माँ की माँ को और उसकी भी माँ को भी अपने पास बुला लिया उसकी पूजा मैं क्यों करू? और नानाजी को भी तो उसने अकेला कर दिया। मैं भी तो आश्रित हो गया यहां। ऊपर से अब सुशीलाबाई को मेरी माँ बनाने का षड्यंत्र रच रहा है? फिर भी इन रामजी को सब आराध्य माने? मुझे दिया काम अस्वीकार करना मेरे लिए संभव ही नहीं था। इस घर में और इस मंदिर में भी मेरा ऐसा कुछ भी नहीं था। मैं तो इस घर में आश्रित ही था और मैं ही क्या माई से तो इस बाड़े में ही सब घबराते थे।
‘हां, सबसे पहले चन्दन तैयार करो। वो पत्थर का चकला तुम्हारे बगल में ही रखा है। वहीं चन्दन का खोड रखा है।’ माई बोली। वैसे हम सब बच्चें रोज इस मंदिर के दालान में खेलते ही थे इसलिए मुझे सारी चीजें कहां कहां रखी है यह सब मालूम था। मैंने पत्थर का चकला अपने सामने रखा।
‘हा अब पली (चम्मच) से थोड़ा थोड़ा पानी चकले पर डालों और उसे चंदन की खोड से घिसो। थोड़ी देर में ही चंदन तैयार हो जाएगा।’ माई मुझे समझाने लगी।
यह मुझे मालूम था। काकी को मैंने कई बार चंदन तैयार करते देखा था। पर प्रत्यक्ष रूप में तैयार करने का अवसर आज ही आया था। मैंने चंदन घिसना शुरू किया। चंदन घिसते-घिसते मुझे काकी की याद आई। सच तो यह है कि रामजी से मेरा परिचय उनके कारण ही हुआ था। रामजी मानों उनके सबसे नजदीक के कोई थे। हमेशा उनसे बाते करती रहती। उनसे झगड़ती भी थी और शिकायत भी करती। उनसे माफ़ी भी मांगती और उनके उपकार भी मानती और उनका आभार भी प्रगट करती। पर न कभी काकी थकी ना कभी सुन-सुन के उनके रामजी थके। आज पहली बार काकी की उनके रामजी से अप्रत्यक्ष संवाद करने की कला मानों अनजाने ही अपने आप मेरे अंदर समा गयी।
‘क्यों ले गया तू मेरी काकी और मेरी माँ को?’ मैंने संगमरमरी रामजी से मन ही मन सीधे सवाल किया। काकी के पत्थर के रामजी से यह मेरा पहला ही संवाद था। पर क्या आश्चर्य चंदन घिसते-घिसते मेरी आँखों से दो आंसू टपक कर चकले पर गिर पड़े। मुझे काकी की याद असहनीय हो गयी थी। अगर आज काकी जीवित होती तो मुझे उनके रामजी की यूं विधिवत पूजा करते देख उन्हें बहुत प्रसन्नता होती। मेरी कितनी तारीफ़ करती। पर अब क्या? मुझे यह रामजी की पूजा एक काम समझ कर दिया गया है। इसलिए अब जीवन भर शायद बिना तारीफ़ के ही गुजारा करना पड़े।
‘रोने को क्या हुआ?’ माईने चकले पर टपके मेरे आंसू देख लिए। वें चिल्लाई, ‘अब धो फिर से वो चकला एक बार। जरा सा कुछ काम कहो तो रोना आ जाता है। खाना खाते वक्त नही निकलते आंसू? काकी ने बिगाड कर रखा है तुम्हे। खुद तो चली गयी उपर और हमारे लिए मुसिबत छोड गई
मैने चकला धोया और फिर से चंदन घिसने लगा। थोडी देर बाद माई फिर से जोर से बोली, ‘जोर लगाओं…. मुए के हाथो में बिलकुल भी जोर नही है।’ इतना कह कर वें वही से चिल्लायी, ‘लीले…….’ लीला मौसी तुरंत आई। माई उससे बोली, ‘इसे थोडा चंदन घिस दे। मुझे देर हो रही है। उस शरद का कही पता ही नही रहता। एकाद दिन पूजा कर ही ले तो उसका कुछ बिगड जाएगा क्या? और मै कहती हूं शरद के रोज पूजा करने में भी हर्ज क्या है? दिनभर आवारागर्दी करता घूमता रहता है यह शरद। जवान लडका सिर्फ आवारगी के ही लिए है क्या? सोन्या का बिलकुल भी जोर नही है अपने बेटे पर।’
माई सब का उद्धार किए जा रही थी। लीला मौसी चुपचाप अपना काम कर के कब का जा चुकी थी। पर माई की पकड़ से मेरा छुटकारा नहीं था।
‘तुमसे रामजी समेत सब के सारे कपडे निकाल कर उन्हें नहलाकर फिर से कपडे पहनाना नहीं हो पाएगा। इसलिए तुम गीले कपडे से तीनों के सिर्फ चेहरे पोछ लो।’ माई बोली। बजरंग बली तो मजे में ही थे। सब जगह गेरुए रंग से रंगे होने के कारण नहाने से और कपड़ों से उन्हें कोई लेना देना ही नहीं था। मेरा काम आसान हो गया था। मैंने मन में कहां, ‘धन्यवाद बजरंगबली।’ रामजी के लिए माई ने मेरा काम आसान कर दिया था। किसे मालूम यह समझौता रामजी के लिए था या मेरे लिए इसलिए माई ने जैसा बताया वैसे मैं करता चला गया। ईश्वर आदमी को बेहाल करता है कि आदमी ईश्वर को बेहाल कर के छोड़ता है? मुझसे शायद यह उलझन सुलझने वाली नहीं थी। काकी होती तो शायद मैं उनसे पूछने की हिमंत भी कर लेता। पर माई से पूछना? ना बाबा ना !’
‘अब सब को तरबहना (परात) में रखो।’ माई ने कहां।
मैंने पहले सारे चांदी के टांक तरबहना में रख कर उनके ऊपर पानी डालकर धोकर और पोछ कर उनकों उनकी जगह पर रखा। फिर मैंने महादेव के प्रतीक सारे चिकने गोल सागरगोटे इसी तरह से धो पोछ कर उनकी जगह पर रखे। इसके बाद यहां इस मंदिर में वर्षों से पितल के छोटे पलनों में झूल रहे सारे बालकृष्ण को पलनों समेत धो पोछ कर उनकों वापस जगह पर रखा। कोई बताए मुझे इतने सारे देवी देवताओं का आखिर ये आदमी करता क्या है? और क्यों कर तो चाहिए इतने सारे देवी देवता? सिर्फ मंदिर की शोभा बढ़ाने लिए? किससे पूछे ? माई से तो यह पूछना बेकार ही था। जाने दो। मैंने मन ही मन काकी के आभार माने, ‘अच्छा हुआ काकी तुम्हारे सिर्फ एक ही भगवान रामजी ही थे। नहीं तो तुम पगला जाती और मुझे भी पागल बना कर छोड़ती। ‘
माई के कहे अनुसार मैंने सारी पूजा की विधि सम्पन्न की। हरेक के ऊपर चंदन, तिलक, लगा कर पुष्प और फूलों की पत्तियां रखी। तुलसी के पत्ते रखे। रामजी, लक्ष्मणजी और जानकी मैया के मुंह पोछ कर उनकों चंदन पुष्प अर्पित किए। बजरंगबली को भी चंदन, पुष्प अर्पित किए। आरती के बाद कटोरी में दूध पोहे शकर का नैवेद्य दिखाया। वैसे गणेशजी की आरती, ‘सुखकर्ता दु:खहर्ता’ मुझे याद ही थी इसीसे काम चल गया। मुझे गणेशजी की आरती याद थी इसलिए माई ने शाबासकी नहीं दी और तारीफ़ के कसीदे भी नहीं पढ़े। पर उनकी डांट भी नहीं खानी पड़ी यही समाधान।
‘चलो हो गयी बाबा जैसे तैसे पूजा। अब रसोई तैयार होने के बाद रामजी को भोग लगाने के समय यही रहना। ढूंढने कोई नही जाएगा। रामजी को भोग लगाने के बाद ही स्कूल जाना।’ माई ने कहां। दो घंटे के लगभग पूजा चली। खोले किरायेदार को तो तीन घंटे से ज्यादा समय लगता था। पर उनके काम भी ज्यादा थे।
रेशमी धोती लीला मौसी को दे दी और उसने उसे घड़ी कर खूंटी पर टांग दी। कपडे पहनते समय मुझे दादा की याद आयी। उज्जैन में उन्होंने मुझे कई बार नहलाया था। इतना ही नहीं उन्होंने तो बिना संकोच मेरे कपडे भी धोए थे। कैसे होंगे मेरे दादा? उनकी याद ने मुझे भावुक कर दिया। जब मै पूजा कर रहा था तब माई मुझसे कह रही थी, ‘भगवान को मन से स्नान कराने से पुण्य मिलता है।’ फिर इतना ही पुण्य आदमी को आदमी के नहलाने से मिलता है क्या ? अगर ऐसा है तो फिर सब माओं को तो सबसे ज्यादा पुण्य मिलता होगा? फिर रामजी ने मेरी माँ को पुण्य कमाने का यह अवसर क्यों नहीं दिया? रामजी ही जाने।

शेष पढियें धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ के भाग – ३१ में

परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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