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उपन्यास : मैं था मैं नहीं था : अंतिम भाग- ३१

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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उस दिन स्कूल में सोनू को मैने बडी शान से कहां, ‘आज मैने राम मंदिर में पूजा की।’
‘क्यों? उस घर के सब बडे कहां गए?’ सोनू ने पूछा। सोनू को भी पता था कि वह घर मेरा नही है।’ कितने सारे तो भगवान है वहां मंदिर में? तुमने कैसे की होगी पूजा?’ सोनू ने मुझसे पूछा।
‘माई बताती गयी और मै करते गया।’
‘वो बुढीया तो बहुत ही खूंसट है। तू अनाथ उस घर में आश्रित है। तेरे उपर तो बहुत चिल्लायी होगी? है कि नही?’ सोनू के बोलने का तरीका ऐसे ही था और वो बातों-बातों में हमेशा मेरी हालात का मुझे एहसास भी करा ही देता था।
‘नहीं ज्यादा नहीं चिल्लायी मेरे उपर।’
‘ठीक है।मै तेरी जगह होता तो उस खूंसट की एक भी नहीं सुनता।’
‘तूने नहीं की कभी तेरे घर में भगवान की पूजा?’मैने सोनू से पूछा।
‘अरे हाट! अपने को नहीं कहता कोई ऐसे फालतू काम। इन्ना ही करती है सब कुछ। मेरे को तो सिर्फ खाना पीना और मौज करना मालूम है।’
‘तेरा ठीक है तेरे घर में तुझे कोई भी कुछ भी नही कहता। तेरे पिताजी तो तेरे बहुत लाड भी करते है और तुझे रोज पैसे भी देते है। मेरे दादा तो उज्जैन में रहते है। और होते भी तो वें मुझे इस तरह रोज पैसे नही देते। फिर मै क्या कर सकता हूं।’
‘पर एखाद बार तू भी तो तेरे नाना से पैसे मांग कर ला सकता है।’
‘उनसे ही क्या पर मुझे तो वहां सब से ही डर लगता है।’ मैने कहां।
‘डरपोक है रे डरपोक। तू तो पूरा डरपोक ही निकला। घंटी बज गयी चलो कक्षा में चलते है।’ सोनू बोला।
वैसे सोनू मेरे बारे में सब कुछ जानता था फिर भी वो मुझे चिढाने का एक भी मौका नही छोडता था। पर इस बार मुझे उसका बार बार डरपोक कहना कतई अच्छा नही लगा। मै अपने आप को अपमानित महसूस कर रहा था। मै अब चौथी कक्षा में आ गया था। बडा भी हो गया था। किसी से भी डरने का कोई कारण ही नहीं था। पर मेरे हालात की अपेक्षा मुझे नानाजी और उस घर के सभी लोगों के हालात की जानकारी अच्छे से थी। काकी मुझे परिस्थितीयों से मिलकर रहने की सीख दे गयी थी। मुझे जल्दी बडा और सयाना भी होना था। इसके अलावा थोडे ही दिनों बाद मै मेरे दादा के पास जाने वाला था। यही एक उम्मीद मुझे हमेशा सम्हल कर और सतर्क रहने को प्रेरित करती थी।
पर इस के बाद सोनू किसी न किसी कारण से पैसों के लिए मुझे अपमानित भी करने लगा। एक दिन बाड़े पर रीगल टॉकीज में हम दोनों ने सुबह नौ बजे एक पुराना सिनेमा संत तुलसीदास देखा। सिनेमा ख़त्म होने के बाद हमने एक एक समोसा खाया। सारा खर्च सोनू ने ही किया था। इसके बाद हम थोड़ी देर पार्क में बैठे रहे।
‘आज का ये सिनेमा और समोसे का सारा खर्चा तुम्हारी ओर से। मतलब आठ आने के दो टिकिट और एक-एक आने के दो समोसे। इस तरह मैंने खर्च किए दस आने तुम्हारे ऊपर उधार रहे।’ पार्क में सोनू मुझसे बोला।
सोनू के अचानक मेरे नाम उधारी कहने से मैं हैरान हुआ, ‘अरे……. पर ऐसा तो अपना कुछ तय ही नहीं हुआ था?’
‘पर मैं रोज-रोज कितना और क्यों कर खर्च करू? मेरे बाबा कहते है कि तुम्हें भी तो बराबरी से खर्च करना चाहिए। इसीको तो दोस्ती कहते है ना? वो कुछ नहीं तुम्हारा तुम देखों। आज के पैसे तुम्हे देना मतलब देना है। नहीं तो अपनी कुट्टी।’
‘मैं कहां से लाउ रे पैसे?’
‘वो मैं नहीं जानता। पर एखाद बार तुमको भी तो खर्चा करना चाहिए। अब कैसे करोगे वो तुम्हारा तुम देखो।’
‘अरे, पर मेरे लिए यह संभव ही नहीं है।’
‘तो फिर क्या रोज मुफ्त का ही खाओगे?’
अब मुझे सोनू पर गुस्सा आगया। मैं नियमित रूप से गृहपाठ में उसकी मदत करता था और ये सोचता था कि इसीलिए सोनू मेरे से पैसों की अपेक्षा नहीं रखता। पर उसके लिए तो पढ़ाई का भी महत्व नहीं था। मैं सीधा उठकर खड़ा हुआ और बिना कुछ बोले सीधे घर आ गया। आगे दो दिन सोनू से मैंने बात ही नहीं की। पर तीसरे दिन सोनू ही बीच के अवकाश में मेरे पास आया।
‘आज स्कूल छूटने के बाद साथ ही बाड़े पर पार्क में चलेंगे।’ सोनू मुझसे बोला।
‘नहीं। फिर से तुम्हारी उधारी नहीं चाहिए मुझे।’ मेरे मन में अभी भी गुस्सा था।
‘उधारी तो रहने ही वाली है। पर वो कैसे चुकानी है उसका अपन कोई रास्ता ढूढेंगे।’
‘मतलब?’
‘वहीं पर बताऊंगा। चलोगे ना?’
‘ठीक है।’ मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। पर सोनू को मैं मना नहीं कर सका। सोनू का इतना आकर्षण इतना खिचाव भी था उन क्षणों का और उसकी दोस्ती का।
शाम को बाड़े पर हमने फिर से एक-एक समोसा खाया। पैसे सोनू ने ही दिए। इसके बाद बर्फ का गोला भी खाया। ये दो पैसे भी सोनू ने ही दिए। इसके बाद बहुत देर तक मैं सोनू के साथ उसके घर खेलता रहा। दियाबाती के समय मैं घर जाने को हुआ तो सोनू बोला, ‘ये देख तू घर में ढूंढ। कई बार घर का कोई इधर-उधर पैसे रख देता है। वो तेरे को दिख ही जाएंगे। इन्ना के पैसे तो मुझे हमेशा इधर-उधर रखे हुए ही मिलते है। तू ऐसे पैसे ला सका तो तू मेरी भी उधारी चुका सकता है।’
अब सोनू एक नया बोझा मेरे सर पर रख कर अलग हो गया था। पर मैं भी उसी दिशा में सोचने लगा था। और मुझे जल्द ही अवसर भी मिल गया। रसोईघर में रखे जाली के छोटे से कपाट में माई को मैंने कभी कभार रुपये रखते देखा था। उस दिन समय देख कर, कपाट में रखी माई की पांच रुपये की नोट चुपचाप मैंने अपनी जेब में रख ली।
दूसरे दिन से तो हमारी अलग ही मौज मस्ती शुरू हो गयी। स्कूल में न जाकर हम इधर उधर मटरगश्ती करने लगे। मनमर्जी का खाने लगे। रीगल टॉकीज में सुबह नौ बजे वाला एक सिनेमा भी देख लिया। दो दिन हो गए थे। पर किसी को कुछ भी पता नहीं चल सका था। शायद माई भी पैसे रख कर भूल गयी थी। तीन दिन के बाद भी सिर्फ एक ही रूपया खर्च हो सका था। चार रुपये बचे थे। चौथे दिन शाम को बाड़े के पार्क में मेरा और सोनू का झगड़ा हो गया।
‘ये देख तू मुझे अब एक रूपया दे दे। जिससे तेरी उधारी भी चुकता हो जाएगी।’ सोनू बोला।
‘क्यों? तीन दिन से मैं ही तो सब खर्च कर रहा हूं।’
‘चोरी के रुपयों से?’
‘तू भी तो इन्ना के पैसे चुराता है?’
‘वो तो मेरी माँ है। पर तूने तो उस खूंसट बुढियां माई के पैसे चुराए है।’
माई का नाम आते ही अब घबराने की बारी मेरी थी। फिर भी सोनू को एक भी रूपया देने को मैं तैयार नहीं था। सोनू ने मुझसे रुपये छीनने की कोशिश की। पर मैं भी जबर था। फिर हम दोनों भिड़ गए। मारामारी हो गयी। देखने वालों ने हमें अलग अलग किया। मैं भागते हुए घर आ गया। सोनू भी मेरे पीछे पीछे भागते हुए आया पर वो राम मंदिर के बरामदे में नानाजी से जाकर टकरा गया।
‘क्या हुआ?’ नानाजी ने पूछा।
‘इसने माई की कपाट में से पांच रुपये चुराए है।’
सोनू जोश में बोल गया और मैं थरथर कांपने लगा। नानाजी ने सोनू को एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया और बोले, ‘चल भाग यहां से।’ सोनू की तो वहां रुकने की हिमंत ही नहीं हुई पर मैं कहां जा सकता था?
‘क्यों रे क्या हुआ है?’ नानाजी ने मुझसे पुछा, ‘लिए है क्या तूने माई के रुपये?’
मुझसे कुछ भी बोला ही नहीं जा रहा था। मैं थरथर कांप ही रहा था। मेरी ख़ामोशी से नानाजी को जो समझना था वें समझ चुके थे। फिर क्या था वहीँ राम मंदिर के बरामदे में रामजी के ही सामने नानाजी ने मेरी अच्छी तरह से धुलाई की। जब तक थक नहीं गए तब तक वे मुझे मारते रहे। उन्हें कौन रोक सकता था? उस दिन खाने के समय भी मुझे किसी ने याद नहीं किया। वैसे ही खटियां पर जाकर लेट गया। हिचकियां लेते लेते मुझे कब नींद आयी और नानाजी भी कब सोए यह मुझे पता ही नहीं चला।
दूसरे दिन सुबह उठा तब तक नानाजी स्कूल निकल गए थे। सब मेरी ओर बड़ी अजीब नजरों से देख रहे थे। अब तक साराकुछ माई को भी पता पड़ चुका था। मुझसे बोली, ‘अरे उस बेचारी काकी का नाम तूने खराब कर दिया। तनिक भी लाज शर्म नही आयी तुझे पैसे चुराते हुए? तेरे घर के क्या कहेंगे? यही कहेंगे ना कि ननिहाल में ज़रा भी ध्यान नहीं रखा तेरा और लड़का बिगड़ गया? उस सोनू की संगत में बिगड़ते जा रहे हो। नहीं अब तुम यहां रहो ही मत। जाओं अपने बाप के घर ताकि हम बंधनों से मुक्त हो सके।’
काकी का नाम आने से मैं व्यथित हो गया। मुझे ऐसा लगा कि काकी जहां कही भी होंगी मेरे इस कृत्य का जवाब वें रामजी से जरूर मांगेगी। मैं ज्यादा ही अपराध बोध से ग्रस्त हो गया। बचे हुए चार रुपये निकाल कर मैंने माई के सामने रख दिए। उनके चरणों पर गिर पड़ा।
‘माई मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी। मुझे माफ़ कर दो। अब ऐसा कभी नहीं करुंगा।’
माई पिघल गयी। मुझसे बोली, ‘आगे से ऐसा नहीं करना। जाओं जल्दी नहा लो। आज भी रामजी की पूजा तुम्हे ही करनी है। थोड़ी देर में मैं भी आती हूं मंदिर में। और देख तू अब बडा हो गया है। समझदार भी है। उस लफंगे सोनू के साथ मत रहा कर। अरे बाबा जल्दी सयाना हो जा उसमें तेरा ही कल्याण है।’

नानाजी की मार खाने, माई से माफ़ी मांगने और माई के मुझे माफ़ करने के बाद भी यह सब यही ख़त्म नहीं हुआ था। नानाजी को मेरे आचरण से बहुत आघात पंहुचा था और उन्होंने इसे मन में रख लिया। उनके खाते एक और असफलता जो जुड़ गयी थी इसलिए वें मुझे माफ़ करने को तैयार ही नहीं थे। वे मुझे बेदम पीट चुके थे पर उनके मन में शायद अभी कुछ और करना बाकि था। काकी के जाने के बाद इस घर में वैसे भी मुझसे ज्यादा कोई बोलता ही नहीं था। इस कारण किसी का मुझसे ना बोलना कोई विषय ही नहीं था। नानाजी मुझें बहुत चाहते थे पर रुपये पैसों की तंगी के चलते वे अपने पिता पर निर्भर थे। नानी के निधन के बाद तो नानाजी की गृहस्थी की लंगड़ी गाडी इस उम्र में भी माई ही खींच रही थी। इन परिस्थितियों में मेरे कृत्य के कारण, माई के सामने नानाजी अपने आप को अपमानित महसूस करने लगे।
राममंदिर में सारे देवी देवताओं की विधिवत पूजा कर मैं स्कूल गया। कक्षा में सोनू ने मेरी और गुस्से से देखा पर मैंने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। वैसे भी मेरी और उसकी मित्रता अब खत्म ही हो गयी थी। पहला घंटा मराठी भाषा का था वह खत्म हुआ। अब दूसरा घंटा गणित का था। गणित के मास्टरजी के हमारी कक्षा में आते ही सब बच्चें खड़े हो गए। पर ये क्या? सब बच्चों ने देखा कि गणित के मास्टरजी के पीछे-पीछे नानाजी भी अंदर आ गए। मैं घबरा गया। मेरे दिल की धड़कने तेज हो गयी। अब नानाजी मेरी कक्षा में क्यों आए है? नानाजी का केवल स्कूल ही में नहीं, गणित के एक वरिष्ठ शिक्षक के रूप में सारा शहर भी बहुत आदर करता था। नानाजी को पीछे-पीछे आता देख हमारे गणित के मास्टर जी को भी बहुत आश्चर्य हुआ।
नानाजी ने मुझे अपने पास बुलाया। मैं चुपचाप जा कर उनके पास खड़ा हो गया। नानाजी ने कक्षा में बोलना शुरू किया और मुझे ऐसा लगा मानों मेरे ऊपर चारों ओर से पत्थर फेंके जा रहे हो और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। कक्षा में नानाजी बोले जा रहे थे, ‘बच्चों, मुझे तुम से आज जो कुछ कहना है वह तुम सब के लिए भी महत्वपूर्ण है। चोरी करना पाप है ऐसा हम कहते है। चोरी करने के बाद उसी समय दंड दिए जाने के बावजूद भी किसी में कोई सुधार होता हो ऐसा मुझे नहीं लगता। ये जो लड़का मेरे साथ खड़ा है इसने अपनी परनानी के कपाट में से पांच रुपये चुराए है। ख़ास तौर से तुम सब को यही बताने के लिए मैं यहाँ आया हूं। कल इसे मैं दंड दे चुका हूं। तुम सब को इसका अपराध पता पड़े इसीलिए मैं ख़ास कर कक्षा में आया हूं। मैं समझता हूं इसके लिए ये दंड भी जरुरी है। मुझे लगता है कि अब आगे से यह अच्छे से रहेगा।’ इतना कहकर नानाजी धीरे-धीरे कक्षा से बाहर चले गए। मेरे समेत कक्षा के सारे बच्चें और हमारे गणित के मास्टर जी, अवाक से नानाजी को धीमे कदमों से बाहर जाता देखते रहे। मुझे तो जोर से रोना ही आ गया। हमारे गणित के मास्टरजी को हमारा रिश्ता मालूम था और वे मुझे भी जानते थे। उनकी नजर में मैं उनका सबसे अच्छा विद्यार्थी था। उन्होंने मुझे अपने गले से लगाया और बोले, ‘मत रो बेटा। मैं तुम्हारे नानाजी के हालात भी समझता हूं। वें बहुत ईमानदार, तत्वनिष्ठ और सीधी राह चलने वाले है। अपने तत्वों की खातिर वे किसी से भी समझौता नहीं कर सकते। तुम्हारा बर्ताव सहन नहीं कर पाए वे। पर तुम उनको सहन कर लो। जाओ जगह पर जाकर बैठो।’
अपने आंसू पोछते हुए मैं अपनी जगह पर आकर बैठा। नानाजी ने जो किया था वह सहन करने के अलावा मेरे पास चारा ही क्या था? मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। नानाजी का मुझे गुस्सा आया पर गलती तो मेरी ही थी। लेकिन उसके लिए इस तरह गांव भर ढिंढोरा? इसका क्या मतलब?
रात को मैं चुपचाप खटियां पर लेट गया। आंखों में नींद नहीं थी। खिड़की में बैठे नानाजी जरूर बीड़ी पर बीड़ी पिए जा रहे थे। बहुत समय खिड़की में बैठने के बावजूद उनका रामरक्षास्त्रोत कहना शुरू नहीं हुआ था। मालूम नहीं किस सोच में थे? देर रात उन्होंने रामरक्षास्त्रोत कहना शुरू किया। मुझे जरूर जनकगंज थाने के ठीक बारा बजे के घंटे सुनाई देने के बाद ही नींद आयी।
सब कुछ सामन्य होने में एक सप्ताह लगा, पर अब मेरा शरदमामा मुझे चिढ़ाने लगा। मेरे को तंग करने लगा। उसका मुझे काम कहना बढ़ गया। उसके मित्र भी मेरी हंसी उड़ाने लगे। सोनू से तो बोलचाल बंद सी थी। सिर्फ किरायेदार भाभी जरूर मुझसे बोलती थी। उनका भी मुझे काम कहना बढ़ गया था। किसी समय मदत के लिए आगे बढे नानाजी के वें हाथ अबके मेरे लिए आगे बढ़ने वाले नहीं थे।
कुछ दिन शांति से गुजर गए। पर उसके बाद एक नया ही झमेला हुआ। किरायेदार भाभी के यहां से सोने की घडी चोरी हो गयी। घडी उनके ऊपर तीसरी मंजिल के कमरें से चोरी गयी थी। उनकी रसोई नीचे और सोने का कमरा ऊपर था। उनके यहां बहुत सारे लोगों का आना जाना था और वें सबको ऊपर कमरें में ही बिठालते थे। पर इतने सारे लोगों में घडी कौन ले गया इसका पता लगाना थोड़ा कठिन ही था, पर शरदमामा ने खोजी टीम का नेतृत्व करने के बहाने बिना खोज किये जोश में और मुझे सताने के लिए सारा इल्जाम मेरे ऊपर ढोल दिया। मेरी उम्र देखते हुए किरायेदार यह बात मानने को तैयार नहीं थे, पर शरदमामा तो मुझे वापस अपने पिता के घर उज्जैन भेजने की ठान चुका था इसलिए वह किरायेदार को मेरे खिलाफ भड़काता रहा। इस कारण असली चोर को ढूंढने का काम भी किरायेदार ने शरदमामा को ही सौप दिया।
हाल ही में बालिग़ हुआ शरदमामा जासूस बन कर जासूसी करने सज्ज हो गया। सबसे पहले उसके आवारा मित्रमण्डली की बैठक हुई। उनमें गंभीर मंत्रणा हुई। सर्वसमंती से सब मेरे ऊपर शंका कर के अलग हो गए। नानाजी से यह पूरी मित्रमंडली डरती थी इसलिए सबने नानाजी सहित घर के किसी को भी उनकी खोजी जासूसी की भनक तक नहीं लगने दी। दूसरे दिन शाम के समय तीसरी मंजिल की छत पर मेरी पेशी हुई। इन के साथ किरायेदार भी शामिल हो गए। सबने कई बेमतलब सवाल पूछ कर मुझे सताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। शरदमामा ने मेरे साथ गालीगलौज कर मेरे सात पीढ़ियों तक का उद्धार किया तो तावताव में किरायेदार ने मुझे एक चांटा जड़ दिया। दो दिन में मुझे उज्जैन छोड़ कर आएगा ऐसी शरदमामा ने मुझे धमकी भी दी। बड़ी देर तक ये सब नाटक चलता रहा और नीचे किसी को इसका पता ही नहीं था। अंत में मुझे दूसरे दिन देखने की धमकी दे कर सब मुझे रोता छोड़कर चले गए। बहुत देर तक मैं हिचकियां लेते हुए दादा को याद करता बैठा रहा।
दूसरे दिन एक नया नाटक। नानाजी के स्कूल में जाने के बाद शरदमामा ने मुझे कई दिनों से बंद पड़े काकी के कमरें में बंद कर दिया और जब तक मैं घड़ी की चोरी कबूल नहीं करता तब तक कमरे से मुझे बाहर नहीं निकालेगा ऐसा धमका कर भी गया। किसी को बताया तो मेरी मुसीबत और भी बढ़ जाएगी यह भी धमकाकर गया। दिनभर मैं भूखा प्यासा रोता रहा। आखिर शाम को मुझे छोड़ा गया।
‘कहां थे दिनभर?’ आंगन में आते ही लीला मौसी ने पूछा। कुछ भी बताने की हिमंत नही हुई। शरदमामा का और उसकी मंडली का डर समा गया था। मुझे रोना आ गया।
‘मुझे बहुत जोर से भूख लगी है।’ मैने लीला मौसी से कहा। लीला मौसी ये समझी कि भूख के कारण मुझे रोना आया। उसने मुझे खाना दिया।
रात देर तक मुझे नींद नही आयी। अब कल क्या नया नाटक होगा इस का डर मुझे सताने लगा। नानाजी तो मुझसे अब तक नाराज ही थे और शरदमामा की जासूसी और उसके जासूसी तौर तरीको के बारे में नानाजी को तो कुछ पता ही नही था। बहुत दर तक वें खिडकी में बिडी पीते बैठे रहे। उसके बाद उन्होने रामरक्षास्त्रोत कहा और बाद में सो गये। पर मुझे बहुत देर से नींद आयी।
तिसरा दिन तो कुछ अलग ही था। शरदमामा और उसकी मंडली ने मुझे पुलिस का डर दिखाना शुरू किया। जनकगंज पुलिस थाने में किसी का कोई परिचित था। मै छोटा होने के कारण मेरे खिलाफ रिपोर्ट नही लिखवाई जा सकती थी और नाहि वे मुझे गिरफ्तार करावा सकते थे।इसलिये मुझे उस परिचित से बोल कर दिनभर जनकगंज थाने में बिठाल कर रखा गया। दिनभर मै बेंच पर भूखा बैठा रहा। शाम को मुझे घर जाने दिया। अब मै इन सब से उकता गया था। व्यथित भी था। किरायेदार भाभी ने भी मुझसे बोलना छोड दिया था।
इस सब उठापठक से दूर किरायेदार को शरदमामा पर भरोसा ही नही था इसलिये उन्होने पहले ही किसी थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई थी और थाने की पुलिस ने चोर को पकड भी लिया था। नानाजी का ही पढाया हुआ उनका जामदार नाम का एक पुराना विद्यार्थी था जिसका किरायेदार के यहां भी आना जाना था। मौका देखकर उसने घडी उठाली थी।
एक ही तमाशा सब को देखने को मिला था उस दिन। रविवार का दिन था। नानाजी घर पर ही थे। दोपहर बाद अचानक पुलिस ने बाडे के अंदर प्रवेश किया। यह बात आग की तरह सब जगह फैल गयी और मंदिर के बरामदे में सब आ गए। दर असल पुलिसवाले चोर को साथ लिए जांच करने ही घर आए थे। वे सब किरायेदार के यहां चोरी की जगह देखने भी गए। चोरी गयी घडी भी उन्होने जप्त की थी और किरायेदार को उनकी घडी भी वापस मिल गयी।
बाडे में पुलिसवालों के आने के बाद ही नानाजी को सब बातें पता पडी। पिछले चार दिन की घटनाओं के बारे में भी उन्हें औरों से पता पडा। शरदमामा द्वारा मुझे सताएं जाने की खबर भी उन तक पहुची। वैसे शरदमामा तो नानाजी के डर से देर रात घर आता और सुबह नानाजी जल्द ही स्कूल निकल जाते। कुल मिलाकर वो नानाजी के सामने आता ही नही था।
सोनू से मैत्री खत्म हो चुकी थी इसलिये मेरा बाहर घूमना भी खत्म सा ही था। स्कूल से आने के बाद मै घर पर ही रहने लगा था।
अभी थोडी देर पहले ही बाडे में पुलिस आ कर गयी थी। शाम का समय था। चारो ओर यही चर्चा थी। हम बच्चे कंपनी झूले पर बैठे थे। आज बच्चो को मानो जोर-जोर से गाना गाने का जोश आ गया था। इतने में किरायेदार भाभी मंदिर में आयी। उन्होने रामजी को पेडे का भोग लगाया। इसके बाद उन्होने सब को पेडे बाटे। मेरे हाथ पर पेडा रखते हुए उनकी नजर जरूर नीची थी। इतने में नानाजी वहा आए। किरायेदार भाभी बोली, ‘भैया, एक मिनिट।’ नानाजी आगे आये।
‘पेडा।’ उन्होने नानाजी के हाथ पर पेडा रखते हुए कहां।
‘किसलिए? ‘नानाजी ने पूछा।
‘हमारी घडी वापस मिल गयी ना।’
‘मैंने तुमसे पहले भी कहा था कि हमारे बाल्याजी का पीछा छोडो, पर तुमने एक भी नहीं सुनी?’ नानाजी का चेहरा गुस्से से तमतमा गया। किरायेदार भाभी भी सहम गयी।
‘मैंने क्या किया?’
‘खुद की चीजें सम्हाल कर रखना नहीं आता और दूसरों को बिना बात के परेशान करना।’
‘अब कोई चीज चोरी जाएगी तो ढूंढना पड़ेगी ही ना?’ किरायेदार भाभी ने भी बड़ी शान से कहा।
‘हाँ। लेकिन इन सब में हमारे मासूम बाल्याजी को आप सब ने कितना सताया?’ नानाजी ने गुस्से से कहा।
‘पर हमने क्या किया? आपके बेटे ने ही उसे मारा, दिनभर उसे कमरे में भूखा प्यासा बंद रखा, और तो और दिनभर उसे थाने में भी बिठाल कर रखा। कितनी यातनाएं दी। इन सब में हमारा क्या दोष?’
नानाजी निरुत्तर हो गए और उनकी चिड़चिड़ाहट और भी बढ़ गयी। उन्हें किरायेदार भाभी के सामने अपमानित होना पड़ा।
‘हमारे बेटे का क्या करना है वो हम देख लेंगे। पर बाल्याजी को चांटा किसने मारा ये तो याद है ना? बाल्याजी मेरी बेटी और दामाद की अमानत है मेरे पास। इसलिए मैं आखरी बार बता रहा हूं कि बाल्याजी के रास्ते से थोड़ा दूर ही रहना, नहीं तो मकान खाली कर दो।’ नानाजी ने गुस्से में कहा।
किरायेदार भाभी बिना कोई जवाब दिए वहां से चली गयी। मुझे कई बार मारने वाले, मैंने चोरी की हैं यह कक्षा में सबको बताने वाले नानाजी को आज मेरे लिए ही किरायेदार का गुस्सा आया और मेरे लिए ही उन्होंने किरायेदार को मकान तक छोड़ने का कहा। पिछले चार दिनों से मेरे मन:स्ताप पर पूर्णविराम लग गया। नानाजी का एक अलग ही रूप आज देखने को मिला। नानाजी के हाथ पर किरायेदार भाभी ने रखा पेड़ा दब कर बर्फी हो गया था। गुस्से में नानाजी द्वारा जोर से मुट्ठी दबाने के कारण ऐसा हुआ। किरायेदार भाभी का गुस्सा पेड़े पर निकला। नानाजी ने वह पेड़ा एक बच्चे को दिया और जोर से चिल्लाये, ‘शद्दे !’
हड़बड़ी में माई दालान से आंगन में आयी, ‘अरे क्या हुआ चिल्लाने को?’
लीला मौसी भी दौड़कर आयी, ‘भैया, वो घर में नहीं है।’
‘मुझे पता था।’ नानाजी बोले और धीरे-धीरे चलते हुए बाहर निकल गए।
आज एक और बात पता पड़ी। मार खाने पर चोट भले ही एक जैसी लगे पर हरेक के द्वारा मारने के कारण अलग अलग होते है। उद्देश्य भी अलग-अलग होते है और पीटने वाले के और मार खाने वाले के सम्बन्ध भी अलग अलग होते है। अपने पराये की भावनाएं भी अलग-अलग होती है। किरायेदार का मुझे मारना, शरदमामा का मुझे मारना, और नानाजी का कई बार मुझे बेदम मारना इनका अंतर मुझे आज समझ में आ रहा था। भलाई के लिए मारना और बदले के लिए या सताने के लिए मारना इनका अंतर भी मुझे समझ में आ रहा था। अपनों के द्वारा दण्डित किया जाना और परायों के द्वारा दण्डित किया जाना इनका अंतर भी समझ में आया। नानाजी के हाथों इतनी बार मार खाने के बावजूद मेरे मन में कभी प्रतिशोध की भावना जागृत नहीं हुई। पर आज पहली बार शरद मामा से और किरायेदार से बदला लेने की भावना मन में समा गयी और मैंने उनसे बदला लेने की ठानी। पर हालात से जितने नानाजी मजबूर थे उतना ही मैं भी तो था।
रात नानाजी फिर खिड़की में बैठे बीड़ी पर बीड़ी पिएं जा रहे थे। मैं खटियां पर लेटा हुआ था और मुझे बीड़ी का धुआं सहन नहीं हो रहा था। मुझे नींद नहीं भी आ रही थी पर नानाजी अपने आप में मग्न थे। नानाजी के चिंतन करने की जगह कहे उनके अशांत मन को शांत करने की जगह कहे, उनका क्रोध नियंत्रण करने की जगह कहे या दिनभर की घटनाओं पर निष्पक्षता से विचार करने की जगह कहे या सही गलत का विचार करने की जगह कहे, इन सब के लिए उन्हें इसी ऊँची खिड़की का और बीड़ी का सहारा भाता है। अपने मन की बातें कहने या मन हल्का करने के लिए अब नानाजी के लिए कोई बचा ही नहीं था। वैसे पहले भी कोई नहीं था। नानाजी का व्यक्तित्व कम बोलने वाले और अंतर्मुखी के रूप में जाना जाता। वे ज्यादा किसी से बोलते ही नहीं थे। इसी खिड़की में बैठे बैठे खुद से ही झगड़ते। खुद के संकटों को सब के सामने रख संवेदनाएं खरीदने का नानाजी का स्वभाव ही नहीं था। मन हल्का करने के लिए, काकी जैसा रामजी से संवाद भी नहीं था। नानाजी के लिए जो कुछ भी था वह यह खिड़की और बीड़ी। समय के प्रवाह के साथ बहते जाने के सिवाय नानाजी के पास और कोई विकल्प नहीं था। मेरी भी स्थिति कुछ अलग नहीं थी। एक जरूर था क़ी चित्त शांत होने के बाद ही नानाजी रामरक्षास्त्रोत कहते थे। इसके बाद ही उनको अच्छी नींद आती।
इस रात को भी नानाजी ने बड़ी देर बाद रामरक्षास्त्रोत कहा। पर रामरक्षा स्त्रोत कहने के पहले उन्होंने मेरे बालों को सहलाया। मेरे सर पर से हाथ फेरा और धीमी आवाज में बोले, ‘बाल्याजी अब बहुत जल्द ही तुम अपने घर अपने दादा के पास जाने वाले हो।’
नानाजी को लगा मैं नींद में हूं, पर मैं जग रहा था।

सच तो यह था कि दादा की चिट्ठी आयी थी नाना जी के नाम। चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि उनकी बदली भोपाल हो चुकी थी और वें भोपाल पहुंच भी गए थे। भोपाल में ही उन्होंने बुधवारा मोहल्ले में किराये का मकान भी ले लिया था। सुरेश की अर्धवार्षिक परीक्षाएं ख़त्म होने के बाद उसको वहां मॉडल स्कूल में प्रवेश दिला दिया था। उसका स्कूल भी शुरू हो चुका था। आते जून महीने में वें सुशीलाबाई के साथ विवाह करने वाले थे। और मेरे लिए महत्वपूर्ण ये था कि मेरी वार्षिक परीक्षाएं ख़त्म होने के बाद वें मुझे ग्वालियर आकर अपने साथ भोपाल ले कर जाएंगे। उन्होंने चिट्ठी में नानाजी को बस यही खबर की थी।
माई कभी कभार अब मुझसे रामजी की पूजा भी करवाने लगी और इस कारण उनके व्यवहार में भी बदल आ गया। अब उन्होंने मुझे डांटना बंद कर दिया था और मेरी पूछताछ भी करती। कभी कभार वो मेरे पूजा करते समय मुझसे आत्मीयता से बातें भी करती। हालांकि उनकी टोका टोकी कम नहीं हुई थी पर नाराजी ख़त्म सी थी।
इस घर में अब सबसे छोटा मैं ही था। शरदमामा तो सिर्फ खाने के समय घर में दिखता, वह भी तब जब नानाजी घर में नहीं होते। गोपाल मामा और नलिनी मौसी तो कानपूर में नाना मामा के साथ ही रहते थे इसलिए कुल मिलाकर हम गिने चुने लोग ही इस घर में रह गए थे। किरायेदार भाभी ने उस दिन के बाद मेरा पीछा छोड़ दिया था। सोनू से तो मेरी दोस्ती कब की ख़त्म हो गयी थी इसलिए अब ज्यादातर मैं घर में ही रहता। शाम को राम मंदिर के बरामदे में बाड़े के बच्चों के साथ जो कुछ खेलना होता उतना ही मेरा समय कट जाता। अब मेरा ज्यादातर समय लीला मौसी के साथ व्यतीत होता। लीला मौसी के बाहर जाते समय माई हम खास मुझे उसके साथ भेजती। माई लीला मौसी को कभी भी अकेले बाहर नहीं जाने देती। वैसे वो नौवीं कक्षा में थी पर मैंने उसको पढ़ाई करते हुए कभी भी नहीं देखा। कभी कभार स्कूल जाती थी और बड़ी मुश्किल से पास होती। गुस्सैल भी बहुत थी। अब माई उसके ब्याह की भी चर्चा करने लगी थी।
रामंदिर होने से सुबह के समय पूजा और रसोई के लिए पवित्रता का बड़ा ध्यान रखना पड़ता। इस पवित्रता की काट केवल रेशमी वस्त्रों द्वारा ही हो सकती थी। मेरे विचार में यह दुनियां में अजूबा ही माना जाना चाहिए। इस पवित्रता के कारण सुबह की रसोई माई ही देखती पर पूरे समय लीला मौसी को हाथ के नीचे रखती। शाम की सारा जिम्मेदारी लीला मौसी का होती। लीला मौसी मुझे अपने हाथ के नीचे रखती। इस तरह पाकशास्त्र में मेरा पहला गुरु होने का मान लीला मौसी का ही था।
मैं धीरे-धीरे सब्जी काटना सिख गया। धीरे-धीरे मुझे सब्जियों की पहचान एक नए अर्थ में भी होती जा रही थी। जिन सब्जियों का जिक्र मेरे किसी भी पाठ्यक्रम में नहीं था उन सब्जियों की पहचान मुझे मेरे गुरु ने कराई। हर एक सब्जी का अलग-अलग आकार, अलग-अलग रंग और अलग-अलग स्वाद, और अलग-अलग ही गुण धर्म होता हैं यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। हरी मिर्ची तीखी लगती है और ज़रा सा छूने भर से उसका असर उँगलियों पर देर तक रहता है यह मुझे अनुभव से ही समझ में आया। मजे की बात यह कि इस मिर्ची का तीखापन सब को बहुत भाता है यह भी मुझे हैरान करने वाला था।
शाम के समय सिर्फ रोटी सब्जी ही बनती। इसलिए लीलामौसी दोपहर बाद चार बजते ही रोटियां बनाकर फुर्सत पा लेती। सब्जी वह समय पर ही बनाती। लीला मौसी मुझे जो भी काम कहती वह प्रेम से कहती और ख़ास तौर से बुरहानपुर जैसी यहां कोई सख्ती नहीं थी। बरतन जगह पर जमाना, समय पर भोजन की तैयारी, चीजे जगह पर रखना, वगैरे। वैसे बुरहानपुर में भी माँजी भी मुझसे कमोबेश ऐसे ही काम करवाती। पर वहां उन लोगो से मेरी कोई जान पहचान ही नहीं थी। मेरे लिए तो दोनों माँ-बेटी नयी ही थी पर वे मुझ पर अधिकार ऐसे जताती मानों मैं कोई नौकर हूं। इसलिए उनका मुझे काम कहना कतई पसंद नहीं होता। पर यहां लीला मौसी जो भी काम मुझे कहती वह मैं ख़ुशी ख़ुशी करता। छोटे-छोटे कामों का भी बड़ा ही महत्व होता है यह धीरे-धीरे मुझे समझने लगा था। छोटे-छोटे काम करके सबका मन भी जीता जा सकता है यह भी मैं जान चुका था। वैसे मेरे पास विकल्प हमेशा कम ही होते पर अब समझ बढ़ती जा रही थी।
मैं अपनी राह और अपनी मंजिल खोजने का प्रयास हमेशा ही करता रहता। मेरी पढ़ाई शुरू ही थी और पढ़ाई में मैं किसी से भी कम नहीं था। वार्षिक परीक्षाएं नजदीक थी और परीक्षाएं खत्म होते ही मेरे दादा मुझे लेने के लिए आने वाले थे। उसी कल्पना में ख़ुशी-ख़ुशी दिन गुजर रहे थे।
आखिर एक दिन मेरी वार्षिक परीक्षाएं ख़त्म हुई। थोड़े दिनों बाद परिणाम भी आ गया। मैं बड़े ही अच्छे नंबरों से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। बड़े प्रेम और अपनेपन से मेरा उत्साहवर्धन करने वाली काकी अब इस दुनियां में नहीं थी। बड़े उत्साह के साथ मैं सब को अपनी मार्कशीट दिखाता और हरेक ‘ठीक है’ कहकर कुछ हुआ ही ना हो ऐसा दिखाकर अपने काम में लग जाता। लीला मौसी ने जरूर पीठ थपथपाकर मुझे शाबसकी दी। नानाजी भी मेरे पास होने से खुश थे। इन परिस्थितियों में उन्हें मेरे पास होने से ज्यादा ख़ुशी शायद उनके दामाद ने उन्हें सौपी जिम्मेदारी के ठीक से निभाने के कारण हुई हो।
लम्बी प्रतीक्षा के बाद आखिर एक रविवार को सुबह-सुबह दादा का आना हुआ। मैं राम मंदिर में सभी देवी देवताओं की विधि पूर्वक पूजा करने में व्यस्त था। माई के कहे अनुसार अब मैं बड़े लगन से और पवित्रता से पूजा करने लगा था। पवित्रता क्या होती है शायद यह मुझे न समझता हो लेकिन इस घर की रीती और परम्पराएं मैं जान चुका था। रीती और परमपराओं का अर्थ ढूंढने की क्षमता भी मुझमें नहीं थी पर व्यवस्थित रूप से मैं इनका पालन करना सिख गया था।
दादा सीधे रामजी के दर्शन करने के विचार से ही मंदिर में आ गये थे। मुझे पूजा करते देख उन्हें आश्चर्य हुआ। मैं पूजा में व्यस्त था। दादा कब अंदर आए मुझे पता ही नहीं पड़ा।
‘बाळ …… !’
यह आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर गया। उन्हें देखते ही मेरे मुंह से निकला, ‘दादा …. !’
‘अरे … व्वा …. पूजा कर रहे हो। बहुत अच्छा ही है।’ दादा बोले।
मेरा ध्यान रामजी से हट कर मेरे भगवान की ओर गया। दादा ने बड़े भक्तिभाव से रामजी को साष्टांग दंडवत किया।
‘दादा … ‘मैं अपने आप को रोक नहीं पाया। मुझे जोर से रोना आया और मैं रोने लगा। मुझे लगा कि ओटले पर से तुरंत नीचे उतर दादा की बाँहों में समा जाऊं। पर मैं रेशमी धोती पहने था। पूजा में विघ्न होगा तो माई नाराज होंगी यह सोच नीचे नहीं उतर सका।
‘अ…. रे … रे , रोने को क्या हो गया? अब आ गया हूं ना मैं? तुम्हें लेने के लिए ही तो आया हूं। पहले आंसू पोछो। पूजा पूरी करलो। मैं बैठता हूं यहीं तुम्हारे पास। तुम्हें यूं पूजा करते देख बड़ा अच्छा लग रहा है। अब भोपाल में भी अपने घर में ऐसे ही अच्छे से पूजा करना।’
दादा ने एक पटा लिया उसे बिछाकर उस पर आलथी पालथी मारकर बैठ गए।
‘दादा, आपको मालूम है क्या मैं अच्छे अंकों से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ हूं। अब मैं पांचवी कक्षा में आ गया हूं।’ मैंने बड़ी शान से कहा।
‘बहुत बढ़िया है। अब तुम बड़े हो गए हो समझदार भी हो गए हो। होशियार तो हो ही तुम।’
‘पर दादा, मेरे पास होने की ख़ुशी में किसी ने यहां पेड़े नहीं बाटें।’ मैं फिर से रुआंसा हो गया।
‘नहीं-नहीं, अब रोने का क्या काम? तुम पूजा पूरी कर लो तब तक मैं गली के बाहर से पेड़े ले कर आता हूं। आज तुम्हारे रामजी को पेड़े का भोग लगाते है। ठीक हैं ना?’
मैंने सिर्फ गर्दन हिला दी। दादा ने पटा उठाकर जगह पर रखा और बाहर निकल गए। मैं जल्दी-जल्दी पूजा करने लगा।
थोड़ी ही देर में दादा वापस आगए और उन्होंने पेड़े से भरा दोना मेरे सामने रख दिया। इतने में माई भी भोग के लिए चांदी की कटोरी में दूध शकर पोहे लेकर आ गयी।
‘अरे, दामादजी आप कब आये?’ दादा को देखते ही माई ने पूछा।
‘ये क्या अभी चला ही आ रहा हूं।’ दादा ने माई को झुक कर प्रणाम किया।
‘जीते रहे! खुश रहे! लम्बी उम्र हो आपकी! आप खड़े क्यों है?बैठिये ना।’ माई ने कहा।
दादा ने दो पटे बिछाए। एक पर दादा बैठ गए दूसरे पर माई बैठ।
‘दामादजी आपका बेटा मनोभाव और बड़ी लगन से रामजी की पूजा करता है। रामजी भी याद रखेंगे। बड़ा पुण्य मिलेगा।’ माई ने कहा।
‘हां देख रहा हूं। सब आप ही लोगों का सिखाया………।’
माई ने दादा को आगे बोलने ही नहीं दिया, ‘नही दामाद जी…..ये सब रमा काकी की सीख और उनके ही संस्कार है। उनके आशीर्वाद और उनका पुण्य हमेशा ही आप लोगों के साथ है।’
माई ने मुझे काकी की याद दिला दी। मैं थोड़ा भावुक हो गया।
‘वो तो है।’ दादा बोले, ‘पर आप सब ने भी बाळ के लिए बहुत कुछ किया है। मेरे ऊपर तो आप सब के उपकार ही है।’
‘दामादजी ऐसा क्यों कह रहे हो आप? अपनों के लिए कैसा एहसान? और हममें से किसी ने कुछ भी नहीं किया है। हमसे तो रामजी ने सब करवा लिया। हमारी अक्का गयी, आवडे गयी, रमा काकी भी गयी। हमारे सब अपनों को रामजी ने फटाफट हमसे छीन लिया। हम बूढ़ों से इन्तजार करवा रहे है रामजी। उसके खेल वो ही जाने। सोन्या की अधूरी गृहस्थी और उसकी वेदनाएं अब देखी नहीं जाती और आपकी भी तो भागादौड़ कम नहीं है? मालूम नहीं हम लोगों के नसीब में रामजी ने क्या लिख कर रखा है?’
‘क्या कह सकते है?’ दादा ने कहा, ‘हम उसके लिखें को नहीं बदल सकते। ये तो चलता ही रहेगा। जाहि विधि रक्खे राम ताहीं विधि रहियें।’ दादा के चेहरे पर भी वेदनाएं स्पष्ट झलक रही थी ।
‘माई नैवेद्य दिखाऊं क्या? दादा ने भी पेड़े लाये है। ‘मैंने माई से पुछा।
‘अरे दिखाओं ना। उसमें क्या पूछना। और हां सबको पेड़े बाटनें का काम भी तुम ही करना।’ माई बोली, ‘और दामादजी आप बैठो। मैं सोन्या को खबर करवाती हूं। और हां अब भोजन कर के ही जाना। मैं रसोई का देखती हूं।’
‘माई आप चिंता न करें मैं ही जाकर सबसे मिलता हूं।’ दादा ने कहा।
‘ठीक है। पर भोजन किए बगैर नहीं जाना।’ माई बोली।
‘जी। जैसा आप कहे।’ दादा ने कहां। फिर मुझसे बोले, ‘तुम पूजा कर लो और सब समेट लो। भोजन करने के बाद हमें निकलना है। तब तक मैं पंतजी से और भैया से मिल लेता हूं।’
मैं पूजा जल्दी जल्दी करने लगा। मेरी खुशियों की आज कोई सीमा ही नहीं थी।
पूरे बाड़े में अपने पास होने की ख़ुशी में मेरा पेड़े बांटना भी हो गया। दादा के भोजन भी हो गए और उनका सबसे मिलना भी हो गया। दादा का सबको उनके ब्याह में आने का आग्रहपूर्वक निमंत्रण देना भी हो गया। मेरे पास ऐसा कुछ ज्यादा सामान तो था ही नहीं। एक झोले में सब आ गया था। हमारे निकलने का समय आगया। मैं सब से मिल रहा था। बड़ों के पांव छू रहा था। रामजी के भी दर्शन हो गए। बाड़े के सब लोग हमारे निकलते समय बरामदे में इक्कठे हुए। पर इस बार काकी नहीं थी। पिछली बार मैं काकी से, ‘अब तुम्हारी ड्यूटी ख़त्म हुई’ यह कहकर निकल पड़ा था। अभी काकी की बार-बार मुझे याद आ रही थी।
‘काकी अब सिर्फ यादों में ही रहने वाली है।’ नानाजी ने मेरे मन की हलचल पहचान ली। मुझसे बोले, ‘काकी की सीख हमेशा याद रखना। जल्दी बड़े हो। समझदार हो। और विशेष यह कि अपनी नयी माँ को कभी तंग नहीं करना और नाही कोई तकलीफ देना। उनका कहा हमेशा मानना।’

मैंने देखा आंखे नम सी गयी थी नानाजी की। माई के पांच रुपये चुराने के कारण नानाजी को कितनी वेदनाएं हुई होंगी इसका एहसास मुझे तीव्रता से होने लगा। नानाजी से क्षमा मांगना रह गया था। काकी होती तो उनको भी कितना दु:ख होता? मैंने ऐसा क्यों किया इसका मुझे पश्चाताप होने लगा। मैं नानाजी के पावों पर गिर पड़ा और कहां, ‘भैया मुझे क्षमा कर दो।’
दादा देखते ही रह गए। उन्हें मालूम ही नहीं था कि क्या हुआ था? नानाजी ने मुझे दोनों हाथों से उठाया और गले लगा लिया। मुझसे बोले, ‘भूल जाओ सब। मैंने तो तुम्हें कब का ही क्षमा कर दिया था। पर आगे से ध्यान रहे हमारी गलतियां हमारी तरक्की में हमेशा ही रूकावट डालती रहती है। अगर हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा हो तो शांत रह कर समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अच्छे बुरे दिन आते जाते रहते है। रहिमन चुप रहिये देख दिनन के फेर। वैसे मुझसे भी गलती ही हुई है। तुम्हें इतना कठोर दंड नहीं देना चाहिए था। और कक्षा में तो तुम्हारी बदनामी करनी ही नहीं चाहिए थी।’ नानाजी बोले।
नानाजी ने अभी मुझे छोड़ा नहीं था। नानाजी को उनके कठोर बर्ताव का पश्चाताप हो रहा था। पर उनका तो स्वभाव ही ऐसा था। दादा ने आगे बढ़ कर नानाजी से मुझे अलग किया।
‘भैया, आप बिलकुल बुरा ना माने। मुझे कल्पना नहीं है कि यहां क्या हुआ था। बाद में पता चल ही जाएगा। परन्तु नाती से कठोर व्यवहार करना कोई अपराध नहीं है। आप ने जो भी कुछ किया होगा वह बाळ के भले की खातिर ही तो किया होगा ऐसा मुझे विश्वास हैं। हमें देर हो रही है। अब हमें निकलना होगा।’ दादा ने भी सभी बड़ों को प्रणाम किया।
‘कभी-कभार बच्चों को भी यहां भेजते रहे दामादजी।’ माई बोली। दादा ने गर्दन हिलायी और हम गली के बाहर आ गए। थोड़ी देर हम छत्रीबाजार वाले घर में रुके और दादा ने वहां से अपना सामान लिया और हम रेलवे स्टेशन पर आ गए।
मेरा ऐसा सोचना था कि ग्वालियर से निकल कर हम भोपाल जाने वाले है पर भोपाल ना जाते हुए हम बिना में ही उतर गए और सामने खड़ी गाडी में बैठ गए। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने दादा से पूछा, ‘हम लोग तो भोपाल जा रहे थे ना?’
‘नहीं पहले हम सागर जा रहे है। वहां से भोपाल जाएंगे। सुरेश भी वहीं है। दादा ने कहां।
मुझे फिर से आश्चर्य हुआ। सागर में तो हमारा कोई रिश्तेदार ही नहीं था,नाही मेरे सुनने में कभी आया था। मुझे कुछ शंका हुई।
‘माँजी वगैरे कहां है?’
मेरे इस सवाल पर दादा कुछ असहज हो गए। उन्होंने मेरी ओर देखा और थोड़े संकोच से बोले, ‘वें सब भी वही हैं। हम सब सीधे वहीं से भोपाल जाने वाले है।’
‘मतलब?’
‘मतलब ये कि सुशीला अब तुम्हारी माँ बनने वाली है।’
‘आपका ब्याह होने वाला है?’
दादा ने मेरी इस बात का कोई जवाब ही नहीं दिया। चलती गाडी में वें खिड़की के बाहर देख रहे थे या कुछ सोच रहे थे इसका अंदाज लगाना कठिन था। उन्होंने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया था पर उनका मौन भी तो स्वीकृति ही था। वैसे भी मैं उनका बेटा था और मेरे हर सवाल का जवाब देना उनके लिए बंधनकारी नहीं था। पर मेरा आनंद जरूर एक क्षण में फुर्र हो गया। अपने पिता से ढेर सारी अपेक्षाएं रख मैं खुशी-ख़ुशी उज्जैन गया था। उनकी इच्छा की खातिर ख़ुशी-ख़ुशी बुरहानपुर भी रह लिया। पथरिया भी रह कर आया। पर अब सागर जाते हुए मेरा मन आशंकित था और अशांत भी हो गया। मतलब अब ये दोनों माँ-बेटी मुझे भोपाल में भी तंग करती रहेगी? पर मेरे हाथ में कुछ भी नहीं था।
मुझे काकी के शब्द याद आये, ‘अपनी नयी माँ को तुम कतई दु:ख नहीं दोगे। कोई कष्ट भी नहीं दोगे। उसका आदर करोगे और उसका कहां मानोगे।’ काकी को मैंने हां जरूर कहां था पर मेरा कहां कौन मानेगा? मुझे सुशीलाबाई माँ के रूप में स्वीकार नहीं थी। काकी का कहां मुझे याद आ गया, ‘माँबाप को चुनना हमारे हाथ में नहीं होता। जिस किसी के पेट से हम जन्म लेते है वह हमारी माँ ही होती है।’ पर सुशीलाबाई के पेट से मैंने तो जन्म नहीं लिया। तो फिर दूसरी माँ चुनने का अधिकार तो मुझे मिलना ही चाहिए। अब ये एक नया संकट मेरे सामने खड़ा था पर मैं कुछ भी नहीं कर सकता था।
दादा के मन में ठीक इस समय क्या चल रहा था इसका अंदाज मुझे नहीं हो पा रहा था। पर मेरे मन में क्या चल रहा है इसका अनुमान दादा को था। मेरा ध्यान दादा की ओर गया। वे बड़ी देर से मेरी ओर देख रहे थे। मुझे देख कर हंस दिए। मेरे बालों को सहलाते हुए बोले, ‘चिंता मत करो। तुम अभी बहुत छोटे हो। बहुत सी बातें मैं तुम्हें आज नहीं समझा सकता। उसी तरह से तुम्हारे ढेर सारे प्रश्नों का उत्तर भी मैं आज नहीं दे पाऊंगा। जब तुम बड़े हो जाओगे तो धीरे-धीरे सब बातें तुम्हारी समझ में आजाएंगी और तब शायद तुम्हारे ढेर सारे सवालों का जवाब भी तुम्हें मिल सकेंगे।’
‘पर फिर काकी उनके प्रश्न हमेशा रामजी से क्यों पूछती रहती थी?’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया।
दादा को आश्चर्य हुआ। मेरे इस सवाल से वें असहज और निरुत्तर हो गए।
‘अब तुम धीरे-धीरे बड़े हो रहे हो। इतने प्रश्न तो सुरेश भी नहीं पूछता। परन्तु फिर से कहता हूं तुम अभी बहुत छोटे हो। इतना मत सोचा करो। कई प्रश्नों के तो जवाब ही नहीं होते। मतलब जवाब होते है पर वे हमें मालूम नहीं होते। इसीको हम भाग्य कहते है। तुम चिंता मत करो। सब ठीक होगा।’
दादा पर विश्वास रखने के अलावा मैं कर भी क्या सकता था? एक सहारा छोड़कर दूसरा, दूसरा छोड़कर तीसरा और अब तीसरा सहारा छोड़कर चौथा। कुल मिलाकर काकी के शब्दों में इसे ही कहते है, ‘बहते प्रवाह के साथ बहते जाना।’

सागर में रेलवे स्टेशन से हम सायकल रिक्शा से लक्ष्मीपुरा के सुभेदार बाड़े में पहुंचे। वहां तो सभी इक्कठे हुए थे। सुरेश तो था ही, पथरिया से गणपत और बेबी थी। बम्बई से अण्णा उनकी पत्नी और बच्चों सहित आए थे। माँजी और सुशीलाबाई दोनों तो थी ही। रामराव और उनका पूरा कुनबा था। रामराव ये सुशीलाबाई की बुआ के लड़के थे और वे इतने बड़े बाड़े में रहते थे। उन्होंने ही सुशीलाबाई के विवाह की सारी व्यवस्था सम्हाल रखी थी। सूबेदार बाड़ा किसी छोटे किले की तरह था। दादा का विवाह दो दिन बाद होना था।
बाड़े में पहुंचते ही मैंने सब बड़ों को उनके पैर छू कर नमस्कार किया। दादा ने भी उनसे सभी बड़ों को नमस्कार किया। सुरेश और गणपत से मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई। अण्णा ने भी स्नेहवश मेरी पीठ पर से हाथ फिराया। मुझे अच्छा लगा।
दूसरे दिन सुबह दादा ने गणपत को कुछ रुपये दिए और कहां, ‘गणपत, बाजार से बाळ सुरेश को दो-दो फुलपेंट और दो-दो शर्ट ले आओ। साथ में बनियान, मोज़े, जूते, तौलिया वगैरे भी लाना। इन दोनों को भी साथ ले जाओं।’
‘जी भैया।’ गणपत ने कहां और हम दोनों गणपत के साथ बाहर आ गए। गणपत का तो तरीका भी वहीं था। मेरे कंधे पर हात रखे वो किसी बराबरी का सा व्यवहार मेरे साथ करता। गणपत ने सबसे पहले सागर की मशहूर खोवे की जिलेबियां खिलाई फिर हमने समोसे कचौड़ी का भी स्वाद चखा। उसके बाद स्पेशल चाय भी हुई। उसके बाद गणपत की तंबाखू और बीड़ी भी हुई। पेटपूजा होने के बाद ही हम बाजार में खरीददारी करने को आगे बढे। गणपत तो बड़े ही उत्साह में था। मुझे याद आया मैंने पथरिया में गणपत और बेबी को बात करते हुए सुना था कि, सुशीलाबाई और दादा की शादी उन्हें पसंद नहीं थी। सुशीलाबाई की सारी जायदाद पर इन दोनों की नजरें थी। फिर भला ये गणपत इतना खुश क्यों है? जाने दो मुझे क्या? सुशीलाबाई जाने, माँजी जाने और अब माँजी के होने वाले दामाद जाने? जिस राह जाना नहीं उसकी पूछताछ क्यों करना?
मनपसंद नाश्ता हुआ। मनपसंद कपडे और जूते मोज़े आ गए। मैं और सुरेश दोनों खुश ही थे। घर आये तो चारों और शादी की तैयारी की भागादौड़ थी। इस विवाह में दादा के रिश्तें से ग्वालियर से कोई भी आने वाला नहीं था। इसलिए वरपक्ष की ओर से बाराती भी हम तीन ही थे। खुद दूल्हा और दूल्हे के दो बेटे। कुल मिलाकर हमारी खातिरदारी बहुत हो रही थी। हम सब बच्चें तो खेलने में बहुत मस्त थे।
सुभेदार बाड़े के आंगन में शाम को श्रीमंती (वरपूजन) हुई। दूसरे दिन सुबह विवाह का मुहूर्त था। दादा का और सुशीलाबाई का एक नया ही रूप मुझे देखने को मिला। अपने माता-पिता का विवाह प्रत्यक्ष रूप में अपनी आंखों से देखना ये किसी के भी भाग्य में नहीं होता। पर यह सुरेश के और मेरे भाग्य में था। पर ऐसे भाग्य की कोई कामना भी नहीं करता। मै भी नहीं कर रहा था। उलटे मेरे मन में एक डर समाता जा रहा था कि दादा अब मुझसे और भी दूर हो जायेंगे। दूसरा डर मुझे सताए जाने का था। पर मैं कुछ नहीं कर भी सकता था।
दूसरे दिन तय मुहूर्त पर विवाह सम्पन्न हुआ। मंगलाचरण के समय मैंने और सुरेश ने दूल्हा-दुल्हन पर जीभर कर अक्षत बरसाई। दादा के लिए भले ही यह ब्याह जीवन का सवाल हो पर हमारे लिए अक्षत बरसाना एक खेल ही तो था। सारे मेहमान हमें अक्षत बरसाते देख हंस रहे थे। सब के लिए अकल्पनीय ऐसा दृश्य था। वरवधू के ऊपर अक्षत बरसाना मतलब उस क्षण का साक्ष बनकर वरवधू को आशीर्वाद देना होता है यह हमें मालूम ही नहीं था। ब्याह के बाद अण्णा ने हमें बताया। काश अण्णा हम को यह पहले बताते तो अपने पिता को आशीर्वाद देने की भूल हमसे न होती। खैर।
समधन की पंगत के लिए समधन कोई थी नहीं। फिर बिना समधन के ही पंगत हुई। खैर। पंगत में दादा और सुशीलाबाई को चांदी की एक ही थाली में साथ में बैठकर भोजन करते देखना मेरे लिए आश्चर्य जनक था। बिना समधन के ही बहू की मुंह दिखाई और लक्ष्मीपूजन का कार्यक्रम हुआ और नयी बहू सुशीलाबाई की शालिनी हो गयी। दादा को ना जाने क्यों शालिनी नाम से भारी लगाव था। उन्होने अपनी तीनों पत्नीयों का नाम शालिनी ही रखा था। इसमें क्या रहस्य छुपा था ये दादा ही जाने। पर पूरे कार्यक्रम में मेरे मन में हमेशा एक बेचैनी और संभ्रम ही बना रहा। दूसरे दिन हम सब भोपाल के लिए निकले। हमारे साथ अब नई नवेली दुल्हन और उसकी देखभाल करने के लिए माँजी साथ थी।

धारावाहिक उपन्यास ‘मैं था मैं नहीं था’ – समाप्त – धन्यवाद

परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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