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कौन है शत्रू राष्ट्रभाषा के ?

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विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

हमारे देश मे तामिलनाडू राज्य मे हिंदी भाषा के लिये कुछ असंवेदनशीलता देखने को मिलती है और वैसा हमे प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है परंतु यह भी सच हैं कि, तामिलनाडू राज्य मे उनकी मातृभाषा के लिये गौरव, सन्मान और अभिमान और आत्मीयता भी उन्हें अनुभव होती है I राष्ट्रभाषा हिंदी के बारे मे तामिल जनता से और राज्य के राज्यकर्ताओ से अन्य भारतीयो का कितना भी मतभेद हो परंतु एक राष्ट्रभक्त होने के नाते हमे निश्चित ही तामिलों की भावनाओ का आदर भी करना चाहिये, और मातृभाषा के प्रती उनके लगाव के कारण हमे गौरवान्वित भी होना चाहियेI हमे इस हेतू निश्चित ही संतुष्ट भी होना चाहिये कि एक राज्य की भाषा (तमिल) को, संस्कृती को और अस्मिता को सहेजकर और सुरक्षित रखने के लिये वहां के लोग जी जान से जुटे है और भावनिक दृष्टी से अपनी मातृभाषा से भी जुडे हुए है

परंतु राष्ट्रभाषा हिंदी का क्या ? क्यो कि राष्ट्रप्रेम और भाषाप्रेम की ये भावनाएँ परस्पर विरोधी नही है। एक ही ईश्वर की उपासना की अलग अलग पद्धतिया है। अर्थात हमारी भावनाओ का प्रकटीकरण खुले मन से अपनी भाषा मे व्यक्त करना है।
तामिलनाडू एक उदाहरण है। परंतु हिंदी भाषिक क्षेत्रो मे राष्ट्रभाषा हिंदी का भविष्य क्या है ? भाषिक दृष्टी से हर एक राज्य की अलग अलग भाषा को हम अलग भी कर दे तो भी २०११ की जनसंख्या के अनुसार हिंदी भाषिक राज्यो की जनसंख्या ८० करोड से ज्यादा है। भारत के कुल क्षेत्रफल ३१ , ६६ , २०५ वर्ग किलोमीटर के ८० प्रतिशत भाग मे हिंदी भाषिक रहते है। इन ८० प्रतिशत मे रहने वाले ८० प्रतिशत भाषा लिखने , बोलने और पढने वाले लोगो की भाषा हिंदी को जड से खत्म करने का एक षड्यंत्र आजादी के बाद से ही से देश मे चलाया जा रहा है। और षड्यंत्रकारी अपने उद्देश्यो मे सफल भी हो रहे है। गत २५ – ३० वर्षो मे इन षड्यंत्रो ने बहुत जोर पकड लिया है। बडे उद्योजक , व्यवसायी , कार्पोरेट्स , नोकरशाह और राजनितिज्ञ सब इसमे अपने अपने स्वार्थ के कारण शामिल हो गये है। पहले हम गर्व से ऐसा कहते थे कि भाषा कभी भी नही मरती। परंतु हिंदी के बारे मे अब ऐसा कहां जाता है , ” हिंदी के दिन चार। ”
– ऐसा कहां जाता है कि भाषा का पतन उस राष्ट्र के पतन का मुख्य कारण होता है। देश के अधिकांश भूभाग मे जो भाषा लिखी जाती है , बोली जाती है , पढी जाती है , उस भाषा की लिपी देवनागरी है। इतना ही नही अन्य कुछ भाषाओ की लिपी ( जैसे मराठी ) भी देवनागरी ही है। देश मे प्रकाशित और प्रसारित दैनिक अखबार और , साप्ताहिक , मासिक , पाक्षिक इत्यादी मे से ८० प्रतिशत हिंदी भाषा मे ही होते है। प्रसारण माध्यमो के सबसे ज्यादा दर्शक हिंदी भाषी है। सबसे ज्यादा दूरभाष और भ्रमणध्वनी का उपयोग करने वाले हिंदी भाषिक क्षेत्र के लोग ही है।
शैक्षणिक व्यवस्था में भी अर्थात प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों तक और उच्च विशिष्ट शिक्षा तक शिक्षण प्राप्त करने वाले सभी उम्र के विद्यार्थियों में भी हिंदी भाषिक क्षेत्र के ही विद्यार्थी सबसे ज्यादा है। सन २००३ – २००४ में केंद्र शासन का शिक्षा के लिए कुल बजट १०१४५ करोड़ रुपयों का था जो सन २००९ – १० में चार गुना बढ़कर ४४५२८ करोड़ था। इस रकम का ८० प्रतिशत प्रावधान हिंदी भाषिक क्षेत्रों के लिए था। इतना होने के बावजूद भी अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण सरकारी विद्यालय और महाविद्यालय सुने ही रहते है। जब कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण देने वाले प्रभावशाली लोगों के विद्यालय तथा महाविद्यालयों में प्रवेश लेने हेतु लाखों रुपये का शिक्षण शुल्क होने के बावजूद हर कोई प्रवेश के लिए लालायित होता है। कुल मिला कर सबसे ज्यादा आर्थिक प्राप्ति और कर वसूली हिंदी भाषिकों से होती है और सबसे ज्यादा खर्च अंग्रेजी भाषा के चाहने वालों के लिए और उनकी सुख सुविधाओं का खयाल कर किया जाता जाता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से अब यह सवाल मन में आता है कि हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषाओं को जड़ से उखाड़ने का षड्यंत्र कौन कर रहा है।
सबसे बडा कुटिल षड्यंत्रकारी बाजार का गणित है। बडे व्यावसायिक घराने , उद्योगपती और बहुराष्ट्रीय कंपनिया है। हमारे देश मे दुनिया का सबसे बडा उपभोक्ता वर्ग है। मुक्त व्यवस्था मे विदेशियो को भी उन्मुक्त और स्वच्छंद व्यापार का अवसर है। जिस भाषा मे रुपयो की बरसात हो , बाजार और पूंजी की और पूंजीपतियो की वही भाषा होती है। सिर्फ एक ही उदाहरण काफी है। हम भारतीय ( विशेष रूप से युवा वर्ग ) रोज ७० लाख लीटर से भी ज्यादा शीतल पेय गटक जाते है।ये आंकडा संगठित क्षेत्रो का है। इसका मतलब , ‘ पेप्सी ‘ और ‘ कोकाकोला ‘ जैसी विदेशी कंपनियो की चांदी है। और सरकारी सुविधाएं भी इन्ही कंपनियों को मिलती है। लेकिन असंगठित क्षेत्रो मे पिये जाने वाले शीतल पेय इससे कई गुना ज्यादा है। परंतु उसकी गणना कोई नही करता। इसलिये गन्ने का रस बेचने वाले , आम का रस , निंबू पानी , लस्सी , छोटे चाय के ठेले चलाने वाले अपने लिये सरकार की ओर से कोई सुविधा नही ले पाते। इनके हम कही भी महंगे विज्ञापन भी नही देखते। सरकार के दरबार मे इनकी विक्री के लिये कोई प्रोत्साहन योजना नही होती। इसके विपरीत , ‘ पेप्सी ‘ कोका कोला ‘ और नेस्ले जैसी विदेशी कंपनियों के लिये लाल गालिचे बिछाकर स्वागत किया जाता है। और कहर ये कि दस बीस गुनी ज्यादा किमत देकर इनका सेवन कर हमारा युवावर्ग भी अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है। खुद को अति आधुनिक और फैशन परस्त दिखने / दिखाने की युवाओं की यही कमजोर नस जहाँ बाजारीकरण को गुलजार कर रही हैं वहीँ हिंदी भाषा सहित सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं को जड़ से उखाड़ने में लगी हुई है।आज वातावरण ऐसा हैं मानो , खुद को अंग्रेज साबित करने की और अत्यन्त आधुनिक दिखने /दिखाने की तरुण वर्ग की प्रतिस्पर्धा हो रही हो। यह साबित करने का प्रयास हो रहा है कि पेप्सी और कोकाकोला पिए बगैर और , पिज्जा , बर्गर, मैगी खाये बगैर भारत में कोई भी आधुनिक नहीं हो सकता। इन्हीं गलतफहमियों का लाभ लेकर कंपनियां अपने उत्पादों को अंग्रेजी के शब्दों में ढाल कर भावनात्मक रूप से परोस रही है। हिंदी भाषा में अंग्रेजी भाषा के शब्द मिला कर जो भावनात्मक रसायन तैयार होता है वह तरुणों को आकर्षित करता है। अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार न भी हो तो दो चार रोजमर्रा के सरल शब्द बोलकर / सुनकर युवाओं को आधुनिक होने का स्वर्गीय आनंद तो दिया ही जा सकता है। जो जितना पाश्चात्य रंग में डूबा वह उतना ही आधुनिक कहलाया और उसने स्वयं को गौरवान्वित भी महसूस किया । समाज में व्याप्त इसी दुखती रग को पहचान कर अनेक बड़े उद्योजक हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में अंग्रेजी शब्दों की मिलावट कर समाज को और सभी भारतीय भाषाओं को दूषित करते आ रहे है। दूसरे शब्दों में राष्ट्रभाषा को समाप्त करने के षड्यंत्र के साथ घृणित अपराध करते आ रहे है।
अब आजकल हमारे देश में कोई भी हिंदी और क्षेत्रीय भाषा न जानने के कारण और न बोल सकने के कारण शर्मिंदगी महसूस नहीं करता। इसके विपरीत अंग्रेजी भाषा न आने के कारण सदैव हीन भावना से ग्रसित रहता है। और बाजार का करिश्मा देखिये , गत कई वर्षो से नोकरी , व्यवसाय , और रोजगार के लिए अंग्रेजी भाषा जानना अत्यंत आवश्यक है यह जनमानस में एक योजनाबद्ध तरीके से कूटकूट कर भरा गया है। और इसके लिए जरुरी पाश्चात्य संस्कार का भी प्रचार प्रसार किया गया। अब रोज रोज नए ‘ डे ‘ मनाए जाते है। ‘ ‘जन्मदिन ‘ मनाने का समाधान तब तक नहीं होता जब तक वह ‘ बर्थ डे ‘ नहीं कहलाता। जन्मदिन पर कोई नहीं आता , कोई भेट भी नहीं देता। ‘ बर्थ डे ‘ पर सब आते है और भेट भी मिलती है। जन्मदिन कहने में हीनभावना महसूस होती है। बर्थ डे कहने में भव्यता महसूस होती है और फिर सारा बाजार ही आपके पीछे खड़ा हो जाता है। अरबो खरबो रुपयों के बाजार में अभिनंदन भी अंग्रेजी भाषा में होने से हम अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते है। हिंदी और क्षेत्रीय भाषा में किए अभिनदंन से हम अपने आप को ठगा सा महसूस करते है। परन्तु बाजार के लिए भारतीय तीज त्योहारों का उपयोग तो करना ही पड़ता है। फिर क्या है बधाई संदेशों में अंग्रेजी के मिलते जुलते शब्दो की मिलावट कर के अंग्रेजी को भारतीय संस्कृति के साथ खड़ा होना बताया जाता है। और अंग्रेजी के शब्द भी मूल रूप से भारतीय ही है यह बताया जाता है। ‘ये है बाजार मेरी जान ‘ इसका एक ही उसूल है पैसा कमाना। कभी कभी यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि अंग्रेज जाते जाते हमारे देश को , ‘ हाय’, ‘हेलो’, ‘थेंक्यु ‘, सॉरी ‘, ‘गुड़ मॉर्निंग’, ‘गुड़ नाइट’, ‘बाय बाय’, ‘प्लीज़’, लुक ‘, मॉम, ‘डेड’ जैसे शब्द अगर नहीं दे जाते तो हमारे देश का क्या होता ? हमारा देश तो शायद पिछड़ा ही रहा जाता ?
अब जब से एफएम रेडियो शुरू हो गए है तब से उनकी नीति भी अंग्रेजी के प्रचार प्रसार की रही है। इन रेडियो के निवेदक प्रसारण के समय ( जॉकी ) हिंदी ( और क्षेत्रीय भाषा में भी ) जानबूझ कर अपने वाक्यों में अधिकतम अग्रेंजी शब्दों की मिलावट करते रहते है। और दुर्भाग्य यह की हिंदी के वाक्यों में भी दो चार अंग्रेजी के शब्दों की मिलावट जानबूझ कर कर देते है। अब, “मैं ‘संडे’ को आऊंगा। ” ऐसे वाक्यों से क्या हासिल होता है ? यह सब अस्वाभाविक है। जिन अंग्रेजी शब्दों का उपयोग हिंदी वाक्यों में जानबूझ कर किया जाता है उन अंग्रेजी शब्दों के बहुत सुंदर सर्वमान्य आसान पर्याय हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध है।जिनका उपयोग बहुत सहजता और सरलता से किया जा सकता है।परंतु एक ख़ास कुटिल और षड्यंत्रकारी योजनाबद्ध तरीके से आवश्यकता न होने पर भी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को जड़ से उखाड़ने की प्रवृत्ति सब में नजर आती है।
हिंदी भाषा का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य हैं की हिंदी भाषा का झंडा उठाने वाले और उस पर गर्व करने और सबसे बड़े हितैषी होने का दावा करने वाले हिंदी भाषा के दैनिक समाचार पत्र और मासिक इत्यादि भी आज अंग्रेजी के मोहपाश में जकड़े हुए है। आज अंग्रेजी के सबसे ज्यादा शब्द और विज्ञापन हमें हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्रों में दिखाई देते है। व्यावसायिक घराने भी अंग्रेजी के आगे नतमस्तक हो गए है। हिंदी भाषा की बलि बाजार के कारक तत्वों ने ले ली है। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार पत्र अगर अंग्रेजी भाषा की इसी तरह आरती उतारते रहे तो हिंदी सहित क्षेत्रीय भाषाएँ ज्यादा दिन नहीं टिक सकती।समाचार पत्र और मिडिया अगर अंग्रेजी के ही गुणगान में लगे रहेंगे तो इन परिस्थितियों में हिंदी तो अनाथ ही हो जाएगी।
अब इन सब विपरीत परिस्थितयों का एक दुष्परिणाम ऐसा भी हुआ है कि आज अंग्रेजी भाषा की महँगी किताबो का एक बड़ा बाजार है। पाठ्यक्रम में सभी विषयों की किताबे अंग्रेजी में है। और बहुत महँगी होती है और पालक इन्हें ख़ुशी ख़ुशी खरीदते है। अंग्रेजी किताबे खरीद कर लोग अपने आप में गौरवान्वित महसूस करते है। हिंदी की श्रेष्ठ और कम मूल्य की परंतु बहुमूल्य ऐसी किताबे भी कोई खरीदने को तैयार नहीं होता।
हिंदी चित्रपट , धारावाहिक और सब प्रकार के दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में जानबूझ कर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को बिगाड़ने का षड्यंत्र निरंतर होता आ रहा हैं। संवाद हो या गीत इनमे अंग्रेजी शब्दों की मिलावट बढ़ती जा रही है। आश्चर्य यह की हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के कारण अपना पेट भरने वाले लोकप्रिय कलाकार जब मुलाखात देते हैं तो हमखास अंग्रेजी भाषा में ही बोलना अपनी विशष्टता और गौरव समझते है।
हिंदी भाषा सहित क्षेत्रीय भाषाओं को ख़त्म करने में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षण संस्थाओं का , और उनमें आपसी गलाकाट तीव्र प्रतिस्पर्धा का भी बहुत बड़ा योगदान है। अच्छे से अच्छे हिंदी माध्यम से उच्च और श्रेष्ठ शिक्षण लेने और देने हेतु कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। परंतु अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण हेतु , दिनरात अंग्रेजी में बोलने हेतु प्रोत्साहन के लिए , ठीक से अंग्रेजी बोल न पाने हेतु निम्न दर्जे का व्यवहार करना और इसके लिए प्रताड़ित करना इन अंग्रेजदाँ शिक्षण संस्थाओं एकमेव उद्देश्य रह गया है। अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना , उसका शास्त्रसम्मत अध्ययन करना , और चौबीस घंटे अंग्रेजी बोलना और पाश्चात्य व्यवहार करना दो अलग अलग बातें है। हिंदी ठीक से न बोल पाने से हम लज्जित नही होते परंतु अंग्रेजी ठीक से न बोल पाने के कारण हमारा अपने आप से शर्मिंदा होना क्या दर्शाता है?
यह हीन भावना छुपाने लिए ही लोग काम चलाऊ अंग्रेजी भाषा के शब्दों की मिलावट कर अंग्रेजी सुर में बोलते है। और बहुत से ‘ फ़ाड़फ़ाड़ ‘ अंग्रेजी बोलना सिखाने का व्यवसाय करने लगते है। जिसका सामाजिक हित और व्यक्तिगत मूल्य कुछ भी नहीं होता । भाषा में मुंबई में इस प्रकार की बोली को ‘ हिंग्लिश ‘ कहा जाता है। और यह ‘ हिंग्लिश ‘ बोली बोल कर लोग अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते है। अमीर और उच्च मध्यमवर्गीय लोगों में यह बीमारी अपने विकृति के चरम पर है। अब इसे क्या कहेंगे – ‘ कम्फरटेबलऊवा , ड्यूरेबल्लूवा , चिप्पुव्वा ‘ (आरामदायक है , टिकाऊ है , सस्ता है ) इस पर तो आप अपनी हँसी नहीं रोक पाएंगे।
पालक अपने बालकों को सबसे महंगे स्कूलों में पढ़ाना चाहते है। यहाँ भी पालकों के मध्य अपने समाज में एक विकृत प्रतिस्पर्धा है। घर में भी अंग्रेजी बोलना गर्व की बात समझी जाती है। यद्यपि ऐसा वार्तालाप संक्षिप्त और शाब्दिक होता है पर उसमें हिंदी की उपेक्षा का भाव ही रहता है। सबसे हास्यास्पद तो यह की ऐसे घरों में लोग अपने पालतू कुत्तों से भी अंग्रेजी में ही बात करते हैं।
ऐसे घमंडी लोगों का भाषा से रत्ती मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता। लोग हर बार यह भूल जाते हैं कि हिंदी , मराठी , राजस्थानी , हरियाणवी , भोजपुरी , आदि अनेक भारतीय भाषाओं की लिपि देवनागरी ही है। देवनागरी लिपि बोलने , लिखने , और समझने में बहुत आसान है और बहुत ही सरलता से इसका उपयोग किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा से तो हिंदी भाषा भी कई गुना सरल है। दरअसल हमारे यहाँ बात बात पर घृणित राजकारण होता है। जिस तरह धर्म के आधार पर देश का बटवारा आज एक भूल प्रमाणित हो चुकी है उसी तरह भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण भी वैमनस्य पैदा करने वाला निर्णय साबित हो चुका है। अगर सभी भारतीय भाषाओं की एक ही लिपि , जो देवनागरी ही हो सकती है , कर दी जाय तो भाषा का विवाद तुरंत ख़त्म जायेगा। आप अपनी भाषा बोलिये , और उसे एक सर्वमान्य लिपि में लिखिये। इस तरह किसी के लीये , कोई भी भाषा सीखना आसान हो सकता हैं। अभी भी देर नहीं हुई है। इस बारे में सोचा जा सकता है। हमें जर्मन , चीनी , जापानी , रशियन या फ्रेंच भाषाएँ नहीं आती तो क्या हम किसी तरह की शर्मिंदगी महसूस करते है ? तो फिर अंग्रेजी भाषा न आने के कारण हम किसी तरह की हीन भावना से ग्रस्त क्यों हो जाते है और शर्मिंदगी महसूस करने लग जाते है।
सरकारी बाबूगिरी , उनका तंत्र और व्यवस्था , इस बारे में तो चर्चा करना व्यर्थ ही है। नोकरशाह आज भी गुलामी और दासता के सपनों में रमणीय हैं। नोकरशाह उनका अपना वर्चस्व बनाये रखने हेतु आज भी समस्त सरकारी लिखापढ़ी अंग्रेजी भाषा में करने के ही हिमायती होते है। इसी विकृत मानसिकता ने पिछले सत्तर वर्षों से हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को अंग्रेजी का दास बना रखा है। न्यायलयों को आज भी ‘ मी लॉर्ड ‘ और ‘ यूअर ऑनर ‘ से मुक्ति नहीं मिल पायी हैं। कार्यालयों में सभी स्तरों पर आज भी अंग्रेजी भाषा ही अधिकृत मानी जाती है , और अंग्रेजी भाषा से ही हिंदी भाषा में अनुवाद किया जाता है। अनेक बार ऐसा हिंदी अनुवाद गलत और हास्यास्पद होता है। सच तो यह हैं कि हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी भाषा में अनुवाद होना चाहिए। जिससे हिंदी सहित सभी भाषाओं को फलने फूलने का समान अवसर मिलेगा। परंतु कुछ मुट्ठीभर लोगों की अंग्रेजी भाषा से आसक्ति हमारी राष्ट्रीयता और राष्ट्रप्रेम की भावनाओं को सदैव आहत करती आ रही है। आजादी के समय १९४७ में ३ प्रतिशत अंग्रेजी भाषा के कट्टर समर्थक ९७ प्रतिशत अंग्रेजी न जानने वालों पर राज करते थे और आज ७० वर्ष के बाद भी यही स्थिति हैं। अंग्रेजी भाषा के इस आक्रमण का मुकाबला करने में हिंदी भाषा इन्हीं शत्रुओं के कारण अपने आप को असहाय महसूस कर रही है।
रोजमर्रा की दिनचर्या में शुद्ध साहित्यिक भाषा की अपेक्षा किसी को नहीं होती है। परंतु बोलचाल की भाषा की दुर्दशा तो नहीं होनी चाहिए ? निज भाषा का मुद्दा कही तो भी अस्मिता का मुद्दा भी होना चाहिए। परंतु हमारे यहाँ सिर्फ राजनीति होती है। आधेअधूरे तरीके से अंग्रेजी भाषा के शब्दों की मिलावट हिंदी भाषा में कर के दोनों ही भाषाओं को खराब करने की विकृत मानसिकता , और भाषिक विद्वेष की प्रव्रत्तियों पर लगाम लगाने की महती आवश्यकता है।
हमारे देश में सिर्फ एक ही दिन हम ‘ हिंदी दिवस ‘ मनाते है और ३६४ दिन अंग्रेजी भाषा हेतु आरक्षित रखे जाते हैं। वास्तव में हमें अगर राष्ट्रभाषा को और अधिक पतन होने से बचाना है तो वर्ष में अंग्रेजी भाषा का ‘ अंग्रेजी दिवस ‘ सिर्फ एक दिन ही मनाना चाहिए और ३६४ दिन हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं हेतु आरक्षित रखना चाहिए।

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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