हौसला पंछी का पिंजरा
विजय गुप्ता
दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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छंद काव्य
उमर नही होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया हैं।
जब होनहार बिरवान सुना, हर पीढ़ी सुनते आए
किसी का दायित्व भी बनता, खुद से वो कितना गाए
तकदीर लिखाकर जो आता, खून पसीने की खाए
बेगानों की बात नहीं थी, अपनों से धोखे पाए
नौ मन तेल बिना ही कैसे, तिगनी नाच कराया है।
दिल में नफरत दीवारें थीं, फिर भी साथ बिठाया है।
उमर नहीं होती है जिनकी, फिर भी शैल उठाया है।
रखते पास हौसला पंछी, पिंजरा भी उड़ाया है।
धोखा विश्वास नदी पाट से, दोनों अलग किनारे हैं
दोनों मिल जाए मनुष्य को, तकदीरों के मारे हैं
बनती वजह लिहाज चाशनी, सदा समंदर खारे हैं
स्थिर जीवन कबूल नहीं फिर, मानो बहते धारे है
तिनका मोरपंख बन जाए, सिया कटार बनाया है।
अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखे, अल्प धन ही कमाया है।
उमर नहीं होती ...